एक भूल …(भाग-16) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral Stories in Hindi

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महारानी के नेत्रों में एक बार फिर से सत्ता का गौरव लहराने लगा। उन्होंने प्रजा को वहीं रुकने को कहा और स्वयं भी

मन्दिर की सीढियों पर सामान्य नारी की तरह बैठ गई। उनके सामने जन समुदाय था। महारानी ने जन समुदाय को सम्बोधित करते हुये कहा –

” आप सबका अपराधी यहीं आयेगा। रामलला के समक्ष ही न्याय होगा।”

उन्होंने युवराज को संदेश भिजवाया –

” यथाशीघ्र रामलला के समक्ष उपस्थित होकर अपना अपराध स्वीकार करो और प्रजा से क्षमा की याचना करो साथ ही वचन दो कि अब कभी इस तरह के कार्यों की पुनरावृत्ति नहीं होगी।”

सुनकर युवराज क्रोध से बावले हो गये –

” निरीह और तुच्छ प्रजा का इतना साहस जो मेरे विरुद्ध अभियोग लगाये। इसका परिणाम इन्हें भुगतना पड़ेगा।”

वह क्रोध से घोड़ा दौड़ते हुए आये तथा महारानी एवं रामलला के समक्ष ही उपस्थित जनसमूह को घोड़े के पांव तले रौंदने लगे। सभी हतप्रभ रह गये । वातावरण पीड़ितों और घायलों  के कोलाहल से गूंजने लगा –

” मेरे विरुद्ध अभियोग लेकर आये थे ना, अब सजा तो भुगतनी ही पड़ेगी। राज्य में अब मात्र मेरी आज्ञा का शासन रहेगा।”

महारानी ने आगे बढकर युवराज के घोड़े की बागडोर अपने हाथों में पकड़ ली – ” यह क्या किया राघवेन्द्र?”

वह क्रोध से कॉप रही थीं -” मेरी प्राण प्रिय प्रजा के साथ इतना अत्याचार। स्वयं अपने नेत्रों से देखकर भी विश्वास नहीं हो रहा है। तुम पर विश्वास करके राज्य काज से  विमुख होना मेरी ही भूल थी लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। सम्भवतः तुम्हें स्मरण नहीं है

कि तुम मात्र युवराज हो, मेरे रहते तुम्हारा शासन नहीं हो सकता। यदि तुमने अभी प्रजा से क्षमा की याचना नहीं की तो मेरी निर्दोष प्रजा पर तुमने अभी तक जो अत्याचार किये हैं, उसके लिये तुम्हें मृत्युदंड भी दिया जा सकता है।”

युवराज के अधरों से एक विद्रूप ठहाका वातावरण में गूॅज उठा –

”  वृद्ध कन्धों पर शासन का दायित्व शोभा नहीं देता महारानी। आपको तो स्वयं वानप्रस्थ ग्रहण कर लेना चाहिये परन्तु आपसे तो सत्ता सुख का लोभ त्यागा ही नहीं जा रहा है। मैं कब तक आपकी मृत्यु की प्रतीक्षा करूॅ? वसुंधरा वीरों की भोग्या होती है

और  संदलपुर के सत्ता धारियों में तो साम्राज्य के विस्तार की कभी कोई आकांक्षा ही नहीं रही, मेरी दृष्टि में यह प्राणों का मोह और कायरता है। अतः आप अपना शेष जीवन राजमहल और राज्य की चिन्ता करने के स्थान पर यहीं अपने रामलला के सानिध्य और पूजा अर्चना में व्यतीत करें। राज्य की व्यवस्था मेरे हाथों में सुरक्षित रहेगी। अन्यथा मुझे कोई सशक्त निर्णय लेना पड़ेगा। “

युवराज जिस झंझावात की गति से आये थे वापस लौट गये।

महारानी और प्रजा फटी फटी ऑखें लिये आश्चर्य से उस दिशा की ओर देखते रह गये जिधर अभी अभी युवराज गये थे। महारानी और जन समुदाय शोक,दुख एवं आश्चर्य से जड़ रह गये। महारानी जैसी माता की ममता और स्नेह की छाया में पलकर युवराज ऐसे हो गये।

महारानी के तपस्वी जीवन का यह परिणाम। अनजान में की गई एक भूल का आजीवन प्रायश्चित करने के पश्चात भी रामलला ने उन्हें क्षमा नहीं किया अन्यथा जीवन की सांध्य बेला में उनके समक्ष ऐसा दृश्य उपस्थित न होता।

महारानी को विह्वल देखकर प्रजा का दुख और बढ गया। अस्वस्थता की स्थिति में कोई महारानी को कष्ट नहीं देना चाहता था। यदि उन्हें पता होता कि ऐसा कुछ होगा तो वे सब सारे अन्याय और अत्याचार सहकर भी कभी महारानी से कुछ न कहते।

ऑखों से गिरते ऑसुओं सहित दोनों हाथों को जोड़े वह अपनी ही प्रजा के समक्ष अपराधी के समान खड़ी थीं –

” आप सब मुझे दंड दीजिये। आपकी अपराधी हूॅ मैं। आपको मुझे बहुत पहले दंडित करना चाहिये जब मेरी भूल के कारण आपने अपने महाराज और राजकुमार को खो दिया था लेकिन आप सबने उदारता पूर्वक मुझे महारानी के सिंहासन पर विराजित कर दिया

और उसके परिणाम स्वरूप आप सब आज तक कष्ट पा रहे हैं। मेरी भूल के कारण संदलपुर की प्रजा बार बार पीड़ित होती है।  मेरे अपराध का दंड बार बार आप सबको भुगतना पड़ता है। युवराज के चयन में मुझसे भूल हुई, उनमें अपने दादा और पिता के संस्कार आरोपित करके मैं आपको उपयुक्त उत्तराधिकारी नहीं दे पाई,

इसी कारण आप सब अन्याय और अत्याचार सहन करने हेतु विवश हो गये। ममतान्ध मैं युवराज के कुकृत्यों के प्रति अनजान रह गई।”

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बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर

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