एक वो रात थी -पुष्पा पाण्डेय

अक्सर ग्रामीण इलाकों में सरकार या सामाजिक संस्थाओं की ओर से मेडिकल कैम्प लगते रहते हैं।

इस बार आँख की बीमारी का कैम्प  लगा था, जिसमें मोतियाबिंद का ऑपरेशन भी होता था। इस कैम्प में दो डाॅक्टर और चार नर्सों का समूह था। उन नर्सों में एक सिनियर नर्स थी, पुतुल। पुतुल अपनी सौ प्रतिशत  सेवा ईमानदारी और सेवा-भाव से करती थी। यदि अस्पताल में किसी मरीज को उसकी जरूरत होती है तो वह समय का ख्याल किये बगैर अतिरिक्त समय देकर उसकी मदद करती थी। घर जाने की जल्दी तो उसे कभी रहती नहीं थी। आखिर किसके लिये घर जाती। परमात्मा की नाराजगी का वह डटकर सामना कर रही थी। शादी के दो साल बाद एक बेटी ऑपरेशन से हुई थी। काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। किसी तरह माँ-बेटी दोनों को डाॅक्टर ने बचा लिया। पुतुल और उसका पति दोनों बहुत खुश थे। उसका पति उसी अस्पताल में एक टेक्नेशियन की हैसियत से काम करते थे।

दो दिन बाद  माँ- बेटी की हालत में सुधार हुआ और पुतुल  अपनी बेटी को गोद में सुला कर दुनिया की हर खुशी अपने आँचल में समेट लिया।

इन दोनों की खुशी भगवान को रास नहीं आई और सुबह बेटी निष्प्राण पड़ी रही। ऊपर से जब डाॅक्टर द्वारा ये खबर मिली की पुतुल दुबारा माँ नहीं बन सकती है, तो दोनों की चेतना मानों शून्य हो गयी।आँखों के सामने सिर्फ अंधकार-ही- अंधकार था।——

कहते हैं न कि वक्त सबसे बड़ी औषधि है और वह वक्त आहिस्ता-आहिस्ता यादें धूंधली करता गया। कुछ दिन बाद करीबी मित्रों और परिवार की सलाह पर एक बच्चा गोद लेने को सोचने लगे। सोचते-सोचते कुछ वक्त गुजर गया। इतना बड़ा फैसला जल्दीबाजी में तो नहीं लिया जाता।——

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जिन्दगी एक बार फिर इम्तहान लेने के लिये तैयार हो गयी। फोन की घंटी बजी और पुतुल फोन उठाते ही फोन पटक कर बेतहासा दौड़ती हुई अस्पताल पहुँची। पति की साँसे अभी चल रही थी। पुतुल को देखते ही उनके होंठ फड़फड़ाने लगे।

धीमी आवाज में बोले-

“पुतुल ! मेरे जाने पर रोना मत। पहले ही बहुत रो चुकी हो।जो काम मिलकर करने जा रहे थे उसे अब अकेले ही करना।”

इसके बाद पति की आँखे जो बंद हुई फिर कभी नहीं खुली। इतनी बड़ी भयानक दुर्घटना थी। पुतुल की कोख तो पहले ही उजड़ चुकी थी अब मांग भी उजड़ गया। जीने का कोई मकसद नहीं बचा था, लेकिन जीना तो पड़ता ही है। वक्त अपनी गति से आगे बढ़ रहा था।सुबह होती थी, शाम होती थी और भूख-प्यास भी लगती थी। चाहरदीवारी के बीच जिन्दगी एक जीती जागती लाश बनकर रह गयी थी।—-

एक दिन पड़ोस में रहने वाली काकी ने आकर कहा-

” बेटी ! इस तरह घर में कितने दिन बंद रहोगी। सभी रिश्तेदार आये और चले गये ।परिचित भी सांत्वना देकर चले गये, लेकिन तुम्हें अब अपने बारे में सोचना है। जिन्दगी है तो क्यों न इसे एक मकसद लेकर जिया जाय।”

काकी की ये बात पुतुल को भा गयी और काफी सोच-विचार के बाद नर्स की ट्रेनिंग ली और उसी अस्पताल में नर्स  बन गयी।———

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कैम्प पाँच दिवसीय था। अंतिम दिन मौसम ने करवट बदला और बारिश तूफान में सबकुछ  अस्त-व्यस्त हो गया। सभी मरीज तो अपने-अपने घर चले गये, लेकिन एक वृद्धा का ऑपरेशन सुबह ही हुआ था। साथ में कोई था भी नहीं। पुतुल उसे उसके घर छोड़ने गयी। बारिश और तेज हो गयी। वृद्धा के अनुरोध पर पुतुल को उस दिन वहीं ठहरना पड़ा। वृद्धा के कमरे में ही पुतुल का भी विस्तर लगाया गया। वृद्धा के घर आते ही एक दो साल की बच्ची उससे लिपट गयी।रो-रोकर उसका बुरा हाल था। घर में बेटा-बहू सभी थे ,लेकिन बच्ची की तरफ किसी का ध्यान ही नहीं था। पुतुल को उसके बारे में जानने की इच्छा हुई।

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“ये कौन है अम्मा?”

” मेरी नतिनी है छोटी डाॅक्टरनी जी।” ग्रामीण वृद्धा महिला नर्स को छोटी डाॅक्टरनी ही समझती थी। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुये बोली-

” जन्म देने के बाद ही इसकी माँ चली गयी। बाप इसे अपनाने से इनकार कर दिया। मैं इसे कहाँ फेंकती? कलेजे से लगा कर रखा। मेरा बेटा इसे एतिमखाने (अनाथालय) देने के बोलता है। कैसे जीते जी इस मासूम के वहाँ भेज दूँ।”

अम्मा की बात सुनकर पुतुल की आत्मा घायल हो गयी। क्या इस बच्ची और मेरी तकदीर एक ही कलम से लिखी गयी थी?

बच्ची उस वृद्धा के पास ही सो गयी। चूँकि आज ही ऑपरेशन हुआ था इसलिये पुतुल ने रात में उस बच्ची को अपने पास सुला लिया। पुतुल की आँखों से नींद गायब थी। उस बच्ची को निहारती रही और सोचती रही एक वो रात थी और एक आज की रात है ……

अचानक वह काँप उठी। नहीं..नहीं .. वह उठकर बैठ गयी। कहीं इसे भी मेरी गोद रास न आये तो …

बेचैनी के साथ सुबह का इंतजार करती रही। सुबह उठकर उसने भारी कदमों से दहलीज को पार किया और अपने घर आ गयी।——

फिर वही वक्त का चक्र। लगभग एक साल बाद वह वृद्धा गाँव के एक युवक की सहायता से उस बच्ची के लेकर उसी अस्पताल में आई, जहाँ पुतुल नर्स थी। चूँकि वह अस्पताल आँख की बीमारी का  था। चोट लगने के कारण बच्ची को कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। अचानक पुतुल की नजर अम्मा पर पड़ी।

“अम्मा! आप? मुझे पहचानी?”

अम्मा अपनी यादाश्त पर जोर देती हुई बोली-

“आप वही छोटी डाॅक्टरनी हो न, जो कैम्प में थी?

” हाँ अम्मा! यहाँ कैसे?”

“सीढियों से गिर गयी है नतिनी। तब से उसे दिखाई नहीं दे रहा है। उसे ही लेकर किसी तरह इस अस्पताल तक पहुँच पायी हूँ।”

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पुतुल उस बच्ची को डाॅक्टर से दिखाने में उन लोगों की मदद की ,पर डाॅक्टर की बात सुन सभी चिन्तित हो गये। बड़ा ऑपरेशन और सफलता की उम्मीद कम।

अम्मा ने रोते-रोते कहा-

” इस अभागिन पर भगवान को भी दया नहीं आती है। किसी तरह इसकी आँख की रोशनी लौट आती तो इसे एतिमखाने भेज  दूँगी, ताकि चैन से मर सकूँ। एक आसारा तो मिल जायेगा इसे।”

उसकी ये बात सुनकर पुतुल को अपने पति की आखिरी बातें याद आ गयी।——-

बच्ची अस्पताल में भर्ती हो गयी पुतुल की देख-रेख में ऑपरेशन हुआ और ऑपरेशन सफल रहा। अस्पताल से छुट्टी भी मिल गयी। जाते वक्त पुतुल ने अम्मा को कातर नजरों से देखती हुई बोली-

“अम्मा! आप अपनी नतिनी को एतिमखाने भेजना चाहती है न, तो क्या आप इसे मेरी बेटी बना सकती हैं?”

पहले तो अम्मा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, फिर पुतुल का पैर पकड़ आँसुओं से उसके मोजे गीले कर डाली। पुतुल भी अम्मा के साथ रोये जा रही थी, बरामदे में खड़े कुछ लोग इन आँसुओं के मेल को देखकर हर्षित हो रहे थे। पुतुल एक महीने बाद कानूनी कार्यवाई के पश्चात उस बच्ची की माँ बन गयी।

स्वरचित

पुष्पा पाण्डेय

राँची,झारखंड।

 

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