दिमाग की खिड़कियाँ – सुधा भार्गव : Moral Stories in Hindi

“रानी ओ रानी …अरे  कहाँ ग़ायब हो गई।” 

गहरी सांस  लेने के बाद फिर कर्कश आवाज —” 

“अरी कान में तेल डाल कर बैठी है क्या !लगे निगोड़ी को  सुनाई देना ही।बंद हो गया है।” 

“माँ  चिल्लाओ मत। सोमवार को मेरी परीक्षा है मुझे बहुत काम  है।”  

“परीक्षा गई तेरी भाड़ में ।अपनी किताब समेट!भर  दे अलमारी में। मेरे पास रसोई में आकर सब्जियां काट। “

“अभी से क्या मुसीबत आन पड़ी। खाना खाने में तो 6 घंटे हैं।” 

“मुसीबत नहीं महा मुसीबत। तेरे भाई की शादी तो 10 दिन के बाद है लेकिन मेहमानों ने आज से ही आने की ठान  ली है।” 

“मां मजाक कर रही हो! आज के समय में किसको इतना समय है कि शादी के लिए 12- 12 दिन निकाले।” 

“अरे पिछले महीने तेरा मामा रिटायर हो गया है ना। वही आ रहा है तेरी मामी के साथ। वह भी एक है। अपने घर चौके चूल्हे से बाजार हाट तक दौड़ लगावे है  । पर यहाँ तो फली भी न फोड़ेगी।”  

“मैंने कहा था— इस महीने शादी मत करो।  मेरी परीक्षाएं हैं ।लेकिन तुमने एक नहीं सुनी। लड़की हूँ न दिमाग कहाँ!”स्वर में झल्लाहट थी। 

“परीक्षा…. परीक्षा! मेरे तो कान बहरे हो गए। अब वह आ रहा है तो क्या खातिरदारी नहीं होगी।आख़िर वह मेरा इकलौता भाई है।  मैं अकेले कितना काम करूंगी। “

“उसका  मामा तुम्हारा भाई भी तो लगता है। लाड़ लड़ाओ अपने भाई के!उसको क्यों लपेट रही हो।  वह  अपने भाई की शादी में काम कर लेगी।” 

“बड़ी-बड़ी बात है ना करो। वह तो अभी से कह रही है कि इस महीने क्यों शादी रखी ,अगले महीने रखती । कामचोर हो गई है। मैं तो अपनी मां की एक आवाज पर दौड़ी- दौड़ी जाती थी ।यह तो मेरी सुनती ही नहीं है। यह सब तुम्हारे लाड -प्यार का नतीजा है।” 

“तुममें  और  मेरी बेटी में अंतर है।” 

“क्या बोले!मैं क्या किसी की बेटी नहीं हूं ! “

“मैंने कब कहा, तुम बेटी नहीं हो! लेकिन तुममे उसमें अंतर है। 

“ए लो!बेटी -बेटी तो सब एक सी!”

“न न !एकदम नहीं ! तुम  मेरी बेटी की तरह कहाँ पढ़ती- लिखती थीं। इसी लिए  तो  सारा दिन चूल्हे- चौके में चकरघिननी बनी रहती थीं। मेरी बेटी के पास इतना  समय  नहीं है।” 

“-तुम तो बेटी का बड़ा पक्ष ले रहे हो। अरे मेरी बदौलत ही चटकारे ले ले के खाना खाते रहते हो!शादी के बाद यह जहां जाएगी थू -थू करवाएगी । बस सब समय कुर्सी तोड़ती रहेगी।” 

“कुर्सी तो जरूर तोड़ेगी जब शान से अपने पैरों पर खड़ी होगी। बेटा भी तो नौकरी करके कुर्सी तोड़ेगा। 

असल में तुमने बेटा -बेटी को कभी बराबर ही नहीं समझा।  बेटे से हमेशा कहा – पढ़ -पढ़  या खेल-खेल। कभी घर के काम के लिए तो  कहा ही नहीं  और बेटी से दुनिया भर की आशा करती हो ।पढ़े  भी, घर का काम भी करे ।    भ्रातृत्व प्रेम के बहाने  उसकी सेवा भी करे। बेटे के दिल में बहन प्रेम क्यों नहीं उगाया। और हां कान  खोलकर सुन लो ।तुमने बेटी की बात ना मान करके  बहुत बड़ी गलती की। अब उसका   नतीजा भी भोगना ही पड़ेगा । वह अपनी परीक्षा की तैयारी करेगी।” 

“अरे बाबा माफ़  कर दो।शादी के कार्ड तो  छप चुके हैं।मिलजुलकर काम   तो करना ही होगा। “नम्र पड़ते माँ बोली। 

“शादी का मुहूर्त  बदल नहीं सकता ,परीक्षा की तारीख़ें बदल नहीं सकतीं । तब …तब तुमको बदलना होगा। 

अपने बेटे से घर गृहस्थ के काम करवाओ ।” 

“उसे तो कुछ आता ही नहीं ।” 

“अब इसमें गलती तो तुम्हारी ही है। उसे सुधारोगी भी तुम्हीं।” 

“क्या बात कर रहे हो! कुछ दिन के बाद हल्दी की रस्म हो जाएगी वह घर से कैसे निकलेगा!”

“अगर उसे शादी करनी है तो निकलना ही पड़ेगा। लो आ गया तुम्हारा लाडला अपने दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ाकर।”

“क्या हुआ पापा!”

“बेटा, तुम्हारी बहन के तो परीक्षा के दिन हैं।  वह ज्यादा समय नहीं दे पाएगी। आज शाम को बाजार चले जाओ।   ड्राईवॉश के कपड़े ले आना। थोड़ा घर के सौदा -सट्टा लाने का भी ध्यान रखना। मेहमानों का आना शुरू होने वाला  है “

“पापा क्या बात कर रहे हो!मैं तो कभी बाजार सब्जी लेने के लिए गया ही नहीं।  आप या रानी ही तो  जाते हो।”  

ठीक कह रहे हो बच्चे ,पर मुझे बिजली वालों से,हलवाई से,टेंट वालों से न जाने कितनों से बातें करनी हैं।घर के कामों के लिए समय कहाँ!”  

“तब रानी को क्या हुआ!” 

“तुम्हारी बहन के तो परीक्षा के दिन हैं।  वह ज्यादा समय नहीं दे पाएगी।”

 

“बेटा उसकी मत पूछ! वह तो महारानी की तरह जमी  बैठी है और तेरे पापा… वे तो कलेक्टर की तरह मुझे आदेश दिए जा रहे हैं।”

“मेरा मज़ाक़ न उड़ाओ।मैं तो कलेक्टर नहीं बना पर देखना मेरी बेटी एक दिन कलेक्टर होकर दिखाएंगी।कक्षा दस से ही उसने छात्रवृति लेकर अपने बलबूते पर खड़ी हुई। और हमारा प्यारा बेटा ..वह  तो हमेशा  ट्यूशन की बैसाखियों  के सहारे चला। तब भी तुम उसके पक्ष में तलवार लिए खड़ी  रहती हो। 

उफ मैं भी किससे बात कर रहा हूँ। तुम नहीं समझोगी। हाँ होने वाली  कलेक्टरनी   को ज्यादा डिस्टर्ब मत करना। मैं उसके कमरे के सामने एक तख्ती लगा देता हूं ‘डोंट डिस्टर्ब।’ 

वह हंसते हुए कमरे से निकल गए। लेकिन मां बेटे तो एक ही जगह जमकर रह गए। मानो उन्हें    सांप सूंघ  गया हो।

सुधा भार्गव.

बैंगलोर

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