किससे नाराज हो? क्यों नाराज हो? समझ में ही नहीं आता सब ही तो अपने है । माँ -पापा ने कभी कुछ कहा तो मेरे भले के लिए ही कहा होगा, सोचकर कभी उनसे नाराज नहीं हुई। घर के बाहर अपनी हम उम्र बच्चों के साथ खेलती, कभी-कभी किसी बात पर बुरा लगता,तो उसे दिल पर नहीं लेती, उसे कुछ देर में ही भुला देती। इतना जानती थी कि अगर नाराज होकर घर में बैठ गई तो फिर माँ खेलने के लिए नहीं जाने देगी। कुछ बड़ी हुई विद्यालय जाने लगी। गुरूजी ने कभी डाटा, कभी सजा दी तो लगा सही तो कह रहे हैं ये, अगर मुझे सजा नहीं मिली,
तो मैं सीखूॅंगी कैसे? अच्छा ही रहा उनकी दी हर सजा ने मुझे अनुशासित किया और अपनी गलती सुधार, मैं कक्षा में हमेशा अव्वल आने लगी। अब सभी शिक्षकों का प्रेम मुझे मिल रहा था, और जीवन सहजता से गुजर रहा था।मैंने कॉलेज में प्रवेश लिया और बी.एससी. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। मगर इस नाराजी नाम की चिड़िया को अपने पास फटकने भी नहीं दिया।एक अच्छा घर बार देखकर माँ पापा ने शादी करदी। मुझसे पूछा जरूर मगर मैंने उनकी पसन्द को सहर्ष स्वीकार कर लिया। अरूण की बैंक में नौकरी थी,
दिखने में भी बेहद खूबसूरत थे। परिवार के लोग भी सब शीक्षित वर्ग के थे, मुझे भी रिश्ता पसन्द आ गया। शादी हो गई परिवार बहुत अच्छा था। सासुजी का स्वास्थ कुछ ठीक नहीं रहता था, मगर वे दिल की बहुत अच्छी थी, बहुत प्यार करती थी हम दोनों बहुओं को। मैं नौकरी करना चाहती थी, किसी ने मना नहीं किया । दो साल विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी की घर का काम जैठानी रमा दीदी सम्हाल लेती थी, उनकी एक बेटी थी रीमा जो कक्षा तीसरी में पढ़ती थी, उसे मैं पढाई करवा देती थी। रमा दीदी एक बार फिर उम्मीद से हुई।
डॉक्टर ने उन्हें बेडरेस्ट करने के लिए कहा। अब घर के काम करने में असुविधा होने लगी। घर में परिस्थितियां अलग हो गई, अरूण ने कहा -‘सुधा अगर तुम ठीक समझो तो कुछ दिन के लिए नौकरी छोड़ दो, मुझे एक पल के लिए बहुत बुरा लगा। मगर मैं किस पर नाराज होती ?अरूण पर जिन्होंने सही बात कही, सास पर जो बिमारी में भी हमारी खुशी का खयाल करती है, रमा दीदी पर जिन्होंने कभी मेरी नौकरी को लेकर कोई शिकायत नहीं की, पूरे घर का काम वो अकेले ही सम्हाल लेती थी, आज वे परवश है
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तो क्या मेरा फर्ज नहीं हैं कि मैं उनका ध्यान रखूं? नाराजी को मैने अपने पास फटकने भी नहीं दिया, और जो काम करना है उसे प्रसन्न मन से ही क्यों न किया जाय, यह सोचकर मैंने नौकरी छोड़ दी। रमा दीदी को दु:ख भी हुआ मगर वे बेबस थी। उन्होंने इस बात के लिए हमेशा मेरा एहसान माना जबकि इसकी जरूरत भी नहीं थी। मेरा फर्ज मैंने अदा किया और उन्होंने भी जब मेरे बेटे हुए मेरा ऐसा ही ध्यान रहा। हम दोनों कभी एक दूसरे से नाराज हुई ही नहीं। मगर समय केसाथ जीवन में परिवर्तन होते हैं, कुछ पुराने रिश्ते साथ छोड़ देते हैं
और नये रिश्ते बनते जाते है। सास ससुर साथ छोड़कर भगवान के पास चले गए।भाई साहब का तबादला दूसरे शहर मे हो गया, अत: वे वहाँ चले गए।राजेश और जीतेश बड़े हो गए थे। राजेश दसवीं कक्षा में था और जीतेश बारहवीं कक्षा में दोनों के विचारों में जरा भी साम्य नहीं था, हर पल झगड़ते रहते थे, मुझे बुरा लगता मगर फिर भी मैं उन पर कभी नाराज नहीं होती, उन्हें प्यार से समझाती, सोचती आज नहीं तो कल उन्हें बुद्धि आ ही जाएगी। जीवन ऐसे ही चलता रहा। दोनों बेटों की पढ़ाई पूरी होने के बाद नौकरी लग गई।
अच्छा रिश्ता देखकर दोनों का विवाह कर दिया। बहुएं सीमा और शोभा बेटों से चार कदम आगे थी। हर बात में झगड़ा कभी किसी का मुंह फूला हुआ तो कभी किसी का। मैं सबको समझा-समझा कर हार गई, कि इससे घर की शांति भंग होती है। मगर कोई समझने को तैयार ही नहीं। अरूण सेवानिवृत्त हो गए थे, वे घर पर रहने लगे तो इस माहौल से घबरा गए। उनकी सारी खीज मुझपर निकलती। मुझे समझ नहीं आ रहा था किसपर नाराज होऊं? और कैसे? आज दिन तक किसी से जोर से बोली ही नहीं। मैंने ईश्वर पर सब छोड़ दिया।
एक दिन मैं पूजा कर रही थी, यह वह पल होते थे जब मुझे सुकून मिलता था। लगभग एक घंटा मुझे पूजा में लगता था। उस दिन मुझे वहाँ से उठने की इच्छा नहीं हुई, मैं माला फैलने लगी। उस समय घर से दोनों बेटों की आवाज़ आ रही थी- ‘माँ से यह तो नहीं होता कि बच्चों का टिफिन भरदे, हमे भोजन परोस दे सुबह-सुबह पूजा करने बैठ जाती है,वे पूजा दिन में भी तो कर सकती है।’ सीमा कह रही थी -‘मुझे ऑफिस के लिए देर हो रही है।’ शोभा कह रही थी कि ‘मेरी ट्यूशन वाली छात्राऐं पढ़ने के लिए आने वाली है। ये मम्मी जी भी……।
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‘ अरूण भी अपना राग अलाप रहै थे -‘इस घर में किसी को मेरी चिन्ता नहीं है पत्नी तो भक्त बन गई है।’ मैं सब सुनती रही बस अपनी जगह से उठी नहीं शायद यह ईश्वरीय प्रेरणा ही थी। रोज बेटा बहू आराम से आठ बजे सोकर उठते, उठकर अपना काम जल्दी करने की धुन मे एक दूसरे के ऊपर झल्लाते।मैं अपनी आदत के अनुसार सुबह साढ़े पॉंच बजे उठ जाती, अरूण और मैं सुबह छ बजे चाय पी लेते। ये घूमने चले जाते आकर पेपर पढ़ते और अपनी दैनिक दिनचर्या मैं व्यस्त हो जाते । मैं भी स्नान कर रसोई में नाश्ता बना देती,
सब्जी साफ कर देती और कई छोटे मोटे काम करने के बाद आठ बजे पूजा करने बैठ जाती थी। आज मैंने सोच लिया था, कि मैं अब किसी को कुछ नहीं कहूँगी, जो जैसा चल रहा है चलने दूॅंगी। शायद यह ईश्वर का संकेत था मैंने चुप्पी साध ली।दो दिन मैं किसी से कुछ नहीं बोली और न किसी से कुछ कहा। घर में कुहराम मचा था, घर की सारी व्यवस्था चरमरा गई थी। अरूण मायूस हो गए थे वे कई बार मेरे पास आए,मगर पता नहीं क्यों कुछ कहा नहीं। दोनों छोटे बच्चे मीकू और शोना भी सहम गए थे। चार दिनों के बाद
दौपहर में मैं ऑंखें मूंदकर लेटी थी।उस दिन रविवार था सबकी छुट्टी थी। मुझे नींद नहीं आई थी। मैंने सुना अरूण ने दोनों बेटों और बहुओं को बुलाकर पूछा ‘बेटा !क्या तुम्हें घर भारी नहीं लग रहा? क्या इस तरह हमारा जीवन चल सकता है? क्या सुधा गलत…?’ राजेश ने बात काटते हुए कहा ‘नहीं पापा! माँ कभी गलत नहीं रही, वे कभी हम पर नाराज भी नहीं हुई। हम ही अज्ञानी है जो कभी समझ ही नहीं पाए कि हमारी हरकतों से मॉं को भी कभी तकलीफ होती होगी।’ तभी जीतेश ने कहा -‘पापा मॉं की चुप्पी सहन नहीं हो रही,
चुभ रही है। अगर वे डॉटती तो शायद इतना दु:ख नहीं होता। पापा माँ इस तरह नाराज हो जाऐंगी कभी सोचा भी नहीं था।’ सीमा और शोभा भी रूऑंसी हो गई थी। अरूण ने कहा ‘आज हम सबको मिलकर उसे मनाना होगा, और वादा करना होगा कि हम छोटी-छोटी बातों पर कभी नाराज नहीं होंगे, और घर का माहौल हमेशा खुशनुमा रखेंगे।’ मैंने ऑंखें बंद कर रखी थी, और मेरे कान उनकी पदचाप का इन्तजार कर रहै थे। सबसे पहले दोनों बच्चे मुझे बाहों में घेरकर सो गए, मैंने उन्हें अपने ओर पास सटा लिया। फिर अरूण,
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राजेश,जीतेश और दोनों बहुऐं मेरे निकट आए। सभी ने सम्वेत स्वर में मुझसे मेरा मौन छोड़ने की गुजारिश की । मॉफी मांगी और कहाँ कि अब वे कभी एक दूसरे से नाराज होकर घर का माहौल नहीं बिगाड़ेंगे। एक बार हमें माफ़ कर दो।’ मैं उठकर बैठ गई । मैंने बस यही कहा-‘तुम क्या समझते हो , मुझे यह सब अच्छा लग रहा है,मैं तुम सबको मना -मना कर सचमुच थक गई थी। बेटा परिवार तभी परिवार कहलाता है जब हम एक दूसरे की भावनाओं को समझे, जरूरत पढ़ने पर एक दूसरे की मदद करे। हर पल एक दूसरे से लड़ने, झगड़ने और नाराज रहने से परिवार की सुख शांति नष्ट हो जाती है,
आशा है आगे से तुम इस बात का ध्यान रखोगे। और अब जल्दी से चाय बनाकर लाओ, ऐसा लग रहा है बहुत दिनों से सबके साथ चाय नहीं पी।’ घर का माहौल खुशनुमा हो गया था।
प्रेषक
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
# नाराज