रणधीर जी दौड़ भाग कर विवाह का सारा काम और प्रबंध देखने में पूरे मनोयोग से लगे हुए थे! खुशी उनके चेहरे से जैसे छलकी जा रही थी और होती भी क्यों नहीं, आखिर उनके इकलौती बिटिया नेहा का विवाह जो था। रिश्तेदारों से घिरी हुई सजी-धजी नेहा बिल्कुल आज जैसे देवी माँ का स्वरूप लग रही थी। अपनी माँ सुनंदा की आँखें पाई थीं नेहा ने… बड़ी-बड़ी और भावपूर्ण आँखें! पत्नी की याद आते ही रणधीर जी की आँखों के कोर भींग गए। मात्र 4 वर्ष की थी नेहा जब लंबे प्राणघातक रोग के कारण नेहा की माँ सुनंदा ने बिस्तर पकड़ लिया था। उनका उठना-बैठना चलना-फिरना सब कुछ बंद हो चला था। फिर भी रणधीर जी ने उनकी सेवा में कोई कमी नहीं रखी थी। बिना किसी झिझक या उपालंभ के वह अपनी पत्नी सुनंदा के सारे काम अपने हाथों से किया करते थे। उनका प्रेम निःस्वार्थ और अटल था परंतु होनी के समक्ष किसी की कब चली है भला…
एक दिन जब रणधीर जी पत्नी को बड़े प्रेम से सूप बनाकर पिला रहे थे तब अचानक सुनंदा ने भावुक होकर उनका हाथ पकड़ लिया और आर्द्र स्वर में कहा…
“- अब मुझे नहीं लगता जी कि मैं अब आपका और साथ दे पाऊंगी। मेरी तरफ से भी अपना ध्यान खुद ही रख लीजिएगा आप और बस आप इतना वचन दे दीजिए कि अपनी बिटिया नेहा का ध्यान हमेशा रखेंगे और उसे कभी माँ की कमी का अनुभव नहीं होने देंगे। रणधीर जी ने भीगे स्वर में मीठी झिड़की के साथ कहा….
“-कैसी बातें करती हो पगली! क्या कोई ऐसे हिम्मत हारता है भला… तुम्हें कुछ भी नहीं होगा…मै हूँ न तुम्हारे साथ.. लेकिन मैं तुम्हें यह वचन देता हूँ कि हम दोनों मिलकर जितना प्यार नेहा से करते हैं, यह प्यार सदैव उसे मिलता रहेगा। हम दोनों की प्यारी सी गुड़िया है वो… हमारी सारी आशाओं आकांक्षाओं का प्रतिरूप है वो… तुम उसकी चिंता बिल्कुल भी मत करो!…. चलो अब तुम जल्दी से मुँह खोलो और झटपट सूप पियो..”
लेकिन जैसे बस यही सुनने के लिए सुनंदा के प्राण अटके हुए थे। सूप का चम्मच रणधीर जी के हाथ में ही रह गया और सुनंदा की गर्दन एक और ढुलक गई! रणधीर जी की तो जैसे दुनिया ही लुट गई! अल्पवयस में जीवन संगी का साथ छोड़ जाना उन्हें तोड़ कर रख गया मगर जो जगत की रीत है वह तो करना ही था। वे यंत्रचालित से सारे क्रिया कर्म निपटाते रहे और नन्ही नेहा को कलेजे से लगाए जैसे उसके पिता और माता दोनों बन गए थे।
समय के साथ सभी रिश्तेदारों ने उन पर काफी दबाव बनाया कि वे दूसरा विवाह कर लें मगर वह नहीं माने। वह बिल्कुल नहीं चाहते थे कि नेहा के पालन पोषण में रत्ती भर भी कोताही हो और ऐसे में उन्हें किसी अन्य स्त्री पर विश्वास करना कठिन लग रहा था। इसीलिए उनका यह निर्णय रहा कि वह स्वयं नेहा की देखरेख अपने हाथों से करेंगे। इसलिए उन्होंने स्पष्ट रूप से दूसरे विवाह के लिए मना कर दिया। धीरे-धीरे लोगों ने भी बोलना छोड़ दिया।….. रणधीर जी और नेहा की एक अपनी अलग ही दुनिया बस गई थी…एक दूसरे में ही रम गए थे दोनों।
पढ़ लिखकर आज नेहा बहुत योग्य बन चुकी थी और एक बहुत ही उच्च और प्रतिष्ठित पद पर पदस्थापित थी। उसका रूप और उसके गुण तो ऐसे थे कि सहज ही किसी को अपनी ओर आकर्षित कर लेने का सामर्थ्य रखते था।……ऐसे में सहकर्मी विपुल के मन में बस गई मनमोहिनी नेहा….. और उसने नेहा के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया। विपुल के सुलझे हुए व्यक्तित्व और सहज और सरल स्वभाव से नेहा भी बहुत प्रभावित थी किंतु नेहा अपने पिता की सहमति के बिना तो इतना बड़ा निर्णय नहीं लेना चाहती। उनकी सहमति उसके लिए सर्वोपरि थी। उसके इन्ही गुणों और संस्कारों के कारण विपुल के मन में नेहा के प्रति प्रेम के साथ-साथ सम्मान भी बढ़ गया। और देर ना करते हुए वह अपने माता-पिता के साथ नेहा के घर रणधीर जी से उसका हाथ माँगने चला आया। रणधीर जी को भी विपुल और विपुल का परिवार बहुत पसंद आए। बहुत ही सुसंस्कारी और आदर्शवादी लगे वे लोग। विपुल के माँ-बाप ने तो साफ-साफ कह दिया कि अपनी नेहा बिटिया को वह सिर्फ दो जोड़ी कपड़ों में अपने घर ले जाएंगे,इसके अलावा उन्हें कुछ भी नहीं चाहिए। रणधीर जी तो पहले नहीं समा रहे थे नेहा के लिए इतना अच्छा घर बार पाकर! उनकी सहमति पाते ही विवाह की तैयारियाँ प्रारंभ हो गईं।आज उनकी लाड़ो आज पराई होने जा रही है! रणधीर जी अपने दृष्टि में ढेर सारा प्यार भरकर नेहा को दूर से निहार रहे थे जो अपने सखियों के साथ किसी बात पर खिलखिला रही थी। इतना खुश होने के बावजूद भी उनकी आँखें भर आई कि कल जब नेहा अपने ससुराल चली जाएगी तो वह अकेले बिल्कुल टूट से जाएंगे। फिर भी किसी प्रकार से उन्होंने अपने मन को कड़ा कर किया और वापस विवाह की तैयारियों में जुट गए।
बारात आ चुकी थी। आज दूल्हे के रूप में विपुल बहुत जंच रहा था। उसका सौम्य और सुदर्शन व्यक्तित्व आज और भी आकर्षक लग रहा था। मंगलाचार के बीच बारात का स्वागत किया गया। चारों ओर उल्लास का वातावरण पसर गया।
विवाह की विधियां प्रारंभ हो गईं। सब कुछ बहुत ही सौम्य और सहज रूप से हो रहा था। अब पंडित जी ने दूल्हा-दुल्हन को फेरों के लिए खड़े होने को कहा मगर विपुल नहीं उठा। रणधीर जी ने स्नेह से विपुल को कहा…
“-बेटा, पंडित जी फेरों के लिए खड़े होने को कह रहे हैं।”
मगर विपुल ने उनकी ओर एक बार देखकर दृष्टि फेर ली।अब रणधीर जी थोड़ा विचलित हो गए।उन्होंने मनुहार भरे स्वर में विपुल से पूछा…
“-बेटा! क्या बात है? पंडित जी ने आप दोनों को फेरों के लिए खड़े होने के लिए कहा है?”
अब विपुल ने थोड़ा रुष्ट स्वर में कहा.. “-ऐसा है कि अगर हमने अपने मुंह से कुछ नहीं मांगा, इसका मतलब यह तो नहीं होता ना कि आप कुछ अपनी तरफ से दें ही नहीं… थोड़ा तो आपको भी अपनी तरफ से समझना चाहिए..”
रणधीर जी के माथे पर पसीने की बूंदे चुहचुहा आईं, फिर भी उन्होंने स्वयं को संभालते हुए प्यार से विपुल को कहा….
“-बेटा कैसी बातें कर रहे हो? हँसी मजाक में लग्न का मुहूर्त बीता जा रहा है।”
विपुल ने फिर अकड़ते हुए कहा..
“- आपसे किसने कह दिया कि मैं मजाक कर रहा हूँ… अगर आपको समझ नहीं आ रहा खुद से तो सीधी सी बात सुन लीजिए कि मुझे दहेज चाहिए और यह मेरा अंतिम फैसला है…..मैं बिना दहेज के यह विवाह नहीं कर सकता…”
उसकी यह बात सुनकर बगल में बैठी नेहा हत्थे से उखड़ गई…
“-यह क्या बदतमीजी है विपुल! मुझे बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि तुम इस हद तक गिर सकते हो..”
तभी रणधीर जी ने बात को संभालते हुए कहा…
“-अरे बेटा तुम बताओ तो सही, तुम्हें दहेज में क्या चाहिए? तुम्हें जो चाहिए, वो मिलेगा। मेरी एक ही बेटी.. मेरी आँखों का तारा है नेहा.. उसके लिए कुछ भी कर गुजरेगा उसका यह अभागा पिता..”
विपुल ने अब सीधे रणधीर जी की आँखों में आँखें डालते हुए कहा…
“- तो मुझे जो चाहिए आप देने को तैयार हैं?”
रणधीर जी ने कातर दृष्टि से उसकी ओर देखते हुए कहा….
“-हां बेटा! मैं बिल्कुल तैयार हूँ।”
इस पर विपुल मुस्कुरा पड़ा और फिर कहा….
“- आप फिर से ठीक से सोच समझ कर उत्तर दीजिए… क्या आप वचन देते हैं कि जो मैं मांगूंगा आप मुझे देंगे?”
विपुल के माता-पिता के चेहरों पर भी मुस्कान खेल रही थी। उन सब का ऐसा रूप देखकर नेहा तैश में आकर आगे बढ़ी, तभी रणधीर जी ने उसे इशारे से रोका और विपुल से कहा…
“-हाँ बेटा मैं वचन देता हूँ कि तुम जो मांगोगे वह तुम्हें मिलेगा..”
अचानक विपुल रणधीर जी के चरणों में झुक गया और सौम्य और मृदुल वाणी में उसने कहा….
“-दहेज में मुझे आप चाहिए पापा! मैं केवल नेहा को लेकर नहीं जाऊंगा, आप भी हमारे साथ हमारे घर चलेंगे… यहां अकेले बिल्कुल नहीं रहेंगे।”
राहत,अचरज, स्नेह, हर्ष और झिझक….ये सारे रंग एक साथ रणधीर जी के चेहरे पर आने जाने लगे। रणधीर जी ने हड़बड़ाते हुए कहा….
“-ये कैसी बातें कर रहे हो बेटा? भला ऐसा कहीं हुआ है कि पिता अपनी बेटी के घर रहने लगे?”
“- क्यों नहीं हो सकता पापा! जब नेहा मेरे माता-पिता की बेटी बन सकती है तो मैं आपका बेटा क्यों नहीं बन सकता…और मत भूलिए कि आप वचन दे चुके हैं इसलिए अब आपको मेरे साथ चलना ही होगा पापा !”
“-लेकिन बेटा! दुनिया क्या कहेगी..” रणधीर जी हिचकिचाते हुए बोले।
इस पर विपुल ने कहा…
“- पापा आपके लिए मैं ज्यादा महत्वपूर्ण हूँ या दुनिया के लोग???”
इसके बाद कहने के लिए रणधीर जी के पास कुछ नहीं बचा था।
पास खड़ी नेहा की आँखों से हर्षातिरेक अविरल अश्रु धारा बहने लगी। उसे गर्व हो आया अपने पापा पर भी और अपने चुनाव विपुल पर भी..कितनी सौभाग्यशाली है वह कि उसके जीवन में इतने प्यार भरा हुआ है!
वह भी झट रणधीर जी की तरफ मुड़कर उनके सीने से लग गई और भींगे स्वर में मनुहार करते हुए कहा….
“- पापा…मान जाइए ना!”
अब विपुल ने चुहल भरे स्वर में कहा…
“- मुझे पता है कि नेहा की दुनिया आप हैं और आपकी दुनिया नेहा…तो आप दोनों को अलग करने का पाप भला इस बंदे के सर पर क्यों डाल रहे हैं…”
उसकी इस बात पर सबके चेहरों पर मुस्कुराहट खिल गई। नेहा ने एक प्यार भरी मुक्की विपुल की बाँह पर जड़ दी। नि:शब्द थे रणधीर जी! आज उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे दुनिया के सबसे भाग्यशाली व्यक्ति वही हैं जिसकी झोली में ईश्वर ने एक साथ इतनी सारी खुशियां डाल दी हैं। उन्होंने अपना सिर हामी में हिलाते हुए दोनों बच्चों को अपने सीने से लगा लिया।
अब नेहा और विपुल के फेरे शुरू हो चुके थे। सुख-दुख, हर्ष-विषाद और दायित्वों को बाँटने के वचनों के साथ दो आत्माएं एक हो रही थी। सारी रूढ़ियों और दकियानूसी विचारधारा और कुप्रथाओं को दरकिनार करते हुए एक नवीन इतिहास रचा जाने वाला था।
निभा राजीव “निर्वी”
सिंदरी, धनबाद, झारखंड
स्वरचित और मौलिक रचना
बहुत ही सुंदर भावपूर्ण रचना
काश ऐसा असल जिंदगी में भी होने लगे तो कितना अच्छा हो