नहा कर आई तनुजा तौलिए से अपनी गीले बाल सुखा ही रही थी कि अचानक उसकी दृष्टि बिस्तर पर पड़े एक उपहार के पैकेट पर पड़ी! उसका हृदय बल्लियों उछल पड़ा है इसी बात की तो वह प्रतीक्षा कर रही थी! आज उसकी वैवाहिक वर्षगांठ थी, और वह बहुत उत्साहित थी… उसे आशा था कि कम से कम आज तो समीर उसके लिए अवश्य कुछ न कुछ प्यारा सा उपहार लेकर आएगा।
तनुजा के पिता एक लिपिक थे और उनकी आय भी बहुत सीमित थी। परंतु उन्होंने बहुत देखभाल कर और सोच समझकर सभ्य, संस्कारी और और सुसंस्कृत समीर का चयन किया था अपनी एकमात्र पुत्री के जीवन साथी के रूप में। समीर सुपरवाइजर के पद पर कार्यरत था। परंतु वह बहुत ही परिश्रमी और मेधावी था। हर दृष्टि से तनुजा के लिए उसके पिता को समीर बहुत ही उपयुक्त लगा। और शीघ्र ही दोनों का विवाह हो गया। वह विदा होकर पहले समीर के गांव पहुंची यहां उसके सारे सगे संबंधी थे और विवाह के पश्चात की सभी रस्में वहीं हुईं।
समीर की छुट्टियां समाप्त होते ही वह उसके साथ अपनी दुनिया बसाने चली आई आंखों में ढेरों सपने सजाए परंतु घर पहुंचते ही अपने उसके सपने का महल क्षण मात्र में धराशाई हो गया। एक कमरे का किराये का जीर्ण घर… सामने छोटा सा बरामदा, रसोई, स्नान घर और शौचालय..
समीर मुस्कुराते हुए उसे घर के अंदर ले आया।
एक कमरे के घर को समीर ने बहुत ही सुव्यवस्थित ढंग से सजा रखा था। घर में सामान भी सीमित था परंतु सब कुछ बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से रखा हुआ था। कहां तो तनुजा ने सब कुछ फिल्मी सा सोच रखा था और कहां यह घर… वह मन मसोस कर रह गई।
और फिर जीवन की गाड़ी चल पड़ी। समीर अपनी सीमित आय में तनुजा को प्रसन्न रखने का भरसक प्रयत्न करता था परंतु तनुजा का असंतोष धीरे-धीरे बढ़ता ही जा रहा था। वह बात-बात पर स्वयं की तुलना मन ही मन अपनी संपन्न सहेलियों से करने लगती और उसका हृदय विदीर्ण हो जाता। उसका यह असंतोष उसके व्यवहार में भी परिलक्षित होने लगा था। वह चिड़चिड़ी होती जा रही थी और हर बात पर समीर से झगड़ पड़ती थी, और उसकी सीमित आय को लेकर उसके ऊपर व्यंग्य बाण छोड़ती रहती थी। परंतु शांत स्वभाव का समीर सब कुछ हंसकर डाल देता था, इसी आशा के साथ कि शायद समय के साथ सब कुछ सही हो जाए….
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तनुजा ने उत्साह के साथ पैकेट खोला तो अंदर एक सुर्ख लाल रंग की सुनहरे बॉर्डर और छोटी-छोटी सुनहरी बूटियों वाली प्यारी सी सूती लाल साड़ी पड़ी थी। सूती साड़ी देखते ही तनुजा का उत्साह क्षण मात्र में कपूर की तरह उड़ गया… तभी पीछे से समीर ने आकर उसे बाहुपाश में भर लिया, “-वैवाहिक वर्षगांठ की हार्दिक शुभकामनाएं प्रिये..”
तनुजा आज का दिन और खराब नहीं करना चाहती थी इसलिए उसने मुस्कुराने का प्रयत्न करते हुए कहा, “-तुम्हें भी वैवाहिक वर्षगांठ की हार्दिक शुभकामनाएं समीर!”
समीर ने रूमानी होते हुए कहा,”- चलो अब जल्दी से यह साड़ी पहन कर दिखाओ! फिर मंदिर चलते हैं और थोड़ा बहुत घूम-घाम कर घर आएंगे..”
तनुजा घूमने जाने की बात पर थोड़ा प्रसन्न हो गई और वह झटपट साड़ी पहनकर तैयार हो गई! समीर तो अपलक उसे देखता ही रह गया। उसे स्वयं की ओर इस प्रकार देखते हुए पाकर तनुजा के गालों पर लाज लाली छा गई।
मंदिर से दर्शन करके निकले तो तनुजा को लगा कि अब समीर उसे किसी महंगे रेस्टोरेंट में ले जाएगा लंच के लिए… मगर जब शहर के सबसे सस्ते रेस्टोरेंट के सामने समीर ने बाइक रोकी तो उसकी आंखों में आंसू भर आए! अनमने ढंग से उसने लंच लिया। समीर थोड़ी देर और घूम-घाम कर रात में घर जाना चाहता था, लेकिन तनुजा का मूड बिल्कुल खराब हो गया था। उसने समीर से घर चलने को कहा।
घर आकर भी तनुजा का मूड उखड़ा उखड़ा रहा।
और रात को जब समीर ने उसे बाहों के घेरे में लिया तो उसके धीरज का बांध टूट पड़ा… “-दिन तो पूरा मेरा बर्बाद कर ही दिया.. अब कम से कम रात को तो चैन से सोने दो..”
समीर के चेहरे पर उलझन के भाव आ गए “-क्या हो गया तनुजा… किस बात पर नाराज हो तुम?”
“-तो क्या करूं खुश हो जाऊं??.. नाचूँ.. खुश रहने का कोई कारण भी तो हो..
तुमसे विवाह करके तो मेरी खुशियों को ग्रहण ही लग गया है… मेरी सहेलियों को देखो.. सब कितनी सुखी संपन्न है.. एक से बढ़कर एक उपहार उनके पति लाकर देते हैं… शानदार से शानदार स्थान पर छुट्टियां बिताने जाती हैं… और मुझे क्या मिला 800 रुपल्ली की सूती साड़ी… और उतना ही घटिया खाना…”
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उसकी बात सुनकर मन समीर मर्माहत हो गया फिर भी उसने तनुजा को समझाने का प्रयत्न करते हुए कहा,”- तुम दूसरों से अपनी तुलना क्यों करती हो तनुजा… सबका अपना अपना जीवन होता है.. और मेरी आय भी तो तुम जानती ही हो..”
“-हां जानती हूं तुम्हारी आय इसीलिए तो सिर धुन रही हूं अपना.. एक एक पैसे को मोहताज हो गई हूं..” तनुजा ने तीखे स्वर में कहा।
समीर को भी भीतर से क्रोध आ गया और वह अत्यंत आहत भी हो गया परंतु फिर भी उसने स्वयं को संयत रखने का प्रयास करते हुए कहा, “- क्या जीवन में सब कुछ पैसा ही होता है तनुजा.. प्यार कुछ भी नहीं??”
“-प्यार का क्या करूं… जीवन में खुशियां चाहिए तो पैसा जरूरी होता है… मैं समझौते करते-करते और तुम्हारे इस दड़बेनुमा एक कमरे के घर में जीवन व्यतीत करते-करते तंग आ गई हूँ… प्यार से पेट नहीं भरता समीर..” तनुजा ने फिर ढेर सारी कड़वाहट उगल डाली।
“- प्यार से पेट नहीं भरता तनुजा, यह तो सही कहा तुमने… पर पेट भरने के योग्य तो ईश्वर ने दे रखा है हमें.. संतोष सबसे बड़ा धन होता है इतना समझ लो। जो संतोष से रहता है वह अपनी खुशियां स्वयं ढूंढ लेता है..”
“- तुम अपना यह दुर्लभ ज्ञान अपने पास रखो और मुझे सोने दो….” और तनुजा करवट बदलकर सो गई।
उस दिन के बाद से समीर बहुत शांत रहने लगा। जितनी आवश्यकता होती उतनी ही बात करता और शाम को भी देर से घर आने लगा। तनुजा ने यह सब अनुभव तो किया परंतु उसके भीतर इतनी कड़वाहट थी कि वह समीर को कुछ भी नहीं कहना चाहती थी व्यंग्य बाणो के अतिरिक्त!”
अगले महीने के अंत में समीर जब रात को कार्यालय से घर पहुंचा तो वह उसके लिए एक कीमती नीले रंग की शिफॉन साड़ी लेकर आया। साड़ी देखकर तनुजा का मन मयूर नाच उठा… वह झटपट साड़ी पहन कर समीर को दिखाने आ गई! समीर ने फीकी सी मुस्कान से कहा,”- तुम खुश हो तनुजा ये बहुत अच्छा है..।”
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तनुजा पुलक कर समीर से लिपट गई। समीर ने धीरे से उसे स्वयं से अलग किया और सूनी आंखों से उसकी ओर देखकर कपड़े बदलने कमरे में चला गया।
उसे एक दृष्टि में न जाने क्या था की तनुजा को लगा जैसे उसके हाथ से बहुत कुछ छूट गया है।
अब समीर अक्सर तनुजा के लिए नए-नए मूल्यवान उपहार लाता रहता था। परंतु अब पता नहीं क्यों तनुजा को उन उपहारों से भी इतनी खुशी नहीं मिलती थी। उसका मन करता रहता था कि समीर पहले की तरह कभी उसे बाहों में भर ले.. कभी प्यार की मीठी बातें करे.. पर समीर के पास इन बातों के लिए अब समय ही नहीं था। वह रात को भी बहुत देर से आता था और शीघ्र ही खाना खाकर सो जाता था।
उस दिन भी प्रतिदिन की भांति वह खाना बनाकर समीर की प्रतीक्षा कर रही थी अभी तक समीर घर नहीं आया था। अब उसे चिंता होने लगी थी। तभी अचानक उसके फोन की घंटी बजी…उसने फोन उठाया तो उधर से समीर का कोई सहकर्मी बात कर रहा था उसने बताया के कार्यालय से निकलने के बाद समीर जब सड़क पार कर रहा था तभी अचानक उसे चक्कर सा आ गया और उसके लड़खड़ाने के कारण एक कर से उसे ठोकर भी लग गई और उसे अस्पताल में एडमिट करा दिया गया है। उसके पैरों तले जमीन खिसक गई।
वह बदहवास सी जैसे तैसे अस्पताल पहुंची। दुर्घटना में समीर का बहुत खून बह चुका था। उसके किसी सहकर्मी ने रक्तदान किया था परंतु अभी तक उसे होश नहीं आया था। अन्य सहकर्मियों से पता चला कि आजकल समीर सदैव तनाव में रहता था और उसने नित्यप्रति ओवरटाइम भी करना प्रारंभ कर दिया था। कुछ पूछने पर मात्र इतना ही कहता था कि उसे बहुत पैसे कमाने हैं।…वह बहुत अवसाद की स्थिति में था और लगातार अत्यधिक परिश्रम और काम के दबाव के कारण उसकी तबीयत भी अब सही नहीं रहती थी।
इसीलिए वह उस दिन कार्यालय से निकला तो अचानक उसे सड़क पर ही चक्कर आ गया और यह सब कुछ हो गया।..”
तनुजा की आंखों से अविरल अश्रुप्रवाह होने लगा। मात्र उसके पैसे की भूख ने उसके समीर की यह अवस्था कर दी अपने व्यंग्य बाणों से उसने उसका कलेजा इतना छलनी कर दिया कि अब उसने स्वयं को उससे दूर ही कर लिया। अब उसकी समझ में आया कि वह महंगे उपहार समीर कहां से लाता था… उसका अंतर मन क्रंदन कर उठा.. नहीं नहीं उसे कुछ नहीं चाहिए कोई महंगा उपहार गहने, कपड़े साड़ियां कुछ नहीं चाहिए… बस अपना वही हंसता मुस्कुराता हुआ पुराना समीर चाहिए, जिसके अंदर ढेर सारा प्यार ही प्यार भरा था। अपनी अति उच्च महत्वाकांक्षा के कारण उसने अपने जीवन को आज किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया।… नहीं नहीं अब वह ऐसा कदापि नहीं होने देगी।
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वह आंखें बंद करके समीर की सुरक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने लगी। पता नहीं वह कब तक यूं ही खड़ी रही… तभी अचानक नर्स ने आकर सूचना दी की समीर को होश आ गया है।
अब परिजन उससे मिलने जा सकते हैं। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा… वह दौड़ती हुई समीर के समक्ष जा पहुंची। उसे देखकर समीर के चेहरे पर फीकी सी मुस्कान आ गई, उसने दुर्बल स्वर में जैसे तैसे कहा, “- तुम क्यों परेशान हुई तनुजा, मैं थोड़ा ठीक होने पर अपने सहकर्मी अतुल के साथ घर आ जाता..”
तनुजा का कंठ अवरुद्ध हो गया, “- कैसी बातें करते हो समीर? तुम इस अवस्था में हो और मैं यहां न आती…??”
“-तुम्हें परेशानी होगी तनुजा इसलिए मैं कह रहा हूं.. मैं मात्र तुम्हारी खुशी चाहता हूं.. और एक खुशखबरी सुनो.. मैंने धीरे-धीरे कुछ राशि एकत्रित कर ली है और एक थोड़ा बड़ा घर बुक कर लिया है.. तुम्हें वह घर छोटा लगता था न..” समीर ने अधमुंदी आंखों से तनुजा की ओर देखते हुए कहा।
तनुजा ने तड़प कर समीर का हाथ पकड़ कर आंखों से लगा लिया, “-मुझे कुछ नहीं चाहिए समीर.. कुछ भी नहीं चाहिए… घर छोटा है तो क्या हुआ तुम्हारा दिल तो बड़ा है ना.. मैं उसमें रहना चाहती हूं रानी बनकर.. बस वहां मुझे थोड़ा सा स्थान दे दो…मुझे मेरा पुराना वाला समीर लौटा दो… मुझे क्षमा कर दो…”
समीर की आंखों के कोरों से आंसू बह निकले।
” बोलो ना समीर तुमने मुझे क्षमा किया या नहीं.. यदि मुझे क्षमा नहीं कर सको तो कोई बात नहीं है। मैं स्वयं तुम्हारे जीवन से चली जाऊंगी। मैं तुम्हें और इस अवस्था में नहीं देख सकती….”
समीर की आंखों से दो बूंदे और ढुलक गईं। दुर्बल हाथों से उसने तनुजा का हाथ पकड़ कर अधरों से लगा लिया। तनुजा को जैसे सारा संसार मिल गया…। उसकी मरुस्थल हो चुके जीवन पर जैसे शीतल फुहार बरस गई।
तभी पीछे से समीर के सहकर्मी अतुल का स्वर उभरा,”- अरे पागल प्रेमियों! यहां हम भी हैं.. थोड़ा तो ध्यान रखो..”
तनुजा लजा कर सकपका कर सीधी हो गई और समीर के चेहरे पर एक बार फिर से वही चिर परिचित पहले वाली शरारती मुस्कान दौड़ गई। एक बार फिर से खुशियां दस्तक दे रही थी…
निभा राजीव निर्वी
सिंदरी धनबाद झारखंड
स्वरचित और मौलिक रचना
#बड़ा_दिल