रिटायरमेंट के बाद रमाकांत जी अपने बेटे सूरज के पास मुंबई रहने चले गए। पत्नी रमा की मृत्यु चार साल पहले हो गयी थी। बेटी पायल की दो महीने पहले शादी करके अपनी सारी जिम्मेदारियों से निवृत हो चुके हैं।
रिटायरमेंट की पार्टी के बाद बहू सीमा और सूरज कहने लगे कि अकेले कैसे रहेंगे और अपने साथ ले जाने की जिद करने लगे। पायल और दामाद रोहन ने भी कहा कि कभी आप भैया के पास कभी हमारे पास रहना। अकेले रहने से हारी-बीमारी में मुश्किल हो जाएगी और उन सब को भी उनके साथ रहना अच्छा लगेगा।
इस तरह बेटा-बेटी, बहू-दामाद के जोर देने पर रमाकांत जी मुंबई आ गए। किताबें पढ़ने का शौक उन्हें हमेशा से ही है तो बाकी सामान के साथ दो बक्सें भरकर पुस्तकें भी आईं।
सीमा और सूरज दोनों उनका खूब ख्याल रखते हैं। पोती सिया उनका मन बहलाती रहती है। उसके पास हज़ार सवाल होते हैं जिनका हल दादाजी के पास होता है।
स्वभाव के भले रमाकांत जी रच-बस गए। सूरज के कहने पर सुबह की सैर भी शुरू कर दी उन्होंने। सोसाइटी के पास में ही उद्यान है जहां सब मॉर्निंग वॉक व योग आदि करते हैं तो रमाकांत जी सुबह ६ बजे सैर के लिए जाते और ६:३० या ६:४५ तक वापस आ जाते।
रमाकांत जी के जल्द ही कुछेक मित्र अपनी आयुवर्ग के भी बन गए । घर आकर नाश्ता पानी के बाद पोती से खेलना- बतियाना और किताबें पढ़ना, कहानियां सुनाना, किताबों की सार संभाल करते हैं। सूरज ने उनके रूम में ही बुक शेल्फ बनवा दिया है ताकि पापा को पुस्तक ढूंढने में आसानी रहे।
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इधर कुछ दिनों से उनको सैर में थोड़ा ज्यादा वक़्त लगने लगा। जब एक दिन उन्हें लौटने में काफ़ी देर हो गयी तो सूरज व सीमा उन्हें देखने उद्यान में आये कि पापा कहाँ रह गए।
वो क्या देखते हैं कि पापा तो खूब सारे बच्चों से घिरे बैठें हैं। रमाकांत जी एक कॉपी में कुछ लिख रहे हैं और ज्यादातर बच्चों के हाथ में पुस्तकें हैं। ध्यान से देखने पर पता चला कि वह पुस्तक एक बच्चे से लेकर उसका नाम अपनी कॉपी से काटते हैं और फिर वो जो पुस्तक चाहता है उसे देकर कॉपी में उस पुस्तक के आगे उस बच्चे का नाम लिखते हैं। ऐसा करते करते उन्होंने अपने थैले में रखी सभी पुस्तकें बच्चों को दे दी।
फिर सबसे कहा , “बच्चों अब दो दिन बाद सब पुस्तक लेकर आना और दूसरी लेकर जाना।”
बच्चें खुशी खुशी पुस्तकें लेकर अपने अपने घर चले गए।
रमाकांत जी पलटे तो सूरज-सीमा को देखकर बोले , ” अरे तुम लोग यहाँ। “
सूरज ने कहा ,” पापा, आज आपको बहुत देर हो गयी तो हम आपको देखने चले आये। पापा, आप, ये बच्चें और किताबें?
रमाकांत जी बोले ,” बेटा ,ये वो बच्चे हैं जो बमुश्किल से स्कूल जा पते हैं। मैं उन्हें पुस्तक पढ़ने को देता हूँ क्योंकि आर्थिक तंगी की वजह से वो इन्हें खरीद पाने में असमर्थ हैं। ज़रूरत पड़ने पर मैं कुछ पढ़ कर भी सुना देता हूँ। इस तरह मेरा भी मन लगा रहता है और…
“वाह पापा !” उत्साहित होकर सीमा बोली
“हाँ और मेरी बस एक ही शर्त रहती है कि पुस्तक गन्दी न हो और फटे नहीं एवं समय से वापस करें। ” रमाकांत जी बोले।
“पापा, आप तो मोबाइल लाइब्रेरी चला रहे हैं। हमें भी बताएगा हम भी योगदान करना चाहते हैं।” सूरज बोला।
” बिलकुल बेटा , सिया की पुरानी किताबें कुछ बच्चों के काम आ सकती हैं। वो दे सकते हो और हाँ पुरानी कॉपियां निकाल देना, बिना लिखे बचे हुए पन्नों को बाइंडिंग करवाकर बच्चों के लिखने के काम आ जाएँगी। बाकि मैं बताता रहूँगा। एकाध किताब रह गई हैं, अभी चलते हैं। मेरे पेट में चूहे भी दौड़ रहे हैं।” रमाकांत जी बोले।
“घर चलकर बढ़िया नाश्ता करते हैं, पापा। आज हलवा और मठरी बनाई है।” सीमा ने कहा।
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किताबें बंट ही चुकी थी, वे तीनो घर की ओर चल पड़े।
वृद्धावस्था सब पर आती है। जीवन का सत्य है, एक सोपान है। जिस प्रकार रमाकांत जी ने रिटायरमेंट के बाद अपने पुस्तकें संग्रह एवं पढ़ने के शौक से अपनेआप को व्यस्त रखने का उपाय निकाला और बच्चों के काम आ रहें हैं। मन भी बहल जाता है उनका। उसी प्रकार हम अपने घर के बुज़ुगों को, उनके शौक और हॉबीज़, जो शायद ज़िन्दगी की आपाधापी में उनसे कहीं पीछे छूट गए, उन्हीं शौक और रुचियों के लिए बढ़ावा देकर उनको
खुश रखने का प्रयास कर सकते हैं। हमारे बड़े-बुज़ुर्गों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, जरा बात करके देखिएगा कितने अनमोल खजाने बातों ही बातों में बता जाते हैं हमारे बड़े-बुज़ुर्ग लोग। बात करते रहिए अपनों से क्योंकि उम्र तो बस एक नम्बर है! उम्र के मोहताज़ नहीं होते हैं, हॉबीज़ और शौक , बस थोड़ा सा साथ तो दीजिए उनका। हंसते हुए प्रसन्नचित्त बुज़ुर्ग आशीष और आशीर्वचनों से आपको खुशियों से भर देंगे।
धन्यवाद।
प्रियंका सक्सेना
( मौलिक व स्वरचित)
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