शाम का समय था। रसोई में नंदिता चुपचाप बरतन धोकर पोंछ रही थी। पूरे दिन का काम ख़त्म होने के बाद भी उसके चेहरे पर थकान से ज्यादा सोच का बोझ झलक रहा था। तभी अचानक एक छोटी-सी बोनचाइना प्लेट उसके हाथ से छूटकर फ़र्श पर जा गिरी और टुकड़ों में बिखर गई। आवाज़ सुनते ही पार्वती जी गुस्से में आ गईं।
“हे भगवान! ये लड़की तो जैसे जान-बूझकर घर के बर्तन तोड़ती है। न जाने कैसे हाथ-पाँव चलते हैं इसके।”
इतना सुनते ही उनकी बेटी मानसी, जो मायके आई हुई थी, अपनी माँ का साथ देने लगी।
“आपने ठीक किया माँ जो भाभी को डाँट दिया। खुद तो खाली हाथ आई हैं ऊपर से आपके महंगे-महंगे सेट तोड़ती रहती हैं। भाभी का यही हाल रहा तो माँ, घर का सब कुछ बर्बाद हो जाएगा।”
नंदिता चुप रही। उसकी आदत थी कि वह जवाब नहीं देती थी। उसकी खामोशी पार्वती और मानसी, दोनों को और भी हिम्मत देती थी। लेकिन तभी कमरे में प्रवेश किया शिवशंकर बाबू ने, जो कुछ देर से बाहर बरामदे में अख़बार पढ़ रहे थे।
उन्होंने बेटी की बातें सुनीं और गुस्से में बोले,
“चुप करो मानसी! तुम्हारी माँ को तो बहू को डाँटने का बहाना चाहिए ही था, कम से कम तुम तो आग में घी डालकर रिश्तों को बिगाड़ने की कोशिश मत करो। रिश्ते जोड़ने का काम करो, तोड़ने का नहीं।”
मानसी सकपका गई। उसने धीमे स्वर में कहा, “पापा… मैं तो बस सच कह रही थी।”
“बस करो मानसी। और पार्वती, तुम भी! भूल गई हो अपने दिन?” शिवशंकर बाबू की नज़रें अब पत्नी पर थीं।
पार्वती के चेहरे पर असहजता फैल गई। उन्हें अपने मायके के दिन याद आ गए। एक बार उनकी माँ गुस्से में थीं और गलती पार्वती से हुई थी। तभी उनकी बड़ी बहन मंजू ने माँ से शिकायत की थी। उस समय दादी ने मंजू को समझाया था—
“मंजू, माना कि तेरी बहन से गलती हो गई है और तेरी माँ भी गुस्से में है, लेकिन तू आग में घी डालकर इन रिश्तों को मत बिगाड़। रिश्ते संभालने से बनते हैं, तोड़ने से नहीं।”
आज वही दृश्य उनके घर में सामने था। फर्क बस इतना था कि अब वह खुद ‘माँ’ थीं और उनकी बेटी मानसी वही कर रही थी जो कभी मंजू ने किया था।
असल में पार्वती हमेशा से चाहती थीं कि अपने बेटे अभिषेक की शादी दहेज और बहुत सारा सामान लेकर आने वाली बहू से करें। उनकी सोच में यही था कि बहू अगर भरपूर सामान लेकर आएगी तो मायके और ससुराल दोनों में इज़्ज़त बनी रहेगी।
लेकिन किस्मत कुछ और ही चाहती थी।
शिवशंकर बाबू की मुलाक़ात अपने पुराने मित्र जयंत लाल से हुई। जयंत लाल की बेटी नंदिता पढ़ी-लिखी, संस्कारी और बेहद सरल स्वभाव वाली थी। जब पहली बार शिवशंकर बाबू ने उसे देखा, तो उन्हें लगा कि यही उनके बेटे के लिए उपयुक्त जीवनसंगिनी है। अभिषेक को भी नंदिता पसंद आई और दोनों का विवाह हो गया।
पर शादी में पार्वती जी की उम्मीदें पूरी नहीं हुईं। उन्हें ज़ेवर और महंगे सामान की उम्मीद थी, पर शादी सादगी से हुई। उनकी नाराज़गी बहू के मायके वालों से ज्यादा नंदिता से थी। वे अक्सर ताना मारतीं और छोटी-सी गलती पर उसे डाँट देतीं।
मानसी जब भी मायके आती, माँ की नाराज़गी को और भड़काती। वह ननद होने के नाते मानती थी कि भाभी को उसकी “औक़ात” दिखाना जरूरी है। अक्सर छोटी-छोटी बातों को बढ़ा-चढ़ाकर कहती और पार्वती की नाराज़गी में अपना रंग घोल देती।
नंदिता ने कभी पलटकर जवाब नहीं दिया। उसने यह सोच लिया था कि घर के बड़े चाहे कुछ भी कहें, उसका कर्तव्य चुपचाप काम करना और सबको सम्मान देना है। उसने कभी अभिषेक से भी शिकायत नहीं की, ताकि उसके दिल में माँ या बहन के प्रति कोई कड़वाहट न आए।
शिवशंकर बाबू को यह सब अच्छा नहीं लगता, लेकिन वे सोचते थे कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।
आज भी वही हुआ। प्लेट टूटने की घटना ने पार्वती को फिर से मौका दिया और मानसी ने आग में घी डाल दिया। लेकिन इस बार शिवशंकर बाबू चुप नहीं रहे।
उन्होंने सख्ती से कहा,
“पार्वती, अगर तुम्हें बहू से इतनी शिकायत है तो मैं अभिषेक से कह देता हूँ कि वह अलग घर में जाकर रहे। बहू को ताने देने से अच्छा है कि उसे सम्मान दो। क्या तुम्हें याद नहीं, जब तुम नई-नई बहू बनकर आई थीं, तो छोटी-सी गलती पर तुम्हें कितना बुरा लगता था? अब वही गलती तुम दोहरा रही हो। क्या तुम चाहती हो कि बेटा तुमसे अलग हो जाए?”
पार्वती के लिए यह सुनना आसान नहीं था। उनका पूरा जीवन बेटे के इर्द-गिर्द घूमता था। अगर बेटा उनसे अलग हो गया, तो उनका जीवन अधूरा हो जाएगा। उसी क्षण उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ। उनकी आँखें भर आईं।
वे आगे बढ़ीं और नंदिता को गले लगा लिया।
“बहू, मुझे माफ़ कर दो। मैं भूल गई थी कि रिश्तों को तोड़कर कभी सुख नहीं मिलता। तुमने अब तक चुप रहकर बहुत सहा है। आगे से मैं तुम्हें अपनी बेटी समझूँगी।”
मानसी भी रो पड़ी।
“भाभी, मुझे भी माफ़ कर दो। मैं समझ नहीं पाई कि मेरे शब्द रिश्तों में कितना ज़हर घोल रहे थे।”
नंदिता ने दोनों के आँसू पोंछते हुए कहा,
“गलती तो इंसान से ही होती है। लेकिन रिश्तों में माफ़ी और अपनापन ही असली दौलत है।”
तभी अभिषेक ऑफिस से घर लौटा। घर का माहौल देखकर उसे लगा कि कुछ खास हुआ है। नंदिता तुरंत रसोई में गई और सबके लिए चाय बनाकर लाई।
सभी ने मिलकर चाय पीनी शुरू की। तभी अभिषेक ने एक घूँट लिया और बनावटी गुस्से में बोला,
“नंदिता! चाय में चीनी क्यों नहीं डाली?”
पार्वती, मानसी और शिवशंकर बाबू एक पल को चौंके, पर अगले ही क्षण सब हँस पड़े। अभिषेक भी मुस्कुरा दिया।
उस दिन के बाद घर का माहौल बदल गया। रिश्तों में जो कड़वाहट थी, वह मिठास में बदल गई। पार्वती जी अब नंदिता को बहू नहीं, बेटी की तरह देखने लगीं। मानसी ने भी समझ लिया कि रिश्तों को जोड़ना ही सबसे बड़ा धर्म है।
शिवशंकर बाबू के शब्द सबके दिल में घर कर गए—
“रिश्ते ज़रा सी गलतफहमी और तानों से बिगड़ जाते हैं। लेकिन अगर हम समझदारी से काम लें, तो वही रिश्ते ज़िंदगी की सबसे बड़ी ताकत बन जाते हैं। दहेज और ताने रिश्तों की नींव नहीं, बल्कि प्रेम और अपनापन ही असली आधार है।”
और सचमुच, उस दिन के बाद इस घर में कभी ताने नहीं गूँजे, बल्कि हर दिन हँसी और प्यार की खनक सुनाई देने लगी।
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु
# आग में घी डालना