ढलती सांझ में तो आराम चाहिए। – अर्चना खंडेलवाल : Moral Stories in Hindi

सुधा आज क्या चाय नहीं मिलेगी? किशोर जी ने बिस्तर से आवाज लगाई, कोई आवाज नहीं आने पर वो खुद ही पलंग से उतरकर रसोई की ओर चले गये, रसोई में चिमनी चल रही थी और उनकी आवाज से बेपरवाह होकर सुधा जी तवे पर परांठे सेंक रही थी।

उन्होंने फिर दोहराया, आज चाय नहीं मिलेगी? अभी बनाती हूं, वो तवे से परांठा उतारकर अपने पोते का टिफिन पैक करते हुए बोली, फिर जल्दी ही चाय चढ़ा दी और अपने पति को एक गिलास गर्म पानी दे दिया।

थोड़ी देर बाद वो दो कप चाय के कमरे में रखकर जाने लगी, तो किशोर जी ने टोका, सुधा तसल्ली से बैठकर चाय तो पी लो, तुम तो ऐसे रसोई में लगी रहती हो, जैसे तीनों बच्चे छोटे थे, तब स्कूल जाया करते थे, वापस से तुम पर वो ही जिम्मेदारी आ गई है, बहू तो उठने का नाम नहीं ले रही है और तुम बैठ नहीं रही हो, ज्यादा खड़े रहकर काम करोगी तो पैरों में दर्द हो जायेगा, फिर खुद से ही मालिश करोगी, मुझे तो हाथ भी नहीं लगाने दोगी, अब तो आराम करने के दिन है, और तुम काम करती रहती हो।

अरे!! आती हूं, नितिन को चाय दे आती हूं, उसे भी तो आपकी तरह बिस्तर पर चाय पीने की आदत है, और बहू भी उठती होगी, फिर आकर बैठती हूं। 

चाय देकर सुधा जी दो घुंट चाय के हलक में उतारती है तभी देवम की आवाज आती है, ‘दादी आपने मेरी पानी की बोतल नहीं भरी? मै स्कूल में प्यासा रहूंगा क्या? तभी नितिन भी बोलता है, क्या मम्मी जब टिफिन पैक करके देती हो, तभी बोतल भी भरकर दे दिया करो, रोज-रोज भुल जाती हो? 

मोबाइल में नजरें गड़ाते हुए बेरूखी से नितिन बोले जा रहा था। सुधा जी ने एक ठंडी आह भरी, और अपने कमरे में आकर रोने लग गई, बहू तो बहू बेटा भी सुनाने लगा है, सुबह उठने से लेकर रात तक लगी रहती हूं, फिर भी दोनों सुनाने का एक मौका भी नहीं छोड़ते हैं, मेरी क्या कोई इज्जत नहीं है, मै मां होकर अपने बेटे के मुंह से ये सब सुनती हूं, बहुत बुरा लगता है।

किशोर जी ने उन्हें चुप कराया और बोले, ‘मै तो कह ही रहा था, यहां से चलते हैं, पर तुम्हें ही बेटे और पोते का मोह है, तुम अभी तक मोह में जकड़ीं हुई हो।’

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लेकिन हम जायेंगे कहां? वो हैरानी से बोली।

ईश्वर ने हमारे लिए भी कुछ सोच रखा होगा, बहुत जल्दी पता लग जायेगा, तुम आंसू पौंछो और ये पानी पीयों, वो पानी पी ही रही थी कि तभी घर में शिल्पी की आवाज गूंजती है, मम्मी जी अभी तक नाश्ता नहीं बनाया? आज मुझे फिर बैंक के लिए देरी हो जायेगी, आपसे कितनी बार कहा है

कि थोड़ा फुर्ती से काम किया करो, घर में काम ही कितना है, यहां गांव के जितना काम भी नहीं है, गांव में तो आप सिलबट्टे पर मसाला पीसती थी, कपड़े हाथ से धोती थी, झाड़ू-पोछा करती थी, मेरे यहां तो मेड आती है बस आपको खाना और नाश्ता ही तो बनाना होता है, वो भी आप समय पर नहीं बना पाती हो, फिर आपका यहां रहने का हमें क्या फायदा हो रहा है,?

शिल्पी लगातार बोले जा रही थी, और सुधा जी चुपचाप सुने जा रही थी क्योंकि उनकी मजबूरी थी, उन्हें अपनी बड़ी बहू शिल्पी के साथ ही रहना था, वो जो चाहें उन्हें सुना सकती है क्योंकि शिल्पी और नितिन ही इस घर को चला रहे थे, आजकल जो कमाता है वो ही घर का बड़ा कहलाता है। 

किशोर जी और सुधा जी अपने गांव में सुख की जिंदगी जी रहे थे, किशोर जी एक स्कूल में अध्यापक थे और उसी से घर चल रहा था, दो बच्चों के पिता अपने बच्चों को भी संस्कार दे रहे थे।

छोटा बेटा पढ़-लिखकर अपने दम पर विदेश में नौकरी करने क्या गया, वहीं का होकर रह गया, उसे ना अपने माता-पिता सज मतलब था और ना ही गांव की जमीन जायदाद से, वो तो विदेश से भारत आना ही नहीं चाहता था और शादी भी वहीं की लड़की से करके कभी वापस आया भी नहीं।

सबसे बड़ा बेटा नितिन एक बैंक में काम करता था, उसकी सैलेरी ठीक ठाक थी, घर का खर्चा चल जाता था, उसने अपने साथ ही काम करने वाली शिल्पी से शादी कर ली, अब दोनों को अपना घर लेना था, शादी के कुछ साल बाद बेटे का जन्म हुआ, सुधा जी अपना पोता आने से बहुत खुश थी,और गांव से शहर आया-जाया करती थी, उनका अपने बेटे और पोते के साथ रहने का बड़ा मन था।

नितिन को शिल्पी ने सलाह दी कि मम्मी जी पापाजी गांव का घर और जायदाद बेच दें तो शहर में फ्लैट ले लेंगे, फिर हम सब साथ में मिलकर रह लेंगे, वैसे भी छोटे भैया तो कह गये है कि उन्हें जायदाद में से कुछ नहीं चाहिए, नितिन को ये सलाह पसंद आ गई।

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उसने दोनों को कहा तो सुधा जी तो बहुत खुश हो गई, छोटे बेटे बहू के साथ तो कभी रह ना सकी तो क्यों ना बड़े बेटे बहू के ही साथ रह ले, किशोर जी नहीं चाहते थे कि सुधा जी अपना ठिकाना छोड़कर बेटे बहू के यहां आश्रित हो जायें, पर उनको अपनी पत्नी की जिद के आगे झुकना पड़ा, उन्होंने अपना घर और जमीन बेचकर पैसे नितिन को दे दियें, नितिन ने अपने नाम से घर ले लिया और अपने मम्मी-पापा को शहर ले आया।

शुरू के कुछ सप्ताह तो बहुत अच्छा रहा पर धीरे-धीरे बड़ी बहू शिल्पी अपने रंग दिखाने लगी, वो देर तक सोकर उठती थी और अपने बच्चे का भी ध्यान नहीं रखती थी, एक दिन उसने खाना बनाने वाली की भी छुट्टी कर दी और खाने नाश्ते की जिम्मेदारी अपनी सास पर छोड़ दी।

सुधा जी खाना बनाने लगी और घर संभालने लगी, और अपने पोते को भी वो बहुत प्यार करती थी। एक दिन

उन्होंने अपनी बहू को बताया कि कल तेरे ससुर जी का जन्मदिन है, मीठे में क्या बनाऊं?

आप भी मम्मी जी घी और राशन सामान की बर्बादी करती रहती है, आपको पता नहीं है, कितनी मंहगाई हो गई है, बेकार ही क्यों मीठा बनाना ? अब पापाजी कोई बच्चे तो है नहीं जो उनका जन्मदिन मनाया जाएं, आपको तो बैठे बिठाए मुफ्त में सब खाना मिल जाता है, बस रसोईघर में कुछ भी बना लो, उम्र के हिसाब से थोड़ा जीभ पर नियंत्रण भी रखना होता है।

शिल्पी के मुंह से ये बात सुनकर सुधा जी सन्न रह गई, जिस बहू को अपना समझकर सब सौंप दिया, वो ही बहू उन्हें आज आंखें दिखा रही है। उन्हें कुछ समझ ना आया तो कमरे में आकर आंसू बहाने लगी, किशोर जी

को सब बातें बताई तो वो भी सोच में पड गये, अब उन्हें भी महसूस हो रहा था कि पत्नी के कहने पर घर और जमीन बेचकर सारा पैसा बेटे को सौंपकर उन्होंने बहुत बड़ी गलती की। लेकिन अब तो वो अपना सबकुछ खो चुके थे, अब तो उनके पास कोई चारा नहीं था।

एक दिन गांव से कोई रिश्तेदार शादी का बुलावा देने आया तो शिल्पी ने साफ मना कर दिया, मै तो रोज बैंक काम करने जाती हूं, अगर मम्मी जी शादी में एक हफ्ते के लिए चली जायेगी तो यहां का काम कौन संभालेगा?

उस दिन सुधा जी को बहुत गुस्सा आया, बहू तुम्हें ये सब उनके मुंह पर बोलने की क्या जरूरत थी ? हम कोई दूसरा बहाना भी बना सकते थे।

हां, लेकिन मै उनके इरादे भांप गई थी, वो हमारे यहां आकर डेरा जमाना चाहते थे, शादी की सारी शॉपिंग यही से करते और मेरे घर पर ही बैठे रहते? आखिर मै मंहगाई में उनका खर्च क्यों उठाऊं?

तुम घर की बड़ी बहू हूं तुम्हें रिश्तेदारों के साथ में निभाना चाहिए।

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बड़ी बहू हूं तो क्या करूं? आपकी दिन रात सेवा करती रहूं, अब आपकी छोटी बहू तो आपको पूछती नहीं है और छोटा बेटा भी खर्चे के एक रूपया भी नहीं भेजता है, ये तो मै हूं जो आपके साथ निभा रही हूं, कोई दूसरी होती तो अब तक घर से निकाल देती।

ये सुनकर सुधा जी बोली, बहू ये मत भुलो कि ये घर मेरे पति के पैसों से तुमने खरीदा है।

हां खरीदा है, कोई सबूत है आपके पास ? अब तो ये घर मेरे पति के नाम पर है, तो मेरा ही है, आपका इस पर कोई हक नहीं है।

अब सुधा जी के पास कोई जवाब नहीं था, उन्हें भी महसूस हो रहा था कि उन्होंने अपने पति को घर जमीन बेचकर बेटे बहू को पैसा देने की बहुत बड़ी गलती कर दी, बुढ़ापे में अपना पैसा अपने हाथ में ही रहना चाहिए, जब शरीर ढलता है तो पैसा ही पहले काम में आता है।

बेटा नितिन भी बहू की बोली बोलता था, सुधा जी ओर किशोर जी छोटे-छोटे खर्चों के लिए तरस गये थे, अब वो पूरी तरह से बेटे- बहू पर निर्भर हो गये थे, उन्हें इस बात की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी कि उम्र के इस पड़ाव में वो पूरी तरह से बेटे -बहू पर ही निर्भर हो जायेंगे।

सुधा सब कुछ छोड़कर गांव वापस चलते हैं, यहां तो हम जीना ही भुल गये है , तुम घर का काम करती हो और मै बाजार का।

उस दिन जब बहू ने सब्जी लाने को पैसे दिए थे, एक -,एक रूपये का हिसाब ऐसे मांग रही थी जैसे मै सब्जी के पैसे में से रूपये रख लूंगा, ये सारी बातें दिल दुखाती है, देवम को आइसक्रीम दिलाकर लाता हूं तो मेरा भी मन मचलता है पर बहू हमें खाने को ही नहीं देती है, नौकर की तरह काम करते हैं और बेटा भी कुछ नहीं बोलता है।

उस दिन बहू ने ढेर सारे कपड़े प्रेस करने को दे दिये, मेरी तो कमर ही दुखने लगी, बुढ़ापे में वो काम करने पड़ रहे हैं जो जवानी में कभी किये ही नहीं।

मन तो मेरा भी दुखता है पर हम गांव जाकर क्या खायेंगे? हमारे पास तो कुछ बचा भी नहीं है, आप भी गांव में सरकारी टीचर तो नहीं थे तो आपको भी पेंशन नहीं मिलती है, घर भी नहीं है और घर चलाने को पैसा भी नहीं है, सोचा था इस उम्र में बच्चों का सहारा रहेगा तो जीवन सूकून से बीत जायेगा, लेकिन हमें तो जीवन की ढलती सांझ में कितना कुछ सहन करना पड़ रहा है।

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 सुधा जी और किशोर जी बहुत परेशान थे, पर उनकी परेशानी से शिल्पी बेखबर थी, उसे तो यही विश्वास था कि उसके सास-ससुर अब उनके खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि पैसे में बड़ी ताकत होती है, पैसा हो तो कोई भी निर्णय लेने में आसानी होती है वरना युवा हो या बुजुर्ग दोनों ही मजबूर हो जाते हैं।

अगली सुबह देर तक जब नितिन और शिल्पी को चाय नहीं मिली तो शिल्पी दनदनाती हुई अपनी सास के कमरे में गई, किशोर जी और सुधा जी अपना सामान पैक करने में व्यस्त थे।

ये क्या कर रहे हो? सुबह से चाय नहीं बनी है और देवम का भी टिफिन पैक नहीं हुआ है, उसकी स्कूल बस आने वाली है, आपको कुछ फ्रिक भी है या नहीं?

सुधा जी मुस्कराते हुए बोली, बहू तुम्हारा घर अब तुम ही जानो, तुम्हें अपने बेटे का टिफिन पैक करना है तो कर लों, ये घर तुम्हारी जिम्मेदारी है।

अब इतनी महंगाई में तुम्हारे घर खाना खाते हैं तो भारी लगता होगा, इसलिए हम दोनों इस घर से जा रहे हैं।

घर छोड़कर जा रहे हैं….कमरे से आती हुई आवाज नितिन के कानों में गूंजती है, वो गुस्से से आग बबूला हो जाता है, आखिर कहां जा रहे हो? इस घर में आपको जगह मिली हुई है, और कोई नहीं रखेगा, वो आपका छोटा बेटा तो आपकी कभी खबर भी नहीं लेता है, ये तो गनीमत है कि मै आप लोगो को घर में रख रहा हूं और खाना दे रहा हूं।

हां, बेटा तू हम पर बहुत अहसान कर रहा है, खाना और सर पर छत तो हमें कहीं भी मिल जायेगी, माता-पिता को इन सबके अलावा प्यार और सम्मान भी चाहिए, वो तो हमें इस घर में कभी मिला ही नहीं, इसलिए हम जा रहे हैं, और तू क्या हमें रख रहा है, तू तो खुद हमारे पैसों से खरीदी हुई छत के नीचे रह रहा है और हमें ही आंख दिखा रहा है, छोटे बेटे से कोई उम्मीद नहीं थी और ना ही तुझसे रखेंगे, अब हम हमारा देख लेंगे और तुम तुम्हारा देख लो।

तभी सुधा जी बोलती है, बड़ी बहू काश! तुम हमारे साथ ऐसा बुरा व्यवहार नहीं करती तो ये घर बना रहता, हमें पोते का सुख मिलता और देवम को दादा-दादी का प्यार मिलता, पर ये अब संभव नहीं है, तुम अपना परिवार संभालो, वैसे भी सब काम के लिए मेड आती है, खाने और नाशते बनाने का छोटा सा काम है वो तुम कर लेना, देवम को किसी पालनाघर में छोड़ देना या तुम इसके लिए मेड रख लेना, हमारे जाने से तुम्हारा खर्चा बच जायेगा, और ये कमरा भी किराये पर उठा देना और सुखी रहना।

इतना कहकर दोनों कमरे से अपना सामान लेकर बाहर निकल गये, शिल्पी और नितिन के पास कहने के लिए कोई शब्द नहीं थे।

सुनो जी घर तो छोड़ दिया अब हम कहां जा रहे हैं? सुधा जी ने आतुरता से पूछा।

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अपने गांव जा रहे हैं, गांव में इन दो सालों में दो नये स्कूल खुल गये है, मैंने बात की थी, मै वहां बच्चों को पढ़ाऊंगा और रहने को एक कमरा भी दे रहे हैं, फिर गांव में अपने पडौसी और रिश्तेदार भी तो है, ईश्वर की कृपा से सब हो जायेगा।

लेकिन इतने से पैसों में घर कैसे चलेगा? सुधा जी ने आशंका जताई। 

मेरा बचपन का मित्र केशव याद है तुम्हें, उसका बेटा शहर में बड़ा सा वकील हैं, उसी ने सलाह दी है कि मै अपने दोनों बेटों से मासिक खर्च पाने का अधिकारी हूं, इसीलिए अब वहां जाकर उससे मिलूंगा और नोटिस भिजवा दूंगा, फिर हर महीने खर्चा आने लगेगा, तब तो घर चल जायेगा?

लेकिन अपने ही बच्चों को नोटिस भिजवाओगे? समाज क्या कहेगा ? सुधा जी ने आशंका जताई।

सुधा कभी-कभी बच्चों के बुरे बर्ताव के कारण माता-पिता को भी कुछ कठोर निर्णय लेने होते हैं, सख्त कदम उठाने होते हैं, बच्चे अपना फर्ज भुल जाएं तो उन्हें याद दिलाना होता है।

आज शिल्पी और नितिन ये बात समझते कि साथ रहने से सबका भला है, तो ऐसा बुरा व्यवहार नहीं करते।

किशोर जी गांव की ओर जाने वाली बस में बैठे निश्चिन्त थे और सुधा जी उनके कंधों पर सिर टिकाएं थी, जीवन की ढलती सांझ मे वो फिर से नया संसार बसाने जा रहे थे।

पाठकों, बुजुर्गों को साथ रखकर उन्हें सम्मान भी दिया जाना चाहिए, रोटी और सिर पर छत तो वृद्धाश्रम में भी मिल जायेगी, इस उम्र में अपनों का साथ और लगाव भी चाहिए। जीवन की ढलती सांझ मे परिवार का साथ और प्यार मिले तो बुजुर्ग भी सकारात्मक सोच के साथ खुशहाल जीवन जी सकते हैं।

धन्यवाद

लेखिका

अर्चना खंडेलवाल

मौलिक रचना 

#ढलती सांझ

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