दहलीज – संगीता त्रिपाठी : Moral Stories in Hindi

यहीं वो दहलीज हैं, जो बरसों पहले मैंने छोड़ दी थी ..।बरसों की मेहनत ने उसे आज इस दहलीज को पार करने का हक़ दिला दिया.।

अनूप के साथ खड़ी मै, और सामने आरती का थाल लिए माँ जी..। सिर्फ सपना ही देखा था.. यथार्थ तो आज देख़ रही हूँ.।

मै यानि नेहा… एक साधारण सी लड़की, जो आँखों में अनगिनत सपनें ले ससुराल की दहलीज लांघी थी.। पर अबोध सपनें कहाँ यथार्थ जानते हैं..। यथार्थ की पथरीली जमीं पर सपनें टूट कर किरचों में बदल गई..। जिसके साथ अग्नि के सात फेरे ले आई थी,…उसीने… सबसे पहले साथ छोड़ा.।

मेरी साधारण सूरत ने अनूप को ठगने का अहसास दिला दिया..। मै ससुर जी के दोस्त की बेटी थी…। उनकी पसंद से इस घर में आई थी… मुझे कहाँ पता,कि अनूप को मै नहीं पसंद थी…।पिता के दबाव में शादी तो कर ली उन्होंने,.. पर दिल से हमसफ़र नहीं बना पाये..।

उनकी आँखों में तो साथ काम करने वाली अंकिता का रूप बसा था..।बस पति -पत्नी का धर्म निभ जाता था..। मैंने यहीं अपनी नियति मान ली… और एक बेटे की माँ बन गई..। पर अनूप खुश ना थे…।

धीरे धीरे मैंने पूरा घर सम्भाल लिया..। सोचा.. पति के दिल में भी जगह बना लुंगी… मुझे कहाँ पता, कि अनूप के दिल में उजले रँग का सीमेंट लगा हुआ, जहाँ मेरी सावंली रंगत, और गुण सुराख़ नहीं कर पा रहे थे.। पांच साल मैंने इंतजार में बिता दिया..। पर कब तक.. मै धैर्य रखती…। आखिर मैंने फैसला ले लिया मै अनूप को तलाक दे दूंगी .. क्योंकि उनकी खुशी इसमें हैं..। वैसे भी दबाव में बनाए गये रिश्तों के बंधन में मजबूती नहीं होती..।

शादी के दो साल बाद ससुर जी नहीं रहे… और अनूप को आजादी मिल गई थी… अंकिता अब बेझिझक घर आने लगी…, मेरा बैडरूम, अंकिता का बैडरूम बन गया…..। सासुमां को भी मेरी कम रंगत नहीं भाती थी… वे भी बेटे के पक्ष में थी..। गिला तो मुझे ससुर जी से था…। सब जानते हुए भी क्यों मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी..।

जब कभी मै हौसला हारती थी…।ससुरजी ही मेरे नकरात्मकता को दूर करते थे.. “एक दिन सब ठीक हो जाएगा “कह कर..। पर सोचा हुआ कहाँ पूरा होता….।

जब भी मै अंकिता के आने का विरोध करती.., उसके सामने ही हिंसा की शिकार होती थी.।, दो औरतें मुझे हिंसा की शिकार होते देखती पर कुछ ना बोलती.। सही कहा किसी ने औरत ही औरत की दुश्मन होती .।बेटे को चिपकाये मै आँसू बहाती रहती..।

एक मैंने विद्रोह कर दिया .. अपने कपड़े समेट मै अटैची ले निकलने वाली थी…. सासुमां ने कहा.. एक बार इस दहलीज को पार कर गई, तो दुबारा ये दरवाजा खुला नहीं मिलेगा..। एक क्षण मैंने सोचा,.. पर सिर झटक कर मै बाहर निकल आई..। आजादी की एक गहरी सांस ली…, मुझे अपने वजूद की पहचान चाहिए…।

बेटे को ले मै सहेली के घर गई..। अपनी डिग्रियां साथ लाई…थी.।ईश्वर एक दरवाजा बन्द करता तो दूसरा खोलता भी हैं..।. सहेली की मदद से जल्दी ही नौकरी मिल गई.,और मै एक घर किराये पर ले, जिंदगी जीना शुरू किया ..। बेटा बड़ा होने लगा.।

अनूप के बारे में उलटी सीधी खबरें मिलती रहती… पर मै सब भूल कर अपने काम और बेटे की परवरिश पर ध्यान देतीं.। कई बरस गुजर गये..। एक बरसात की रात .. दरवाजे पर जोर से थाप पड़ रही थी..। दरवाजा खोला तो.. सासुमां को खड़ा पाया…, पता चला अनूप मेरे घर छोड़ देने के बाद, अंकिता को घर ले आया..।

, सज धज कर घूमने की शौकीन अंकिता .. घर के काम नहीं कर पाती… दोनों में खूब लड़ाई होने लगी और एक दिन अंकिता, अनूप को छोड़ कर चली गई .. अनूप ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाया .। अब उसे नेहा की याद आने लगी… अंदर अंदर घुलने लगा…। और बीमार हो बिस्तर पर पड़ गया..।

मैंने जाने से इंकार कर दिया पर सासुमां ने अपना आंचल फैला दिया, बेटे के जीवन के लिए…, मै भी एक माँ थी,तो एक माँ की याचना मै ठुकरा नहीं पाई..।

और आज मै अनूप को हॉस्पिटल से स्वस्थ करवा…,घर ले आई..और उसी दहलीज पर खड़ी थी,जो बरसों पहले मैंने छोड़ दिया था..।आरती के बाद अनूप ने कस कर मेरा हाथ पकड़ा और अंदर ले आये.।आज आरती के बाद सासुमां ने मुझसे कहा… बेटी तुम्हारे सावंले रंगत में छिपे तुम्हारे उजले रँग को हम देख़ नहीं पाये थे.।हमें माफ कर दो..।

मैंने अनूप और माँ जी को माफ कर दिया… मै भी एक माँ हूँ… अपने बच्चें के लिए कुछ भी करने को तैयार..। बेटे की खुशी देख़ मुझे अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं..।

–संगीता त्रिपाठी

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!