कहानी के पिछले भाग के अंत में आपने पढ़ा, के महेंद्र सब को गोली से मारने की बात कर रहा था… जिस पर विभूति ने शोर काफी होगा, यह कहकर गला रेत कर मारने को कहा… इस पर महेंद्र खुश हुआ और एक बात कही… जिससे वहां मौजूद सभी अचंभित हो गए..
अब आगे..
महेंद्र: अरे वाह विभूति..! का गजब का आईडिया दिए हो..! फिर वह आदमियों से कहता है… सुनो..! रेत डालो इन सब का गला और इस विभूति को ज्यादा तड़पाना नाही… इसको जल्दी वाली मौत देना… काहे की ई हमरा बहुते मदद किया है..
विभूति: इ का बोल रहे हो साहेब जी..? हम तो आपके शुभचिंतक है..
महेंद्र: अरे विभूति..! शुभचिंतक हो एहीसे तो आसान मौत देने को कह रहे हैं… वरना इन सब की तरह गला रेत का नाहीं मारते…?
विभूति: पर हम से कौन गलती हो गई..? जो हमरी जान लेना चाहत है…?
महेंद्र: तुमरी गलती इ है कि, तुम भी उस रात के चश्मदीद गवाह हो और जैसे आज सुरैया के ठीक होने की वजह से, हमरा खतरा बढ़ गवा… वैसे ही अगर कल जाई के तुम भी पलट जाओ, फिर हमरी खटिया ही खड़ी हो जावेगी.. अब हम का कोनो रिस्क नाहीं लेना… सारे झंझट को एक ही बार में खत्म कर देना है…
विभूति अपने मरने की बात को पक्का जानकर, फूट-फूट कर रोने लगा और महेंद्र के सामने अपनी जान की भीख मांगने लगा..
इस पर वही बंधा अंगद विभूति से कहता है… देखा विभूति..! ऐसा ही होता है, जब अपने परिवार से कोई दगा करता है… इससे अच्छा तो तुम माखनलाल का साथ देने में मर जाते… कम से कम आज गद्दार का टीका लेकर तो ना मरना पड़ता… अब तो ना रही इज्जत और ना बचेगी जान…
विभूति कुछ नहीं कहता, वह बस रोता ही चला जा रहा था… थोड़ी देर में आनंद भी वहां आ गया और कुछ लोग मिलकर सबसे पहले विभूति को धर दबोचे…
आनंद और महेंद्र विभूति के नजदीक जाने लगे और यह मंजर सुरैया के सामने चलने की वजह से, उसे उस रात की झलकियां याद आने लगी… जहां आज विभूति था, वहां उस रोज़ उसके पिता माखनलाल थे… जिस तरह विभूति चिख चिल्ला रहा था… उसके बाबा उस रात चिल्ला रहे थे…. यह सब चल ही रहा था कि, आनंद ने विभूति के पेट में चाकू घोंप डाला… इस पर सुरैया जोर से बाबा… कहकर चीख पड़ी…
सभी उसकी ओर देखने लगे… सुरैया फिर कहती है… मत मारो मेरे बाबा को..! छोड़ दो..! छोड़ दो..!
अंगद: सुरैया..! सुरैया..! क्या कह रही हो तुम..?
सुरैया: आप कौन है..? और यह लोग मेरे बाबा को..? अरे यह तो विभूति काका है… तुम लोगों ने पहले मेरे बाबा को और अब विभूति काका को भी मार डाला..? छोडूंगी नहीं, मैं तुम लोगों को..
बस अंगद तो यही चाहता था कि, सुरैया को अपना पिछला वक्त याद आ जाए और वह ठीक हो जाए और शायद आज हुआ भी यही…
आनंद: अरे वाह..! हीरोइन तो ठीक हो गई.. पर गलत वक्त पर.. अब तो तू कुछ ही पलों की मेहमान है..
सुरैया: अरे जा.. जा… एक लड़की से इतना डरता है, के सब मर्द मिलकर उसको बांधकर बड़ी-बड़ी डींगे हांक रहा है… उस दिन भी तुम लोगों ने ऐसा ही किया और आज भी वही कर रहा हैं… जबरदस्ती एक लड़की पर पूरा झुंड कूद गए, एक बूढ़े पर 4 लोग मिलकर हमला किया… तुम लोग खुद को मर्द कहते हो..? नामर्द हो तुम लोग नामर्द… दम है तो खोलो मुझे., फिर बताती हूं..
अंगद तो पहली बार सुरैया का यह रूप देख रहा था और मन ही मन सोच रहा था, कि यह तो झांसी की रानी है… अकेली इतने सारे लोगों को चुनौती दे रही है.. जरा भी डर नहीं है इसे…
आनंद: अरे..! आज यह पागल ठीक क्या हो गई..? जबान चलने लगी… लगता है तू भूल गई मेरी मर्दानगी..? चल कोई बात नहीं… तुझे मारने से पहले अपनी मर्दानगी दिखा देता हूं… वैसे कब से तुझे छूने को तरस रहा था और आज जब तेरी भी यही इच्छा है.. तो चल..!
अंगद: खबरदार..! जो उसे छूने की कोशिश भी की..
आनंद: देखो जीजा जी..! पति परमेश्वर का प्रेम जाग गया… पर पति जी..! यह कोई पहली बार मैं इसके साथ यह सब नहीं कर रहा हूं… ना जाने कितनी ही बार कर चुका हूं..! और ना जाने कितनों ने ही किया था, उस रात… पेट में बच्चा लिए भी घूम रही है… फिर भी पति जी को इसकी इज्जत की पड़ी है…
अंगद: किया होगा… पर अब यह मेरी पत्नी है और अब इसके साथ कुछ भी किया तो, अंजाम बहुत ही बुरा होगा…
तो क्या अंगद सुरैया को बचा पाता है आनंद से..? जानेंगे आगे…
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दर्द की दास्तान ( भाग-14 ) – रोनिता कुंडु : Moral Stories in Hindi