काली घटा देखकर रूचि तेज रफ्तार से सीढ़ियां चढ़कर छत तक पहुंची बहुत से कपड़े धो डाले थे उसने आज। सावन का महीना था ना ,तो बादल और रिमझिम को तो मजा आता ही है लुका छुप्पी खेलने में, अक्सर रुचि को बहुत लुभाती थी यह लुका छुप्पी । क्यों ना भाए उसका पसंदीदा महीना था ये । उमस भरी गर्मी से राहत दिलाता सावन। हर तरफ हरियाली नई-नई कोपले फूटती हुई मानो मन में नई उम्मीद जगा रही हो।
बहुत ही प्यारा ससुराल था रुचि का । एक बहन सी ननंद भाई का लाड लड़ाता देवर, माता-पिता की कमी ना होने देने वाले सास-ससुर और उसकी एक मुस्कुराहट पर जान लुटाने वाला पति । अभी एक महीना ही हुआ था रुचि की शादी को सबने ऐसे अपना लिया था मानो वाकई में जन्मों का रिश्ता हो पर रुचि उनमें घुल मिल नहीं पाई थी अभी तक मन भटकता था उसका । अभी भी कॉलेज के कॉरिडोर में , कभी कैंटीन में तो कभी लेक्चर लेते हुए क्लास रूम में और उन दो आंखों में जो कुछ ना कहकर भी बहुत कुछ कह जाती थी उससे। बिना बोले ही एक रिश्ता बन गया था दोनों में। एक साथ कॉलेज आना जाना , एक साथ घूमना ,घंटो बतियाना, हंसी ठिठोली, छेड़खानी अब उनकी जरूरतों में शामिल होने लगा था । नयन और रूचि करीब आने लगे थे। पर कभी अपना मन एक दूसरे के सामने जाहिर न कर पाए।
इन सब से अनभिज्ञ रुचि के पिता ने उसकी शादी तय कर दी थी ।मन मसोस कर बेमन से रूचि ससुराल आ गई। सबका ध्यान रखती पर पति के सामने सहज न हो पाती । उसके मन मस्तिष्क में अब भी नयन बसा हुआ था। एक दिन अचानक बाजार में पुरानी यादें टकरा गई । वो झूम उठी ,मन हुआ रिमझिम बूंदों सा बरस जाने का ,वापस घर तो आ गयी पर कभी हां कभी ना के बीच झूलता रहा मन ।जैसे काली घटा आती जाती है ना सावन में । ऐसे ही कितने ख्याल और मिलने का अवसर ढूंढता रहा मन ।
एक दिन दोपहर को जब नवीन दफ्तर से घर आए तो वो चौंक गई ,देखा कि उनके साथ नयन थे जिनके पास रूचि का भीगा मन न जाने कब से पड़ा था । असमंजस भरी स्थिति में पड़ गई रूचि । वर्तमान उसके अतीत से उसका परिचय करवा रहा था ।
“रूचि , यह मेरे बॉस और उनकी धर्मपत्नी हैं ” नवीन बोले
बुत बनके खड़ी रह गई रुचि । जिस से मिलने की आस में वह सारी मर्यादाए भूलने वाली थी। वह तो अपनी धर्म पत्नी के साथ खुश नजर आ रहा था ,उसे भूल चुका था। और वह अब तक उसे अपना सर्वस्व मानकर अपने पति की अवहेलना करती आ रही थी, पर वो कभी चू नहीं करते थे। बस इतना जरूर कहते –
“रूचि ,मैं तुम्हारा हूँ, जब मन हो पुकार लेना”
धिक्कार है तुझ पर , रुचि बुदबुदाई। बाहर बहुत जोरों की बरसात हो रही थी और ऐसी ही पश्चाताप की एक बरसात उसकी आंखों से भी हो रही थी । वह अपने आप को छोटा महसूस कर रही थी उसे अपनी गलती का एहसास हो गया था। अपने पागलपन में वो कितनी बड़ी गलती करने जा रही थी। नयन ने भी उसे अपने शादीशुदा होने के बारे में नहीं बताया था। आज उसे महसूस हुआ कि माता -पिता जो हमारे लिए चुनते हैं वही साथी हमारे लिए बेहतर होता है। गहरी सांस लेते हुए रुचि ने नवीन पर नजर डाली, वह बड़ी तल्लीनता और शालीनता से मेहमानों की आवभगत में लगे हुए थे।
मेहमानों के चले जाने के बाद रुचि अपने कमरे में गई तो पता चला कि नवीन छत पर हैं। रुचि भी छत पर चली गई।आज नवीन को देखकर पहली बार उसका मन समर्पण की भावना से भीगा और वो नवीन से जाकर लिपट गयी। नवीन का मन प्यार से और रुचि की आंखें पश्चाताप की बरसात में भीगती चली गयी।