आज पति और बेटी की बातों को सुनकर आशाजी का कलेजा छलनी हो उठा।उसके मन में यादों का उफान उफन उठा।गहरी-गहरी साँसें भरने लगीं।मन में अतीत की यादें ताजा हो आईं।आशाजी पढ़ने में काफी तेज थीं,जिसके कारण उन्हें सरकारी बैंक में अच्छी नौकरी लग गई थी।
शादी के बाद दो बच्चे हो गए। पति की नौकरी में भी तीन साल पर स्थानांतरण होता था,जिसके कारण नौकरी के साथ अकेले बच्चों की परवरिश में आए दिन कठिनाईयां आती थीं।
एक दिन नौकरी से आने पर उन्होंने देखा कि बेटा बिस्तर पर लेटा हुआ बुखार से तप रहा है और मम्मी-मम्मी बोलकर रो रहा है।बेटी भी स्कूल ड्रेस में ही मायूस-सी बैठी है।कामवाली जरुरी काम कहकर घर चली गई थी।यह सब देखकर नौकरी को लेकर उनके मन में एक द्वंद्व चलने लगा।
दिल और दिमाग की लड़ाई में कभी दिल दिमाग पर हावी हो जाता तो कभी दिमाग दिल पर।उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ?उसी क्षण बेटे का निरीह मुख देखकर पलभर में निर्णय लेते हुए उन्होंने पति को फोन पर कहा -“सुनो! बच्चों की जिन्दगी और शिक्षा से बढ़कर मेरी नौकरी नहीं है।तुम्हारी नौकरी से हमारा गुजर – बसरअच्छे से हो जाएगा!”
पति ने बस इतना कहा -” आशा! जो तुम्हें ठीक लगे ,वही करो।”
जिस नौकरी के लिए आशाजी ने जी-जान लगाकर पढ़ाई की थी,अगले दिन उसी नौकरी से त्याग-पत्र दे दिया।उम्र के चौथे पड़ाव पर आकर उन्हें सुकून था कि उनकी सही देखभाल से दोनों बच्चों की पढ़ाई अच्छे से हो गई और दोनों अच्छी जगह नौकरी करने लगें।
परन्तु आज किसी बात पर उनके पतिदेव ने अपने दोस्त की पत्नी का उदाहरण देते हुए झल्लाकर कहा -“आशा!उसकी पत्नी नौकरी करती है।पैसा कमाती है तो अपनी मनमर्जी कर सकती है!”
आशाजी अवाक् सी पति का मुँह देखती रह गईं।पति के कहे हुए शब्द तीखी गर्म बरछी की तरह उनके मोम से हृदय को छलनी कर रहा था।पलभर में उनके मन का भ्रमजाल टूट गया।कहाँ तो वे सोचती थीं कि पति और बच्चों के मन में उनके अधूरे कैरियर को लेकर अपराध-बोध है और कहाँ ये लोग उसे दूसरों का उदाहरण दे रहें है!
उसी शाम बेटी को आशाजी ने देर रात तक बाहर रहने से मना किया,तो बेटी ने भी पलटवार करते हुए कहा -” मम्मी!जिस तरह आप घर बैठकर दिन-रात आसमां देखतीं हैं,मैं भी वही करुँ क्या?”
इन सब बातों से आशाजी का कलेजा एक बार फिर से छलनी हो उठा।उन्होंने मन-ही-मन सोचा -” सचमुच! आज की लड़कियाँ ज्यादा समझदार हैं,जो अपने कैरियर को लेकर ज्यादा भावुकता में नहीं पड़तीं हैं!”
समाप्त।
लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)