बहु शब्द कानों में पड़ते ही साड़ी में लिपटी ,सोलह श्रृंगार से सजी ,संकोची ,शर्मीली ,सुसंस्कृत महिला की छवि मानसपटल पर उभरती है ।और कहीं इस पूर्व अंकित छवि में थोड़ा भी विरोधाभास नज़र आया तो समाज और परिवार उसे अलग ही अलंकारों से सुशोभित कर देता है ।हालांकि आज इस धारणा में कुछ बदलाव आया है परंतु मैं तो आपको तीस पैंतीस साल पुरानी कहानी सुनाने जा रही हूं ।
राधिका के पिता की थी कुछ मजबूरी कि उनको अपनी सुख सुविधाओं में पली , पढ़ी लिखी ,हर काम मे होशियार बेटी का विवाह गांव के एक अनपढ़ और रूढ़िवादी परिवार में करना पड़ा ।हालांकि राधिका का पति शहर में नौकरी करता था ।लेकिन परिवार तो परिवार है ,उससे कोई कैसे अलग रह सकता था ।
शुरू के कुछ महीने राधिका ससुराल में रही ।ससुराल वालों को समझने में दिक्कत हो रही थी कि एक अलग परिवेश में पली बढ़ी लड़की को यहां के माहौल में ढलने में समय लगेगा । राधिका किसी से भी कम बात करती ।लोगों ने उसे घमंडी कहना शुरू कर दिया ।राधिका मन ही दुखी होकर रह जाती ।
कुछ महीनों बाद राधिका पति के पास शहर आ गयी । मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था ।राधिका के पति की नौकरी छूट गयी । राधिका ने तुरंत शादी में मिले पैसे पति के हाथ मे रख दिये ।
“सुनिए जी , नौकरी का क्या भरोसा ,आप कोई दुकान कर लीजिये ।”
राधिका के पति ने छोटी सी किराने की दुकान खोल ली । समय की मांग देखकर उसने भी एक स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली ।
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गांव से रिश्तेदारों का आना भी शुरू हो चुका था ।किसी को डॉक्टर को दिखाना था ,किसी को बाजार का काम तो किसी को फ़िल्म और सर्कस देखना था ।राधिका थकी हारी जब घर पहुंचती तो रिश्तेदारों को देखकर दिल खोलकर सबकी आवभगत करती परन्तु वो शायद सबकी अपेक्षाओं के अनुकूल नही था । परिवार के बच्चे उसे अपने लिए होने वाली ननदों ,जेठानियों की प्रतिक्रिया से अवगत कराते रहते ।
चाची आपको पता है ताईजी आपके बारे में क्या कह रही थीं?
“क्या?”
“राधिका को तो कोई आया गया अच्छा नही लगता ।”
चाची उस दिन बड़ी बुआ आपके यहाँ आयी थीं तो कह रही थीं,
“अरे बिस्कुट नमकीन का भी कोई नाश्ता करवाता है ?कुछ गर्म नही बना सकती थी ।”
कभी छोटी नंद के फिकरे सुनने को मिलते ….
“अरे हम कौन सा रोज रोज आते हैं ।बच्चों के हाथ मे पांच रुपया भी नही रखा ।”
कैसे समझाती वो सबको कि उन लोगों का तो महीने दो महीने से बारी बारी आना होता है ,मगर उसके लिए तो ये रोज का सिलसिला है ।इस महंगाई में कैसे काम चला रही है वही जाने ।
“शर्म भी नही आती ,सास ननदों के सामने कैसे सूट पहनकर घूमती है । अरे हम लोगों के तो आँचल कभी माथे से ऊपर भी नही हुआ ।” एक दिन उसने छोटी जेठानी को कहते सुना ।
राधिका हर बात को नज़रंदाज़ कर देती ।
“मेरा जो फ़र्ज़ है मैं करूंगी ।लोगों को जो बोलना है बोले ।”राधिका मन ही मन सोचती ।
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और फिर एक दिन पता चला …
सास की तबियत खराब रहती है ।शहर बुलवाकर डाक्टर को दिखाया तो पता चला उन्हें
कैंसर हो गया है ।
दोनो पति पत्नी तन ,मन ,धन से मां की सेवा में लग गए ।
सास को देखने आने वालों का भी तांता लगना शुरू हो गया । सबका अपना परिवार ।गांव से उसकी मदद को कोई नही आ सका ।उसे स्वयं ही सब करना था ।बुजुर्ग रिश्तेदार सास की मिजाजपुर्सी कम करते और बहू सेवा कैसे करती है ये ज्यादा पूछते ।
एक दिन राधिका स्कूल से लौटी तो देखा बुआ सास का परिवार आया हुआ था ।
आनन फानन में सबके भोजन की तैयारी में लग गयी ।सबको खिलाते पिलाते अभी खुद खाने बैठी ही थी कि उसके ट्यूशन वाले बच्चे आ गए ।
थोड़ी देर में जब बुआ सास जाने लगीं तो वो उनको विदा करने दरवाजे तक आयी ।
“अरे राधिका ,तुमको तो हम लोगों से बात करने तक की फुर्सत नही है ।इतना क्या घमंड ।” बुआ सास ने कह ही दिया ।
क्या जवाब देती वो ।उसे तो सभी कामों में संतुलन बनाकर रखना था ।
उसकी मेहनत रंग लाई ।सास अब पूरी तरह स्वस्थ हो चुकीं थीं । उन्होंने फिर गांव जाने की इच्छा जाहिर की । एक बार डॉक्टर से राय लेकर पति उनको गांव वापस भेजने तैयार हो गए ।
“सुन बेटा ,लोग तुम्हे घमंडी कहें या कुछ और ,लेकिन ये तो मैं जानती हूं कि मेरी बहु कितनी समझदार है और घर बाहर के काम मे कितना संतुलन बनाकर रखने वाली है ।”
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“और हाँ बेटा ,मैं तो फिर से स्वस्थ होने की उम्मीद छोड़ चुकी थी ,तुम दोनों की मेहनत से मैं फिर से खड़ी हो गयी ।”
राधिका की आंखों से अश्रुधार बहने लगी ।
“और सुन ,गांव जाकर मैं सबको गर्व से बताऊंगी कि मेरे तीन बेटे नही एक चौथा बेटा भी है जिसका नाम है राधिका । राधिका तू मेरी बहु नही बेटा है बेटा ।”
चौथा बेटा? राधिका को अपने कानों पर विश्वास नही हुआ ।भाव विह्वल हो वह सास के गले लग कर रो पड़ी ।
#बहू
रंजू अग्रवाल ‘राजेश्वरी’