“अरे! इस भाग्यहीन को यहाँ क्यों उठा ले आए? पैदा होते ही अपनी माँ को खा गई और अब बाप को! मैं इस मनहूस को यहाँ नहीं रहने दूंगी।” माँ जी अपनी बहू रीना पर चिल्लाई।
“मां जी, मैं प्राची को आपकी सेवा के लिए ही लाई हूँ।” माँ जी को शांत करते हुए रीना बोली। बहू का इशारा समझकर माँ जी की आंखें चमक गईं।
दरअसल, प्राची को जन्म देते ही उसकी माँ चल बसी। उसके पिता और शैय्याग्रस्त दादी ने प्यार देने की कोशिश की पर माँ की कमी को पूरा न कर सके। चाचा-चाची की आंखों में वह हमेशा खटकती रहती।
“यह तो जन्म से ही भाग्यहीन है।” यह वाक्य प्राची ने बड़े होते न जाने कितनी बार सुना। बचपन के स्वाभाविक लक्षण-चंचलता, हठ और शरारत… न के बराबर थे प्राची में।
परिस्थितियों ने उसमें सब्र और संतोष के साथ-साथ आत्मनिर्भरता के गुण भर दिए थे। उसके गुणों और बातों से दादी को कुछ सुकून मिलता। पढ़ाई में मेधावी प्राची हर कक्षा में प्रथम स्थान पाती। उसकी उपलब्धियों पर पापा और दादी को गर्व होता।
“हे भगवान! यह क्या कर दिया तूने? यह दिन दिखाने से पहले मुझे उठा लेता।” दादी के रोने-चिल्लाने की आवाज़ से एक सुबह प्राची की नींद खुली। उसके पापा को भयंकर एक्सीडेंट ने छीन लिया था।
“पापा उठो ना। आज हमें बड़े स्कूल जाना है।” प्राची की आवाज़ पापा सुन नहीं पा रहे थे। छठी कक्षा में प्रवेश को उत्सुक बच्ची अनाथ हो गई थी।
“हम बिस्तर पर पड़ी अम्मा को संभालें या इस भाग्यहीन को।” चाचा-चाची ने प्राची को अपने पास रखने से मना कर दिया था।
“मां, आप चिंता न करें। मैं इसे अपने साथ ले जाऊंगी।” प्राची की बुआ रीना ने अपनी अम्मा को ढांढस बंधाया। समझदार प्राची को लेकर बुआ के मन में स्वार्थ की भावना उत्पन्न हो गई थी।
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रीना बुआ की ससुराल में क़दम रखते ही प्राची पर व्यंग्यबाण बरसाने वाली बुआ की सास अपनी बहू की बुद्धि की कायल हो उठी। सास-बहू की जोड़ी को प्राची के रूप में बिना वेतन की आज्ञाकारी कामवाली बाई मिल चुकी थी।
“इस भाग्यहीन ने हमारे भाग्य के द्वार खोल दिए हैं।” बुआ की सास अक्सर इठलाती।
भाग्यहीनता प्रतिभा को नहीं छीन सकती। क्या हुआ अगर बुआ ने प्राची को स्कूल नहीं भेजा। उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति, सीखने की ललक और धैर्य के आगे भाग्य बौना साबित होने लगा।
बुआ के हम उम्र बच्चों को शिक्षक घर पर ट्यूशन पढ़ाने आते थे। पांचवी कक्षा की पुस्तक में ‘एकलव्य का पाठ’ पढ़ चुकी प्राची ने यह अवसर न गंवाया। वह दूर से ही सब ध्यान से सुनती व सीखती रही। मौका पाकर वह किताबें भी पढ़ लेती थी। इसी तरह वर्ष बीतने लगे।
“बहू, बारिश तो रुक ही नहीं रही है। आज पकोड़े खाने का बहुत मन हो रहा है।” एक दिन माँ जी ने कहा तो बुआ ने पास की दुकान से बेसन लाने के लिए प्राची को भेज दिया।
प्राची घर की ओर वापस आ रही थी तो उसने अचानक एक ऑटो रिक्शा को फिसलते हुए देखा। अंदर बैठा छोटा बच्चा सिर के बल पक्की सड़क पर गिरने ही वाला था कि दौड़कर प्राची ने बचा लिया। पर प्राची का पैर पहिए के नीचे आकर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। भाग्यहीनता ने उसका पीछा करने की कोशिश ज़ारी रखी।
“पापा अगर दीदी ना होती तो मैं बच न पाता।” मोनू ने अपने पापा, राकेश जी से कहा जो एक प्रशासनिक अधिकारी थे। वे प्राची के प्रति कृतज्ञता के भाव से भर गए। उन्होंने उसके पैर का अच्छे से अच्छा इलाज़ करवाया। पर कुछ कमी उसमें हमेशा के लिए रह गई।
“अंकल, मैं पढ़ना चाहती हूँ। बड़े होकर एक स्कूल खोलना चाहती हूँ जहाँ गरीब, अनाथ और बेसहारा बच्चों को निशुल्क शिक्षा मिले।” प्राची ने अपनी इच्छा व्यक्त की, क्योंकि राकेश जी ने उसे मुंह मांगा इनाम देने का वादा किया था।
“बच्ची के भाग्य के साथ खिलवाड़ करना तुम्हें बहुत भारी पड़ेगा।” प्राची की सारी वस्तुस्थिति जानकर बुआ के परिवार को राकेश जी ने सजा दिलवाने की धमकी दी। प्राची को उन्होंने कानूनी रूप से गोद ले लिया था।
“अरे मोनू! देखो, प्राची 12वीं कक्षा में जिले में प्रथम आई है। तुम्हें भी अपनी प्राची दीदी जैसा बनना है।” राकेश जी अख़बार में आई प्राची की फोटो मोनू को दिखाते हुए बोले।
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पिछले 2-3 वर्षों को याद करते हुए राकेश जी अपनी पत्नी से कहने लगे, “कितने भाग्यशाली हैं हम कि प्राची जैसी गुणवान लड़की हमें बेटी के रूप में मिली। पांचवीं के बाद कभी स्कूल न जाने वाली प्राची को दसवीं की परीक्षा ओपन स्कूल से देनी पड़ी थी। उसके बाद 11वीं में साक्षी को स्कूल में प्रवेश दिलवाया था और आज…….।” उनकी आंखों में ख़ुशी के आंसू थे।
अपने नए परिवार से प्यार, दुलार पाते हुए प्राची ने खुलेआम अपने भाग्य को चुनौती दे दी थी। उसकी लग्न, एकाग्रता और परिश्रम के समक्ष भाग्य ने घुटने टेक दिए थे। प्राची रुकने वाली नहीं थी, बल्कि उसकी गति दिन प्रतिदिन बढ़ती गई। एमएससी मनोविज्ञान में तो उसने विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान अर्जित किया।
अपने भाग्य को सद्कर्मों और दृढ़ संकल्प से पटखनी देते हुए, आत्मविश्वास से दमकती प्राची अब नवनिर्मित स्कूल के प्रांगण में खड़ी थी। पिता ने अपना वादा खुशी से निभाया था तो सरकार और समाजसेवी संस्थाओं ने भी सहयोग व अनुदान दिया था। उसके माता-पिता व भाई मोनू के चेहरे स्पष्ट रूप से बता रहे थे कि उन्हें प्राची पर गर्व तो है ही, वह उनकी आदर्श भी है।
प्राची का सपना पूरा हो गया था। आज स्कूल का उद्घाटन था। शहर के बड़े-बड़े अधिकारी वहाँ उपस्थित थे। सबकी ज़ुबान पर केवल एक ही नाम था- ‘प्राची’। उसने न केवल इस दुनिया में अपनी जगह बनाई थी, बल्कि अपने जैसे दूसरों के सपनों को पंख देने के लिए भी एक जगह बनाई थी।
निशुल्क प्रवेश के पात्र सभी बच्चों को प्राची ने प्रेरित किया, “जीवन के संघर्ष हमें ताकत देते हैं। हम सब मिलकर उस ताकत का प्रयोग करेंगे। परिश्रम से स्वयं को संवारेंगे और अपना भाग्य स्वयं लिखेंगे।”
-सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)
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