“क्या करेगी ताई इतने अनाज का? कहाँ रखती फिरेगी ? कहीं घुन लग गया तो सब बेकार हो जाएगा। ” जगताप अपनी बुढिया ताई को समझा रहा था। “सुबह शाम चार रोटियां ही तो चाहिए तुझे, मेरे घर पर ही खा लिया करना। मैने अपने घर कह दिया है , वो तेरे लिए भी गरम गरम रोटी सब्जी बना दिया करेगी “
बुढिया ताई को भरोसा दिला कर जगताप गेहूँ की सारी बोरियां गाडी में लाद कर ले गया।
ताई ने अपना खेत जगताप को बटाई पर दे रखा था। फसल अच्छी हुई तो जगताप की नियत में खोट लग गया। वह बुढिया के जेठ का सबसे छोटा लड़का था। बहकावे में आकर निश्चिंत हो गई कि चलो अब जलावन के लिए लकड़ी बीनने से और धुंऐ में सांस लेने से मुक्ति मिल ही जायेगी।
महीने भर तक तो ठीक ठाक चला पर फिर जगताप की बहू ने अपने रंग दिखाना शुरू कर दिया, ” ताई, दिन भर बैठे बैठे थक जाती होगी, घर में झाड़ू लगा दिया करो तो हाथ पैर भी सही से काम करते रहेंगे “
‘ ठीक ही तो कह रही है बहू, और फिर अपना ही तो घर है। हाथ पैर चलते रहेंगे तो शरीर भी बीमारी से बचा रहेगा। ‘ ताई ने सोचा और झाड़ू हाथ में पकड़ ली ।
” ताई, आज तबियत कुछ ठीक नहीं है, बर्तन भी झूठे पड़े हैं। हो सके तो…. ” बहू की अलसाई सी आवाज सुनाई दी।
” कोई नहीं बिटिया, तू आराम कर ले। म.. मैं देख लूंगी। ” ताई ने बर्तन साफ करने में कोई गुरेज नहीं किया।
फिर तो रोज सा ही हो गया।
” तू रोज रोज ये भारी भारी रोटियां थोप कर रख देती है, मुझसे दो रोटी तक नहीं पचाई जाती ” जगताप ताई के सामने ही थाली अलग हटाता हुआ अपनी पत्नी की ओर आँख मार कर चिल्लाया, ” … हल्की रोटी बनाने में तेरे हाथ टूट जाते हैं, सब्जी भी सही ढंग से नहीं बनी। ठीक से नहीं कर सकती तो रसोई छोड़ क्यों नहीं देती। “
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” हाँ हाँ, अब तो जैसे मुझे कुछ आता ही नहीं है ,दिन रात खटती रहती हूं, पचास काम होते हैं घर के, जरा सी रोटी भारी क्या हो गई, मुहल्ला सिर पर उठा लिया ” जगताप की मंशा समझ कर पत्नी ने भी बहाने बनाकर कृतिम नाराजगी दिखाई। ” कोई और तो है नहीं कि हाथ बटाए। ताई की उम्र हो गई है वरना वो तो…. “
” अरे बहू! मुझ बुढिया का अब अचार तो नहीं पड़ेगा। थोड़ा बहुत तो हाथ बटा ही दिया करूंगी ।तू चिंता मत कर। “
अब झाड़ू, बर्तन और रोटी ताई के मत्थे मढ गई। बहू रोज कोई न कोई बहाना लेकर दूसरे काम में लग जाती या बुखार और सिर दर्द का बहाना लेकर आराम करती।
काम पूरा करते करते कभी अंधेरा भी हो जाता तो ताई लाठी के सहारे धीरे धीरे जगताप के घर से अपने खेत पर बनी झोंपड़ी में चली जाती।
एक रात थकान और सर्दी लग जाने से ताई को बुखार हो गया। बदन दर्द से नींद भी नहीं आई। कराहते कराहते सुबह कब हुई, पता नहीं चला। ताई बड़ी मुश्किल से उठी और जगताप के घर की ओर चल पड़ी।
” ताई, कितनी देर कर दी तुमने, पहले बता देती तो मैं खाना बना देती, आज तुम्हारे लाला को बाजार जाना था, भूखे पेट ही निकल गए। ” जगताप की पत्नी ने रूखे स्वर में ताई को बताया।
” बहू, कल थकान के कारण रात को बुखार आ गया। देर से उठ पाई। अभी भी बदन टूट रहा है। “
” हाए! ऐसा भी क्या ज्यादा काम होता है जो थक जाती हो ? ” बहू हाथ नचाते हुए बोली। ” कहीं किसी और से ना कह देना, वरना पडौसी मुझे ही कहेंगे कि बहू खराब है जो सास से काम कराती है। अब…. अब देख लो, कम से कम झाड़ू बर्तन तो निपटा ही दो। “
झाड़ू लगाते लगाते ताई को पसीना आ गया। उसे लगा कि वह चक्कर खाकर कहीं गिर न जाए।
और फिर वही हुआ। ताई गिर पड़ी।
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” हाय, देखो काम न करने के बहाने, ” बहू ने बखेड़ा खड़ा कर दिया, ” जरा सा झाड़ू क्या कर दिया, ऐसे जता रही हो जैसे रोज पहाड़ तोड़ने पड़ते हैं। अरे नहीं करना मत करो पर गांव बालों को तो मत दिखाओ कि बहू काम करवाती है । अरे चैन से दोनों वक्त खाने को मिल रही है तो खाई नहीं जा रही, अपनी झोंपड़ी में चूल्हा धोंपना पड़ता तो बदन जरा भी दर्द ना मारता। “
दोपहर को जगताप ताई को दो रोटियां देकर झोपड़ी में छोड़ आया। बस ये जगताप के घर से आखरी दो रोटियां थी वो भी ताई नहीं खा सकी। बुखार में तपते हुए दो दिन हो गए पर फिर किसी ने खबर नहीं ली।
ताई अब समझ गई कि उसे फिर से झांसे में लेकर ठगा गया है। पुराने दिन याद आ गये।
पैसे की तंगी के चलते ताई के मांबाप ने उसे निठल्ले मुरारी के पल्ले बांध दिया था। मुरारी दिन भर यार दोस्तों के साथ आवारागर्दी करता रहता था, बीडी, तंबाखू, चिलम, गांजा फूंकना उसकी रोज की आदतें थी। कभी कभी शराब पीने के बाद ताई को पीट भी देता। वह अपना मुकद्दर समझ कर सह लेती। बुरी आदतें और निकम्मेपन के कारण मुरारी पर कर्ज चढ गया। मुरारी के बड़े भाई बिहारी ने कर्ज तो चुका दिया पर मुरारी का घर और आधी जमीन लिख वाली।
मुरारी की आदतों में फिर भी कोई सुधार नहीं आया। प्रौढावसथा में ही शरीर सूख कर कंकाल जैसा हो गया। एक दिन चिलम का सुट्टा दिमाग में चढ़ गया और जीवन लीला समाप्त हो गई। बत्तीस साल की उम्र में ताई विधवा हो गई।
पीहर से कभी किसी ने सुध ली नहीं, नितांत अकेली पड गई। जो भी पचास सौ रुपये थे, मुरारी के क्रिया कर्म में खर्च हो गए। ले दे कर घर में बीस किलो गेहूँ रह गए थे
लोगों की नजरें बदलने लगीं ।ताई का कसा हुआ शरीर लोगों को अपनी निजी संपत्ति लगने लगा। ये बात अलग थी कि ससुराल में कभी भी ताई का घूंघट चेहरे से ऊपर नहीं गया। लोगों की ललचाई नजर अब ताई के बदन का एक्सरे निकालने के लिए तीर की तरह चुभने लगीं।
मुखिया दिन भर में गली के चार पांच चक्कर लगा ही देता । मौका पाकर एक बार उसने ताई का हाथ पकड ही लिया। मुखिया की मंशा भांपते ही ताई का पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया। पलट कर दूसरे हाथ से मुखिया की कनपटी पर थप्पड़ जमा दिया और तन कर खडी हो गई। बिहारी दीवार की आढ से देख रहा था। वासना के कीडे उसमें भी पनप रहे थे पर मुखिया की गति देख कर हवा हो गए।
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कहीं बखेड़ा खड़ा न हो जाए, अपने कुत्सित प्रयास में असफल होने और थप्पड के अपमान से खिसियाया मुखिया दुम दबा कर वहाँ से चुपचाप खिसक गया।
एक महीना और गुजर गया। घर में रखा गेहूँ अब खत्म होने वाला था। दूसरा कोई विकल्प न पाकर चार की जगह दो और फिर दो की जगह एक रोटी ने ले ली। कभी किसी के खेत से एक गाजर या मूली तक नहीं मांगी। शेष बचे दो बीघा खेत की फसल में अभी दो महीने बाकी थे आगे की सोचकर ताई ने खेत के एक कोने में दो चार सब्जियों के बीज डाल दिए परंतु घर का गेहूँ अब तक खत्म हो गया , आज एक भी रोटी नहीं बन सकी।
ताई ने दो गिलास पानी पिया और खेत पर निकल गई। जेठ बिहारी अपने खेत पर पहले से ही मौजूद था। उसे देख कर ताई खेत की दूसरी मेढ पर जाने लगी।
कितनी दूर जाती ,बिहारी सामने से आकर खड़ा हो गया। ” मैं सारी जिंदगी चैन से खिला सकता हूँ, खेत और मकान भी बापस कर सकता हूँ, अगर तू हां कहदे ” बिहारी बिना किसी लागलपेट के बोल पड़ा, ” तेरी जेठानी कुछ ना कहेगी, मैं उसे संभाल लूंगा और फिर घर की बात घर में ही रहेगी। “
ताई को कुछ न सूझा तो गुस्से में उलटे पांव घर की ओर दौड पड़ी। अपनी मान मर्यादा और लोक लाज का खयाल न होता तो बिहारी का भी वही हाल कर दिया होता जो मुखिया का हुआ था।
विदाई के समय ताई की मां ने कहा था कि बेटा दोनों कुल की लाज अब तेरे हाथ में है। अगर ये खयाल ताई को न आता तो अबतक वह घर झोड कर कहीं चली गई होती।
बिहारी भी पीछे पीछे घर चला आया। उसकी वासना भरी नजरें ताई को एक पल भी नहीं छोड़ रहीं।
रात भर ताई भूखे पेट करवट बदलती रही। मर्यादा और भूख में बगावत झिड गई। अगर अपनी उंगली मुंह में डाल कर प्राण निकाले जा सकते तो ताई कब की मुक्ति पा गई होती।
अंततः अगले दिन शाम तक भूख और मर्यादा की जंग में मर्यादा ने दम तोड़ दिया।
अब बिहारी मूछों पर ताव देकर घर से बाहर निकलता ।
बिहारी की वासना पूर्ति होने के बावजूद बढती ही गई और एक दिन जेठानी को भनक लग गयी। घर में कोहराम मचा तो गली मुहल्ला में कानाफूसी होने लगी। बात मुखिया के कानों तक कैसे न जाती, मजे में चटखारे लेने वाले शरीफ हरेक गांव में होते हैं।
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मुखिया को बदला लेने का अवसर मिल गया। पंचायत बुलाई गई। बिहारी को पांच सौ रुपये का अर्थ दंड और ताई को गांव से बाहर करने का फैसला सुना दिया गया। ताई की परिस्थिति पर किसी ने चरचा तक करने की हिम्मत नहीं की।
ताई अपनी टूटी चारपाई और अन्य चीजों के साथ अपने खेत के कोने पर आ गई। खुले आसमान के नीचे रूखी सूखी रोटी पानी के साथ गटक लेती और मिटटी से झोपड़ी तैयार करने लग जाती। दस पंद्रह दिन की अथक मेहनत के बाद झोंपड़ी बन गई। फसल भी तैयार हो चली थी। अब ताई ने गांव की ओर पलट कर भी नहीं देखा। हर बार दूसरे गांव के मजदूरों को बटाई पर खेत दे देती। जो भी पैदा होता, आधा मिल जाता जो साल भर के लिए काफी होता।
सालों ऐसे ही बीत गए। ताई अब बासठ साल की हो चुकी थी। अब कभी कभी जगताप आकर खैर खबर लेने आने लगा। ताई न समझ सकी कि जगताप की नजरें उसके बचे हुए दो बीघा खेत पर टिकी हैं। बार बार मिननतें करने के बाद ताई पिघल गई और अगले साल के लिए उसे खेत बटाई पर दे दिया।
कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनकर ताई की तंद्रा भंग हो गई और वह वर्तमान में आ गई। जगताप की दी गई दो रोटियों के लिए तीन चार कुत्ते आपस में लड रहे थे। कांपते हाथों से ताई ने लाठी उठानी चाही पर उठा ना सकी। कुत्ते लडते भिडते रोटी लेकर भाग गए।
“ताई …ताई, ” बाहर से जगताप की आवाज़ सुनाई दी। ” बुखार उतर गया कि नही? भूख लगी हो तो रोटी लाऊं ” उसने झोंपड़ी में झांकते हुए पूछा।
” मेरी भूख तो मर गई लल्ला, ” ताई ने कराहते हुए उठने की कोशिश की पर उठ न सकी, ” तू अपनी भूख की बात कर। ये पड़ा है खेत, उठा लेजा। शायद तेरी भूख मिट जाएगी ” ताई ने अपने खेत की ओर इशारा कर दिया और एक गहरी लंबी सांस लेने के साथ ही उसकी गर्दन एक ओर लुडक गई।
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मौलिक रचना – हरी दत्त शर्मा ( फिरोजाबाद)