‘ एक माँ का संघर्ष ‘ – विभा गुप्ता : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi  : दो वर्ष पूर्व मेरा हैदराबाद जाना हुआ।वहाँ एक परिचित से मिलने जब उनके घर गई तो उनके यहाँ काम करने वाली महिला को देखकर मैं चौंक पड़ी।उसने भी मुझे पहचान लिया था, इसीलिए इशारे से मुझे चुप रहने को कहा और किचन में जाने पर चुपके-से मुझे एक चिट पकड़ा दी जिसपर लिखा था, नीचे लाॅन में इंतज़ार करना।जितनी देर मैं वहाँ रही,दिमाग में उथल-पुथल मची रही, ये यहाँ कैसे? क्या हुआ इसके साथ ? जैसे कई सवाल उत्तर पाने के लिए के लिए बेचैन थें।

              दरअसल जिस महिला को देखकर मैं चौंकी थी,वो मेरी बचपन की सहेली तारा(परिवर्तित नाम)थी।उसका विवाह एक क्लास वन इंजीनियर से हुआ था।विवाह के दो वर्ष तक हमारे बीच पत्रों का सिलसिला चला, फिर अचानक बंद हो गया।मैंने उसके घर जाकर भी मालूम करना चाहा लेकिन किसी ने कुछ नहीं बताया और आज इतने सालों बाद मिली भी तो इस हाल में।मैं सवालों में उलझी दी कि उसने पीछे से आकर मेरी पीठ पर थपकी मारी। “तारा,तू यहाँ कैसे? ये सब क्या..” मैंनें चकित होकर उसपर प्रश्नों की झड़ी लगा दी तो बैठते हुए वह बोली, ” साँस तो लेने दे।” 

      उम्र से पहले आई उसके चेहरे की झुर्रियाँ, बिखरे बाल और सादा पहनावा उसके संघर्ष-गाथा को बता रहा था।कहने लगी, ” पति इंजीनियर है,सुख-सुविधाओं से भरी जिंदगी होगी, यही सोचकर मैं उसके(पति) साथ कहलगाँव(बिहार)आ गयी।उसी दिन से कभी वह मेरी कमी निकालता तो कभी अपने मित्रों की शिकायत करता।

एक पल किसी की प्रशंसा करता तो दूसरे पल ही ऐसी बात कह देता जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी।समाज में मुझे बेइज़्जत करके फिर प्यार से पेश आना तो उसकी आदत थी।मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था,किसी से कहूँ भी तो क्या, इसी बीच दोनों बच्चे हो गये और मैंने उनकी परवरिश में व्यस्त होकर उसके असंतुलित व्यवहार को नजरअंदाज कर दिया।बच्चों के साथ भी कभी बहुत प्यार दिखाता तो पल में ऐसा कि उन्हें पहचानता ही नहीं।अक्सर ही कमरे में बंद रहता, दस-दस दिनों तक कोई बात नहीं होती थी और फिर से सब नाॅर्मल।”कहकर उसने एक ठंडी साँस ली।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

बड़का बिल्ला! – सारिका चौरसिया




     मैंने पूछा,” फिर?”

बोली, ” फिर क्या, तूफ़ान से पहले वाली शांति थी वह।दसवीं के बाद बड़ा बेटा कोटा गया तो मैं भी छोटे बेटे को लेकर उसी के साथ रहने लगी।हमें उस नरकीय वातावरण से मुक्ति मिल गयी थी।यद्यपि कोटा की लाइफ़ भी आसान तो नहीं थी,पैसों के लिए तो हमें तब भी भिखारी बनना पड़ता था और अब भी।बारहवीं के बाद बड़ा बेटा मनिपाल यूनिवर्सिटी चला गया।उस दौरान उसने कितना परेशान किया,इसकी चर्चा करना व्यर्थ है। 

          साल 2010, बड़ा बेटा छुट्टियों में आया हुआ था।छोटा स्कूल में था तब बेटे ने मुझसे पूछा, ” मम्मी, पापा, मेरे साथ ऐसा क्यों करते हैं?” 

 मैंने पूछा, ” कैसा?”

उसने जवाब नहीं दिया और आँखें नीची कर ली।एक माँ ने अपने बेटे के उस दर्द को महसूस कर लिया जिसे बेटा बोल नहीं पाया था।” कहते हुए वह फूट-फूटकर रोने लगी।मैं अब भी कुछ समझ नहीं पा रही थी।उसे चुप कराया,पानी का बाॅटल उसे दिया।तब वह रोते-रोते बोली, ” गुड्डी(मेरा निक नेम), मेरा बेटा सिर्फ़ पंद्रह साल का था तब उसने..।वह अपने कपड़े… और बेटे के साथ….।उसने अस्पष्ट कहा पर मैं सब कुछ स्पष्ट समझ गई थी।

हे भगवान! कोई इंसान इतना गिर सकता है, उसके दिल पर क्या बीती होगी और उसका मासूम बेटा जो डर और हिचक से न जाने कब से उस पीड़ा को सह रहा था।मैंने उसे रोने दिया, उसका मन कुछ हल्का हुआ तो बोली, ” मैंने बेटे से कहा कि अब बस,आगे बढ़े तो उसी के जूते से उसकी पिटाई करना,बाकी मैं संभाल लूँगी। वो वक्त मेरे दुखी होने का नहीं था। दोनों बच्चों की पढ़ाई,उनकी फ़ीस और घर के रक्षक बने भक्षक से बच्चों के अस्तित्व को बचाना, ये सारी ज़िम्मेदारियाँ मेरे सिर पर खड़ी थीं।मैंने उसे फ़ोन करके कहा कि अब अगर मेरे बच्चों को हाथ भी लगाया तो तेरे दोनों हाथ काट दूँगी।

      एक दिन वह कोटा आ धमका,बहुत मुश्किल से मैंने अपने क्रोध पर काबू किया लेकिन वो तो बस..।बड़े बेटे को फ़ोन करके तरह-तरह से परेशान करने लगा और तब मैं उसके गेस्ट हाउस पहुँची,जहाँ वह ठहरा था।मैंने कमरा बंद किया और अपनी चप्पल उतार कर शुरु हो गई।उस वक्त सचमुच में मुझपर माँ दुर्गा सवार थीं।वह अपने को बचाने का प्रयास किया लेकिन सच नहीं बोला।मैं थक गई पर वो नहीं ..।” मैंने उसका चेहरा देखा जिसपर दर्द, दुख और संतोष के मिले-जुले भाव थें।संतोष इस बात कि उसने अपने बेटे पर हुए अत्याचार का बदला ले लिया है लेकिन नहीं, एक बड़ी लड़ाई अभी भी उसे लड़नी बाकी थी।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

लगन – नताशा हर्ष गुरनानी




       उसने आगे कहना शुरु किया, ” उस दिन मुझे लगा कि अब सब ठीक है लेकिन ये मेरा भ्रम था।बेटे का फाइनल हो गया और उसे जाॅब भी मिल गई।छोटे का भी कॉलेज में एडमिशन कराके मैं वापस उसी के पास आ गई।बेटों की सुरक्षा के लिए मुझे पति नाम के ज़हर तो पीना ही था लेकिन यहाँ तो…।पास-पड़ोस मुझे ऐसे देखते जैसे कि मैं कोई भूत हूँ।पता चला कि उसने अपनी काॅलोनी में यह कह रखा था कि मेरी बीवी पागल है, मुझे मारती है।

बदनाम तो मैं हो ही गई तो अब डर कैसा।मैंने इसकी करतूतों को उजागर किया ताकि वे लोग सतर्क हो जाएँ लेकिन यहाँ भी मैं गलत थी।कुछ ने कहा, जाने दीजिए, पति है ना, तो कुछ ने, पैसा देता है ना।फिर मैंने अपना ध्यान संगीत-शिक्षा में लगा लिया लेकिन वो तो वहाँ भी मेरी शिकायत करने पहुँच जाता था।….।कई बार दिल चाहा कि उसे छोड़ दूँ पर जाऊँगी कहाँ, जब घर वाले ही नोंच रहें थें बाहर तो सब घात लगाये बैठे हैं और फिर मेरे पीछे तो वो बच्चों का सर्वनाश कर देगा।बस गाड़ी खिंचती चली गई।” 

        मैंने पूछा, ” एक ही घर में…उस इंसान के साथ.. कैसे..?” कहने लगी, ” बहुत मुश्किल होता है उस इंसान को देखना जिसने आपके बच्चे का सर्वनाश किया हो और मेरी मजबूरी थी कि मेरा कातिल भी और पालनहार भी वही था।घर एक परंतु कमरे अलग-अलग,छोटे की पढ़ाई पूरी होने तक हर हालत में मुझे उसके साथ रहना ही था।

किसी तरह तीन साल बीत गये।उसने प्री-रिटायरमेंट लेकर काॅलोनी छोड़ दी और हम किराये के घर में रहने लगे।कोटा में थी तब उसने मुझे एक डेबिट कार्ड दिया जिसमें ज़ीरो बैलेंस रहता था।अब मुझमें थोड़ी हिम्मत आ गई थी तो मैंने कहा कि मुझे मंथली एक निश्चित अमाउंट चाहिये, वह तैयार हो गया।इस बीच मेरे छोटे बेटे का प्लेसमेंट भी हो गया तो लगा अब सब ठीक..लेकिन नहीं..अभी तो संघर्ष के कई रंग मुझे देखने थें।” वह चुप थी जैसे आगे की बात कहने के लिए हिम्मत जुटा रही हो।मैंने कहा, ” चल, चाय पीकर आते हैं।” कहने लगी, ” क्लाइमेक्स सुन ले,चाय पीने की इच्छा खत्म हो जाएगी।” मैं सोचने लगी, इतने बड़े हादसे के बाद अब क्या लेकिन उसने जो बताया…।

         बोली, ” एक दिन मैं अपनी सहेली से मिलने गई और वापस आई तो मुझे घर के अंदर जाने नहीं दिया।उस पर सनक सवार थी,मेरे उग्र होने से वह आपे से बाहर हो जाता,पहले भी दो बार मेरे हाथों को ऐंठ चुका था।इसलिए मैं चुप थी लेकिन वो मुझे उकसाता रहा और फिर…।फिर उसने उसे मारा,एक नहीं, दो नहीं, तीन थप्पड़ मारे।मैं चुप रही क्योंकि इतने सालों में इतना तो समझ चुकी थी कि वह पुरुष है, पैसा-पावर है और समाज उसी के साथ है।करीब तीन घंटे बाद उसने मुझे घर के अंदर जाने दिया लेकिन मेरी पहरेदारी करता रहा।फिर मैंने पुलिस को फ़ोन किया,पुलिस को साॅरी बोल दिया और बात खत्म।और तभी मैंने सोच लिया कि अब बस..,अपनी अलग व्यवस्था मैं कर लूँगी।”

इस कहानी को भी पढ़ें: 

माँ मत जाओ –  बालेश्वर गुप्ता : Moral Stories in Hindi

        उसने एक गहरी साँस ली, फिर बोली, ” एक दिन मैं मंदिर गई थी,उसने फ़ोन किया लेकिन मैंने नहीं उठाया।मैं मंदिर में रही और तकरीबन तीन घंटे बाद वापस घर आई तो दरवाज़ा खुला था और घर खाली।”

” घर खाली! क्या मतलब?” मैंने आश्चर्य-से पूछा।कहने लगी, ” उस तीन घंटे में वह एक ट्रक मंगवा कर किराये का घर खाली करके चंपत हो गया था।फ़ोन उठाया नहीं और मैं हाथ में पर्स और दूसरे हाथ में प्रसाद लिए खड़ी रह गई।सब खत्म हो गया था गुड्डी, मेरी हिम्मत अब टूट चुकी थी।”




       जो बातें वो भूल चुकी थी, उसे फिर से याद करके वह सिहर उठी थी और मैं तो जड़वत् हो गई।अब उसकी आँखें नम और चेहरा सफ़ेद हो चुका था।बोली, ” बड़े ने फ़ोन नहीं उठाया ,छोटे ने कहा, कल की फ़्लाइट से आता हूँ।मैं पुलिस के पास भी गई लेकिन उसने पहले ही पुलिस को रिश्वत दे दिया था।बेटे के आने तक का एक दिन उस खाली मकान में मैं कैसे रही,ये तो भगवान ही जानते हैं।समाज, पड़ोस तमाशाई थें।उसने न तो बेटे का फ़ोन उठाया और न ही मुझे फ़ोन किया।बेटे के साथ मैं हैदराबाद आ गई।”

  ” और तेरे पति का क्या हुआ? तेरा सामान..।” मेरे पूछने पर बोली, ” यहाँ बेटा चार लोगों के शेयरिंग में था।मैं कुछ कहती थी तो टाल जाता था।एक दिन उसने बताया कि पापा पटना में फ़्लैट खरीदकर वहाँ शिफ़्ट हो गयें हैं।बस फिर मैंने गूगल पर वकील के बारे में सर्च किया,डिटेल पता करके उसपर केस कर दिया।” उसकी हिम्मत देखकर मैं बहुत खुश हुई, मैंने कहा, ये तो तूने बहुत अच्छा किया।” सुनकर हँसने लगी।बोली, ” किनारे पर खड़े होकर समंदर पार करने की सोचना और समंदर में जाना, दोनों में ज़मीन-आसमान का अंतर होता है।”

” क्या मतलब?” 

        बोली, ” केस फ़ाइल करने के लिए भी कागज़ात चाहिए जो मेरे पास नहीं थें।तीन साल तक बहुत पापड़ बेलने पड़े,सबूत-गवाह के चक्कर में मेरे बचे हुए बाल भी सफ़ेद हो गये थें।फिर कोर्ट ने 5000/मासिक देना तय किया पर उसमें भी वो मुझे रुला देता था।खैर,बड़ा बेटा सेटेल था ही,छोटे को भी अपनी ज़िम्मेदारी से मैंने मुक्त कर दिया।”

     ” क्या मतलब?” 

वो बोली, ” विवाह के समय परिवार-संबंधी पूछे जाने पर वो क्या जवाब देता।मैं साथ रहती तो उसे एक डर बना रहता।छोटी-सी उम्र में उसने माता-पिता के बीच लड़ाई,झूठ-सच के तमाशे देखे थें, उसका मन कितना आहत हुआ होगा,इसीलिए मैंने उसे भय मुक्त कर दिया और अलग हो गई।उसने मुझे खर्च देना चाहा,पर मैंने मना कर दिया।

पिछले सात सालों से अदालत में मेरा मेंटनेंस का केस चल रहा है,तारीखें आती हैं और चली जाती हैं।मैं यहाँ खाना बनाने आती हूँ।जिस खाने को मेरा पति फेंक देता था, उसे यहाँ सभी प्रेम से खाते हैं।मेरे आत्मविश्वास को बढ़ावा मिला है।यहाँ से जाकर शाम में ऑनलाइन ही ट्यूशन भी पढ़ाती हूँ।तुझे देखा तो आज की क्लास कैंसिल कर दी।”

इस कहानी को भी पढ़ें: 

बहू भी अब हमारे परिवार का अहम हिस्सा है – ज्योति आहूजा

    मैंने पूछा, ” तेरे मायके वाले?” 

     ” कुछ रिश्ते खींचा-तानी वाले होते हैं जिससे दूर रहना ही उचित है।अपने बच्चों को न तो मैं मज़ाक का पात्र बनाना चाहती थी और न ही ये चाहती थी कि कोई उन्हें दया की दृष्टि से देखे।मुझे अपना घर,अपने बच्चे संभालने थें।इतनी देर हो चुकी थी कि अपनी समस्या मैंने अपने तरीके से ही सुलझाना उचित समझा और फिर भगवान हैं ना।

एक माँ अपने बच्चे को खुश देखना चाहती है और मेरे बच्चे खुश हैं।मेरे साथ रहने से उनके अंदर एक डर बना रहता और डर कई समस्याओं का जनक होता है।हाँ, इतना ज़रूर है कि उनपर कभी भी कोई आँच आई तो मैं उनकी रक्षा के लिए हमेशा तैयार रहूँगी।मेरे बच्चों की कोई गलती नहीं है, उनके जन्मदोष की ज़िम्मेदार मैं हूँ।”

    ” फिर तो तू हार गई” 




   ” हार-जीत का फ़ैसला तो लड़ाई खत्म होने के बाद होता है।मेरी जंग तो अभी जारी है।” उसका दृढ़ विश्वास देखकर मैं चकित थी।मैंने पूछा कि तुझमें इतनी शक्ति आती कहाँ से है? कहने लगी, ” नारी का दूसरा नाम ही शक्ति ही है।अपने आसपास नज़र डालने पर मैंने हर किसी को संघर्ष करते देखा है।

एक माँ अपने बच्चे को जन्म देते समय भी अपने शरीर से संघर्ष करती है, फिर वो कोई पशु ही क्यों न हो।मादा पक्षी भी तो अपने अंडे को दिन-रात बैठकर सेती है और मैं भी एक माँ का फ़र्ज निभा रही हूँ।हाँ, थोड़ा अलग ज़रूर है।” कहकर वह मुस्कुराने लगी।मैं उस माँ के संघर्ष के आगे नतमस्तक हो गई।बाहर अंधेरा गहरा रहा था लेकिन उसके मन का अंधकार दूर हो रहा था।मैंने उसका नंबर अपने मोबाइल फ़ोन में सेव किया और उसे ‘टच में रहना ‘ कहकर वापस चली गई।

      रास्ते भर मैं उसी के बारे में सोचती रही कि अपनों के साथ उसका संघर्ष करने का दौर कितना कठिन रहा होगा।पति का अमर्यादित व्यवहार, बेटों की सुरक्षा,स्वेच्छा से उनका विछोह स्वीकार करना और फिर अपने आत्मविश्वास को बनाये रखना,ये सब उसके लिए कितना कठिन रहा होगा।हैरत की बात थी कि इतने संघर्षों के बाद भी वह एक पल के लिए भी टूटी नहीं थी।

आमतौर पर लोग मौत से संघर्ष करके जिंदगी की जंग जीतते हैं पर तारा तो जिंदगी से संघर्ष कर रही थी।सही मायने में वह एक योद्धा थी।अपने बच्चों को देखने के लिए उसकी ममता कितनी तड़पती होगी,अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करना उसके लिए कितना कठिन होता होगा।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

 मिल गई मंज़िल…” – डॉ. सुनील शर्मा

बत्तीस वर्षों की लंबी लड़ाई के बाद भी उसके चेहरे पर एक शिकायत की एक शिकन तक न थी जैसे कि उसने अपनी तकलीफ़ों को आत्मसात कर लिया हो।उसकी दर्द भरी मुस्कुराहट और फ़ीकी हँसी ने मेरे मन को झकझोर दिया था।कहाँ से उसे इतना साहस मिला,कैसे उसने अपनी शक्ति बटोरी होगी,यही सब सोचते-सोचते मैं कब अपने गंतव्य पर पहुँच गई, मुझे पता ही नहीं चला।सच में,वह नारी-शक्ति की वह एक जीती-जागती मिसाल थी।उस मातृशक्ति को मैं सलाम करती हूँ।

                              — विभा गुप्ता 

    #संघर्ष                    स्वरचित 

           इंसान के जीवन में परिस्थितियाँ कितनी भी विपरीत क्यों न हो, कभी हार नहीं माननी चाहिए।संघर्ष करते रहना चाहिए जैसे कि तारा कर रही थी।गीता में भी लिखा है कि कर्म करते रहना चाहिए।

1 thought on “‘ एक माँ का संघर्ष ‘ – विभा गुप्ता : Moral stories in hindi”

  1. बहुत ही मार्मिक दिल को छू लेने वाली…..!!

Comments are closed.

error: Content is Copyright protected !!