धूसर चंद्रमा – राजेन्द्र पुरोहित

पूजा की थाली सजाती उर्मि के सामने बैठी भागवंती मन ही मन बुदबुदा रही थी, “सुबह से भूखी प्यासी सोलह श्रृंगार कर के किसकी प्रतीक्षा कर रही है पगली। वह नीच तो पड़ा होगा उसी लिली की बाहों में। हे माँ भवानी, तूने मुझे इतनी गुणवंती बहू दी तो बेटा इतना अधम क्यों दिया?” 

तभी लड़खड़ाते कदमों की आवाज़ और शराब के भभके ने सास-बहू को चौकन्ना कर दिया। 

“ओह डार्लिंग, आज तो करवा-चौथ है न। मैं तो बिल्कुल ही भूल गया। लो अब आ गये तुम्हारे परमेश्वर। कर लो पूजा।” नशे भरे स्वर में कुंदन बोला। 

छलछलाती आँखों से उर्मि ने झट से चंद्रमा को पूजा। छलनी में से चांद और पति को निरखा और जल से भरा पात्र पति की ओर बढ़ा दिया, “आप एक घूँट भर लीजिये, फिर मेरा व्रत पारण करवाइये।” 

अचानक कुंदन का स्वर तीखा हो गया, गाली देते हुए चिल्लाया, “इतना ढोंग-ढपाला करती है लेकिन तेरी भावना कहाँ है कि मेरी उम्र बढ़े? देख लोटे के जल में क्या काला-काला तैर रहा है। मुझे ज़हर देगी क्या?” 

उर्मि आँखें बंद किये काँपती हुई बोली, “जी, वो कजरा छलक गया होगा आँखों से।” 

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कुंदन का हाथ थप्पड़ मारने को जैसे ही उठा, भागवंती बिजली की तेजी से उठी, कुंदन के हाथ से लोटा छीना और उसकी कालिख निकाल कर अपने मुँह पर मल ली, “करवा चौथ का व्रत थप्पड़ से पारण करवायेगा क्या दुष्ट? लोटे की कालिख दिखी, लेकिन अपनी आत्मा की कालिख नहीं दिखी? तो ले, अब वह कालिख देख जो तूने अपनी माँ के मुँह पर मल दी है।” 

कुंदन अवाक-सा माँ का बदरंग चेहरा देखता रह गया। 

फिर बहू को देख कर चिल्लाई, “कान खोल कर सुन ले बहू। आज से न तो ऐसे पति के लिये तू व्रत रखेगी और अगर ये हाथ उठाये तो तू और मैं मिलकर इस पशु का प्रतिकार करेंगी” 

 

(राजेन्द्र पुरोहित) 

 

प्रमाणित करता हूँ कि यह रचना मौलिक व अप्रकाशित है।

 

राजेन्द्र पुरोहित

 

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