“ बेटा तेरा गला नंगा क्यों हैं?”
“ पहना तो है मंगलसूत्र माँ।”गले में हाथ फिरते हुए …अरे! मेरा मंगलसूत्र… कहाँ गया…”संजना बोली।
“देख बेटा कहीं उतर जार रखा होगा तुमने।”
“ नहीं माँ! मैंने कहीं नहीं रखा… जब से तुमने बताया कि.. किसी भी माँ को अपना गला ख़ाली नहीं रखना चाहिए… तब से मैं रात में सोते समय भी नहीं उतारती।”
घर में देख.. कहीं गिर गया होगा।
संजना ने पूरा घर ढूँढ लेने के बाद .. ज़रूर विमला(उसकी कामवाली) ने चुराया हैं।”
“ नहीं बेटा कभी किसी ग़रीब को या किसी को भी निर्दोष पर दोष नहीं लगाना चाहिए।”
“ नहीं माँ ये छोटे लोग… कभी किसी के सगे नहीं होते… मौक़ा देखते ही अपनी औक़ात दिखा ही देते हैं… हम चाहे जितना भी अपना मानकर इन्हें कर कर दें।”
ऐसा नहीं है बेटा! कभी मैं भी ऐसा ही सोचती थी लेकिन एक घटना ने मेरी आँखें खोल दी…
बात १९९८ की है…
जब हमारा नया घर बन रहा था और तुम्हारी दादी के अनुसार अपने नये घर की छत की शुरुआत अपने पैसों से नहीं करनी । उनका मानना था कि जब-जब हमारे परिवार मे किसी ने अपने पैसों से घर की छत का निर्माण करवाया, उसके साथ कुछ न कुछ अनहोनी हुई।
मैं और तेरे पापा इसी उधेड़बुन में थे कि क्या करें तभी रामप्रसाद या राम मूरत नाम नहीं याद आ रहा शायद राममूरत नाम ही था उसका। वह तुम्हारे पापा जिस बैंक शाखा में शाखा प्रमुख थे…वह उन्हीं की शाखा में चपरासी था,वह भी दैनिक वेतन भोगी।उसे भी हमारी परेशानी का पता चला।
अगले दिन रविवार को सुबह-सुबह कालबेल बजी,हमें थोड़ा गुस्सा भी आया कि कौन सुबह-सुबह नींद में खलल डालने आ गया। हमने अनमने मन से दरवाजा खोला तो देखा राममूरत हैं, हमारे पूछने पर बोला कि मनैजर साहब से कुछ काम है।
मैंने उसे बैठक मे बैठने को कहकर तेरे पापा को बताने चली गयी। पापा ने चाय बनाने को कहा।थोड़ी देर बाद जब मैं चाय लेकर बैठक मे जा रही थी कि मेरे कानों में राममूरत की आवाज़ सुनाई दी–-“साहब यह हमारी पासबुक देखैं इसमें करीब ७-८ हजार रूपये है, आप अपने घर की छत का निर्माण शुरू करें।
” उस पल ऐसा लगा कि किसी ने कहा–“मैं हूँ ना”। मेरी आँखों में आंसू आ गए। मेरे पति ने उससें कहा–“तुमने इतना कहा राममूरत यहीं बहूत है”।
राममूरत का असमय आना हमें अच्छा नहीं लगता था।सबसे बुरा लगता था उसका पति के बराबर सोफे पर बैठना।
हमारे पारिवारिक मित्र की मदद से हमारे घर की छत का निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ।
लेकिन राममूरत के मदद का आग्रह हमदोनों को ताउम्र याद रहेगा। उसनें “मैं हूँ ना।” के साथ-साथ हमेँ एहसास दिलाया कि कोई भी व्यक्ति छोटा या बडा़ नहीं होता, वरन् उसकी सोच उसे छोटा या बडा़ बनाती हैं।
संध्या सिन्हा