साल भर से बिस्तर पर पड़ी अम्मा जी की तबीयत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। पहले तो सब उम्मीद लगाए बैठे थे कि अम्मा जी जल्दी ठीक हो जाएंगी और घर में पहले जैसी रौनक लौट आएगी। पर जैसे-जैसे वक्त बीतता गया, उनकी हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती गई। अब सरला के लिए ये सब किसी बोझ से कम न था। हर दिन की वही देखभाल, वही झंझट…सरला बुरी तरह परेशान हो गई थी।
एक दिन अम्मा जी ने धीरे-धीरे आवाज़ लगाई, “सरला ओ सरला, बेटी इधर तो आना।” सरला अपनी सास की आवाज़ सुनते ही बड़बड़ाते हुए किचन से बाहर आई, “उफ्फ, ये बुढ़िया भी! चुपचाप बिस्तर पर पड़ी भी नहीं रह सकती, हर दो मिनट में कोई न कोई नया हुक्म दे देती है।” वह अपनी भुनभुनाहट में ही सास के पास पहुंची और बोली, “क्या आफत आ गई अम्मा जी, जो गला फाड़कर पुकार लगा रही हो?”
अम्मा जी ने थोड़ी सहमी हुई आवाज़ में गली की तरफ इशारा करते हुए कहा, “देख, वो सब्जी वाला ठेला सजाए खड़ा है। बेटी, आज मेरा बड़ा मन हो रहा है हींग-अजवायन में तड़का लगी हुई तोरई की सब्जी खाने का।”
सरला की भृकुटियां तन गईं। उसने भौं चढ़ाते हुए तानेभरे लहजे में कहा, “हे भगवान! कब्र में तो पैर लटक रहे हैं, पर जुबान के स्वाद में कोई कमी नहीं है आपकी।” उसने अपनी सास को पैसे ना होने का बहाना बनाते हुए कहा, “पैसे नहीं हैं अम्मा जी। आज रात मटर आलू की सब्जी बनाऊंगी, वही खानी पड़ेगी।” ये कहकर वह वापस किचन में लौट गई।
पर अम्मा जी का मन अब भी उस हरी-भरी तोरई पर अटका हुआ था। ठेले पर रखी हरी-भरी तोरई को देखकर उन्हें अपने पुराने दिन याद आ गए, जब वह खुद अपनी मरज़ी से सब्ज़ियाँ खरीदती थीं, पसंद-नापसंद का ख्याल रखती थीं। लेकिन अब इस बिस्तर पर पड़े-पड़े हर छोटी-छोटी चीज़ के लिए सरला पर निर्भर रहना उन्हें अंदर तक सालता था। उन्होंने हिम्मत जुटाई और ठेले वाले को अपने पास बुलाया। उन्होंने उससे पूछा, “बेटा, तोरई कितने की दी है?”
सब्जी वाले ने जवाब दिया, “अम्मा जी, चालीस रुपए किलो।” अम्मा जी ने झट से अपनी कमज़ोर उंगलियों से जेब टटोली तो उसमें बस दस रुपए का एक सिक्का पड़ा मिला। थोड़ा निराश होकर उन्होंने कहा, “दस रुपए में कितनी दे देगा?”
इस कहानी को भी पढ़ें:
सब्जी वाला थोड़ा सोचकर बोला, “अम्मा जी, दस रुपए में चार तोरई तो दे ही सकता हूँ।” अम्मा जी की बुझी आँखों में हल्की सी चमक आ गई। वह खुश होकर बोलीं, “अच्छा बेटा, दे दे दस रुपए की तोरई।” सब्जी वाले ने चार तोरई एक पन्नी में डालकर उनके हाथ में पकड़ा दी।
अम्मा जी ने उन चार तोरई की थैली को अपने तकिए के पास रख लिया। उनकी कमजोर उंगलियाँ थैली को बार-बार छू रही थीं, जैसे किसी खज़ाने को सहेज रही हों। वह सोचने लगीं कि कैसे वो तोरई की सब्ज़ी को अच्छे से बनवाकर हींग-अजवायन का तड़का लगवाएंगी, जैसे बचपन से उन्हें पसंद है। उन्हें अपना गुज़रा हुआ समय याद आने लगा।
रात को जब सरला ने खाना बनाया, तो उसने आकर अम्मा जी को आवाज़ दी, “अम्मा, खाना खा लो।” लेकिन जवाब नहीं आया। उसने दोबारा पुकारा, पर कोई हरकत नहीं हुई। सरला थोड़ा परेशान हुई और उनके पास गई तो देखा कि अम्मा जी इस दुनिया को अलविदा कह चुकी हैं। उनकी झुर्रियों में एक तरह की शांति थी, जैसे कोई बड़ी मुराद पूरी हो गई हो। शायद वह यह सोचकर ही सुकून पा चुकी थीं कि उनके पास वो चार तोरई थीं, जिन्हें पाकर उनका दिल भर गया था।
सुबह तक घर में रिश्तेदारों का जमावड़ा लग गया। सब अम्मा जी के जाने का शोक मना रहे थे। सरला अपनी सास के चले जाने पर घड़ियाली आंसू बहा रही थी। कुछ लोग उसके बुरे व्यवहार पर मन ही मन कटाक्ष कर रहे थे, तो कुछ उसे सहानुभूति दे रहे थे। लेकिन सरला के चेहरे पर दुःख कम, एक तरह का सुकून ज्यादा था कि अब उसे उस बुढ़िया की सेवा नहीं करनी पड़ेगी।
घर के एक कोने में पड़े ठेले वाले की थैली में वह चार तोरई किसी के पैरों तले कुचली पड़ी थीं।
मौलिक रचना
लेखिका कविता भड़ाना