10 जुलाई,1993 रविवार का वह दिन भूलाए नहीं भूलता है। गर्मी की छुट्टियों के पश्चात् अगले दिन यानी सोमवार से स्कूल खुलने वाला था। स्कूल की प्रधानाध्यापिका होने के नाते एक दिन पूर्व ही स्टाफ मीटिंग कर चुकी थी। छुट्टियों का आखिरी दिन था । बच्चों को मनपसंद नाश्ता कराके बरामदे में निकली ही थी कि कुछ लोगों को सड़क पर घर का छोटा मोटा सामान ले जाते हुए देखा। पूछने पर पता चला कि पास की बस्ती में नदी का पानी
आ गया है। देखते ही देखते हमारी कॉलोनी की सड़कों पर पानी भर गया। पानी की गति इतनी तेज थी कि किसी को सम्हलने मौका ही नहीं मिला और दनदनाता हुआ पानी घरों में प्रवेश कर गया। चारों ओर अफरा तफरी मच गई। जिन लोगों के दोमंजिले घर थे, वह अपना सामान ऊपर की मंजिल में ले जाने का प्रयत्न कर रहे थे।
पर यह क्या ? जल का बहाव इतना तीव्र था कि लोगों के पैर उखड़ने लगे और उन्हें सब कुछ छोड़ छाड़ कर अपनी जान बचाने के घर की छतों पर आश्रय लेना पड़ा । शायद इसीलिए कहते हैं “आग और पानी के सामने किसी की पेश नहीं चलती है।”चार दिन तक पानी गली मौहल्लों में खड़ा रहा था । चारों ओर पानी ही पानी, पर लोग पीने के पानी को तरसते रहे और बच्चे भूख-प्यास से बेहाल तड़पते रहे।
लोग सोच में पड़ गए । कहते हैं जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं । पर यहां तो न कुछ गरजा,न कुछ बरसा ! फिर भी जल थल सब एक ! शायद यही है बिन बादल बरसात ! सुनने में आया कि पहाड़ी इलाकों में वर्षा अधिक होने के कारण मैदानी इलाकों की सभी नदी नालों में उफान आ गया । नदियां खतरे के निशान के निकट पहुंच गई । पटियाले के पास किसी नदी का बांध खतरे में था इस लिए बिना किसी चेतावनी के नदी का पानी छोड़ दिया गया था और पानी का क्या? बहने को विकल ! जहां जगह मिली बह निकला।
पटियाला जैसा विकसित शहर और ऐसी लापरवाही ! वर्षा का पानी आना अलग बात है, पर बिना चेतावनी दिए बांध के फाटक खोल देना बिल्कुल अलग । शहर का एक हिस्सा पूरी तरह जल मग्न। बिजली , पानी सब व्यवस्था ठप्प ! चारों ओर हड़कंप मच गया ।आनन-फानन में प्रशासन सचेत हो गया। हवाई जहाज से छतों पर खाने के पैकेट फेंके गए । रोगियों , पीड़ितों की सहायता के लिए जलमग्न इलाके में नाव चलाई गई । पर जो नुकसान होना था हो चुका था ।
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चार दिन बाद पानी उतरते ही सहायता करने वाली स्वयं सेवी संस्थाओं की बाढ़ आ गई। पंजाब की कल्चर ! गांव की औरतें लंगर (खाना)बनाती और ट्रालियां भर भर कर पुरुष घर घर खाना बांटते थे।दूध, चीनी,चाय पत्ती, कपड़े लत्ते सब कुछ। यहां तक , बिजली न होने के कारण मोमबत्ती, माचिस तक लोगों में पहुंचाईं गई।
पर जिन लोगों ने हमेशा दूसरों की सहायता ही की हो , उन के लिए हाथ फैला कर मांगना इतना आसान नहीं होता है। पर वक्त जो भी करवाए सब ठीक है। इस से दो बातें भली भांति समझ आ गई ।विपत्ति के समय अमीर गरीब सब बराबर हैं । माया -काया का कोई भरोसा नहीं है और सबसे बड़ी बात ! मनुष्य की सबसे बड़ी जरूरत क्षुधा पूर्ति है ।उस के लिए मनुष्य कुछ भी कर गुजरता है। पहले पेट पूजा, फिर काम दूजा!
यह तो जनसाधारण की बात है, पर मेरी तकलीफ़ सबसे अलग थी। घर में पानी आते ही मेरा पैर फिसल गया और मेरी जांघ की हड्डी में फ्रेक्चर हो गया। चार दिन बिना किसी डाक्टरी सहायता के , घर में ही सारा दर्द ,सारी पीड़ा सहते हुए ,किसी प्रकार बिताए और पांचवे दिन मुझे किसी प्रकार अस्पताल पहुंचाया गया ।
ऑपरेशन की सारी तैयारी थी कि बाढ़ के कारण ऑपरेशन थियेटर में संक्रमण फैल गया और ऑपरेशन स्थगित करना पड़ा। मुझे एक प्राइवेट हॉस्पिटल में ऑर्थोपेडिक्स (हड्डी रोग विशेषज्ञ) के पास ले जाया गया।मेरा सौभाग्य कहिए या दुर्भाग्य ! डाक्टर साहब ने ऑपरेशन की अपेक्षा ट्रेक्शन लगाना बेहतर समझा। बाढ़ के कारण घर की स्थिति ऐसी नहीं थी कि ट्रेक्शन लगाने के बाद मुझे घर लाया जाए। इस लिए बिजली, पानी की व्यवस्था ठीक होने तक मुझे अपने एक पारिवारिक मित्र के पास रुकना पड़ा।सच है माया -काया का कोई भरोसा नहीं!
कच्ची गृहस्थी ! बड़ी बेटी इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में, छोटी बेटी मेडिकल कॉलेज में प्रवेश लेने के लिए कटिबद्ध !बेटा सातवीं कक्षा का छात्र! बड़ी ही विकट परिस्थितियां ! पर वह वक्त कुछ अलग था ।मेड सर्वेंट्स,केयर टेकर का जमाना नहीं था। सब भाई -बहन , देवरानी -जेठानियां , दोस्तों मित्र , सब सुख दुख के साथी थे ।सबने बारी बारी से मिल जुल कर सहायता की और हमारा कठिन समय अपने लोगों के सहयोग से कट गया ।
पढ़ाई और सिर्फ पढ़ाई ! विद्यार्थी जीवन का लक्ष्य मानने वाली बेटियों ने शिक्षा के साथ घर- परिवार का उत्तरदायित्व निभाया। हरफनमौला पति ने घर -बाहर की जिम्मेदारी सम्हाली। इस प्रकार तीन महीने के बैड रेस्ट के पश्चात धीरे धीरे मैं स्वस्थ होने लगी। पहले वॉकर, फिर स्टिक और फिर अपने बलबूते पर मैं ने चलना शुरु कर दिया। लगभग एक वर्ष लग गया पूर्णतया सम्हलने में!
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धीरे-धीरे जीवन पूर्ववत चलने लगा । वक्त की यह विशेषता है कि अच्छा हो या बुरा चुपचाप गुजर जाता है पर अपनी यादें छोड़ ही जाता है। आज भी दुनिया के किसी भाग से भी बाढ़ के समाचार आने पर पुरानी घटनाएं चित्रवत आंखों के सामने आ जाती हैं और वह सब याद कर के दिल कांप उठता है।
सबसे बड़ी बात !अदना सा यह मनुष्य हर स्थिति में उस असीम शक्ति से भयभीत ही रहता है और सदा उसके समक्ष नतमस्तक रहता है। आज भी अक्सर मैं सोचती हूं कि रविवार के स्थान पर वह कोई अन्य कार्य काल (वर्किंग डे) होता, तो ,सारा स्कूल बच्चों से भरा हुआ , सारा परिवार बिखरा हुआ ! ऐसे में परिस्थितियां क्या रही होती ? दाता मैं आज भी तेरी शुक्र गुजार हूं ।
बिमला महाजन
#अपनों के साथ