घर के सामने सड़क के उस पार छत पर दोनों प्यारे भाई बहन खेल रहे थे लगभग पाँच और तीन वर्ष की उम्र के दोनों बच्चे बड़े ही चुलबुले पर मासूम है, प्यारी सी वो बच्ची जब गाय को रोटी खिलाने अपने दादा के पीछे निकलती है तो बड़ा मजेदार से दृश्य रहता है,उसे गाय को रोटी भी खिलानी है और गाय से डर भी लगता होता है,तब ऐसे में उसका भाई खुद को बहुत बड़ा समझते हुए छोटी बहन को हिम्मत देता हुआ रक्षक बना आगे बढ़ता है जबकि वह स्वयं भी कम डरा हुआ नहीं दिखता। अक्सर उनके शोर से मेरी नज़र उन पर पड़ ही जाती है, और मैं मन ही मन मुस्कुरा देती हूँ।
आज देखा दोनों बच्चें छत पर अकेले खेल रहे थे, थोड़ी चिंता और थोड़े कौतूहलवश मैं उन्हें देखने लगी,
बच्ची को छत से लगी रेलिंग से नीचे सड़क पर झांकना था, उसकी रेलिंग में लोहे की ग्रिल लगी है जिससे नीचे सड़क तो नज़र आती है पर गिरने के खतरा नहीं। तीन मंझिल इमारत की छत ऊंची है। ज़ाहिर है, बच्ची को नीचे झांकने से डर लग रहा था,और उसका भाई उसे समझा रहा था कि ग्रिल को पकड कर नीचे झांकना है,दरअसल बच्ची थोड़ी दूर से ही जब नीचे की तरफ़ देखती तो डर जाती शायद उसे उंचाई का डर सता रहा था।
ऊंचाई का डर भी एक तरह का फ़ोबिया होता है जिसे मनोविज्ञान पढ़ने वाले बेहतर समझते हैं।
उस प्यारे से बच्चे ने जिस धैर्य से अपनी बहन को उसके इस डर से बाहर निकाला वह काबिले तारीफ़ था,,
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धीरे-धीरे कदम बढ़ाता बच्चा आगे बढ़ता,रेलिंग तक आता,, रेलिंग पकड़ता और नीचे झांकने का उपक्रम करते हुए बहन को समझाता!
देख, मैं गिरा क्या? मैं तो यहीँ खड़ा हूँ!! मैंने तो पापा की कार भी देखी…
प्रलोभन भी!
उसकी बहन उसके निर्देशों का पालन करती है और छोटे-छोटे डग भरती हुई भाई के नक्शे कदम पर चलती रेलिंग तक पहुंचती है, धीरे से हिम्मत कर उसनें भी नीचे झाँका…..
और यही अद्भुत क्षण था!
जब वो बच्ची अपने डर से जीत कर हर्षमिश्रित चिल्लायी! अपनी इस खुशी की पुनरावृत्ति अब वह बार-बार कर रही थी, रेलिंग तक आती,नीचे झांकती और ज़ोर से ताली बजा कर खिलखिलाती हुई भाई को अपनी जीत जताती!!
ये घटनाक्रम बरबस ही मुझे मेरी बिटिया के बचपन में ले गया जब मेरी बिटिया ने भी चलना सीखा ही था,और एक दो सीढ़ियों वाली ऊंचाई से भी चढ़ने उतरने में असमर्थ थी उसे भी डर लगता था, वो भी किंकर्तव्यविमूढ़ सी मुझे देखती थी, तब मैं भी उसका मनोबल बढाती हुई उसके पास ही रहती, ऐसे ! की मेरी नज़रें सुरक्षा की दृष्टि से बराबर उस पर बनी रहती लेकिन सीखने का क्रम वो ख़ुद से करती!!
और जब उसने पहली सीढ़ी चढ़ना सीखी थी!उसके चेहरे की वह विजयी मुस्कान मुझे आज भी याद है!!
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मैंने अपने बच्चों को हमेशा ख़ुद से सीखने का मौका दिया,सीढियां चढ़ने,कुर्सी या टेबल पर चढ़ कर दरवाज़े की कुंडी खोलने के प्रयास से ले कर सायकिल सीखना जैसी क्रियाओं से शुरू हुआ क्रम मनोविज्ञान के “लर्निग एंड फोर्गेटिंग” तथा “ट्रायल एंड एरर” सिद्धान्त से हमेशा प्रभावित, आज भी जारी है! अनुभवों से सीखो!!
आज जब बेटियां हर डर से मुकाबला करती जीतती जाती हैं तो उनके गले मे लटकते वो सारे मेडल मेरी सफ़लता की निशानी गुनते है।
मेरी तन्द्रा भंग होती है…
सामने बच्ची ज़ोर-ज़ोर से खिलखिला रही है!
सफ़लता के अतिरेक में बच्ची ने रेलिंग पर चढ़ना सीख लिया था,और लगभग लटकती सी अब वो इस खुशी में चींख रही थी,
मैंने तुरन्त डाँटा, नीचे उतरो! नीचे उतरो,तुरन्त मम्मी के पास जाओ!! भागो…
बच्चें डर गए, और रेलिंग से उतर,, क़दम पीछे करते चले गए।
ये जरूरी था!
सफ़लता का कद इतना भी ना बढ़े!खुशी का अतिरेक इतना भी ना हो!!
की अगला क़दम आपको अर्श से फ़र्श पर गिरा दे!!!
और हाँ,
डर के आगे जीत! सिर्फ़ ऋतिक रौशन प्रचारित माउंटेन डीयू पीने से ही नहीं होती!
हा हाहा हा।।
सारिका चौरसिया
मिर्ज़ापुर उत्तरप्रदेश।