भाभी मां – सीमा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

“ये भाभी भी ना! … अब क्यों मुझे बार-बार फोन कर रही हैं? बाइक की चाबी भाभी को सौंप तो दी है! अब क्या चाहती हैं कि मैं हमेशा उनका गुलाम बनकर रहूं जैसे मेरा कोई अस्तित्व ही ना हो?” चिढ़ते हुए मैंने भाभी का फोन काटकर मीनू को फोन मिला दिया।

पर यह क्या? दसों बार फोन करने पर भी मीनू फोन नहीं उठा रही है। यह तो हमेशा मेरे साथ घूमने-फिरने को आतुर रहती है। अब उसे क्या हो गया है? कहीं उसकी तबीयत तो ठीक नहीं?

दो घंटे से कॉलेज की कैंटीन के बाहर उसकी प्रतीक्षा कर रहा मैं अधीर होकर उसके हॉस्टल की ओर चल दिया। जैसे ही मैं कैंटीन और हॉस्टल को जोड़ने वाली मुख्य सड़क पर पहुंचा, मीनू मेरे अन्य सहपाठी ‘सक्षम’ के साथ गलबहियां कर, उसकी बाइक पर बैठी, बेशर्मी से मुझे ‘Bye bye bhabhi’s boy’ कहकर चली गई।

अर्श से फर्श पर गिरा मैं! मेरे गिरने की आवाज भले ही किसी ने न सुनी हो, पर ‘bhabhi’s boy’ ये ‌‌आवाज मेरी आत्मा को बहुत गहराई तक भेद रही थी। किसी तरह मैं आगे बढ़कर एक बेंच तक पहुंचा। मेरा सिर बहुत ज्यादा दर्द से चकराने लगा। “हमेशा की तरह मेरा सिर दबाओ ना, भाभी मां! भाभी मां!” कहां हैं आप?” मेरी ये छटपटाहट, भाभी की यादें मुझे बहुत पीछे ले जाती हैं…

मेरी भाभी सरला जब ब्याह कर आईं थीं, 20 साल की थी। तब 12 साल का, मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था। इसके दो साल पहले मां की मृत्यु से घर बिल्कुल बिखर गया था और उससे भी ज्यादा मैं बिखर गया था। पिता जी और भैया तो बड़े थे, दोनों स्वयं को संभाल लेते थे। लेकिन मैं गुमसुम सा, मम्मी को याद करता रहता और पढ़ाई में भी पिछड़ गया था।

हमारे गाँव की परंपरा के अनुसार, भाई की शादी के बाद एक रस्म हुई ‘देवर-भाभी की गोदी चढ़ाई’। जब मुझे भाभी की गोद में बिठाया गया, तो भाभी ने मुझसे पूछा था, “अमन, तुम्हें उपहार में क्या चाहिए?” मैंने जवाब दिया था, “भाभी, जो भी आप खुशी से दें।” तो भाभी ने कहा था, “मैं तुम्हें आजीवन अपना बेटा बना कर रखूंगी। तुम मुझे ‘भाभी मां’ कहकर पुकारोगे ना?” हां कहते हुए मैं खुश होकर भाभी से लिपट गया था।

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भाभी मां के लाड़ प्यार और देखभाल ने मेरी सेहत में सुधार किया। अब मैं हमेशा खुश रहता था और स्कूल से घर आते ही चहक-चहक कर स्कूल की सारी गतिविधियाँ भाभी को सुनाता और भाभी भी मेरी बातों को बड़े ध्यान से सुनतीं। भाभी मेरी सबसे अच्छी दोस्त बन गईं।

भाभी मेरा हर तरह से ख्याल रखती लेकिन उनकी आदत थी कि उन्हें मेरा थोड़ा सा भी अनुशासनहीन ‌ होना स्वीकार नहीं  था। सर्दी के मौसम में कभी मेरा स्कूल जाने का मन न होता तो भाभी मुझे रजाई से बाहर निकालकर स्कूल भेजकर ही दम लेतीं।

सातवीं कक्षा की परीक्षा में मैं बहुत कम अंकों से उत्तीर्ण हुआ तो उन्होंने मुझे पढ़ाने की जिम्मेदारी भी ले ली, “अमन, अब तुम मुझसे रोज दो घंटे पढ़ाई करोगे।” 

मैंने कहा, “भाभी मां, लेकिन आप तो दसवीं तक ही पढ़ी हैं। आठवीं का कैसे पढ़ा पाओगी?” तो उन्होंने जवाब दिया, “अमन, आठवीं पास करके ही तो दसवीं पास की है मैंने। आठवीं का सब आता है मुझे।” और सच में, भाभी की सब विषयों पर अच्छी पकड़ से मैं हैरान हो गया था।

मैंने भाभी से पूछा, “भाभी मां, आप तो बहुत होशियार हैं। फिर आगे क्यों नहीं पढ़ी?” तब भाभी ने अपनी आंखों में नमीं के साथ कहा था, “मुझे बहुत इच्छा थी पढ़ने की। 10वीं कक्षा में मेरे 76 प्रतिशत अंक आए थे। लेकिन हमारे गांव में स्कूल दसवीं तक ही था और पिताजी ने बाहर भेजने की अनुमति नहीं दी।”

भाभी ने अपने अश्रु पोंछते हुए मुझसे कहा, “अमन, तुम पढ़-लिखकर उच्च पद तक पहुंचना। मैंने तुम्हें अपना बेटा बनाया है तो तुम अपनी भाभी मां की ये इच्छा पूरी करोगे न?”

मैंने भाभी मां से मन लगाकर पढ़ने का और उनकी इच्छा पूरी करने का वादा किया। भाभी मां मेरी पढ़ाई में मदद करती रही और दसवीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते मैं भी भाभी की तरह होशियार हो गया। मैंने दसवीं कक्षा में 81% अंक प्राप्त किए। 

जब मैं ग्यारहवीं कक्षा में हुआ, तो भाभी एक प्यारी सी गुड़िया चारू की मां बन चुकी थीं। लेकिन फिर भी भाभी मेरी पुस्तकें मनोयोग से पढ़तीं। उनका  ऐसा रूझान देखकर मैंने उन्हें प्राइवेट कैंडीडेट के तौर पर परीक्षा देने की सलाह दी। 

जो पाठ मैं स्कूल से पढ़कर आता, उसे भाभी के साथ बैठकर दोहराता। पिताजी की, भैया की, छोटी गुड़िया की, मेरी और घर की अनेक जिम्मेदारियां होने के बावजूद भाभी ने 12वीं कक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। भाभी का जज्बा कमाल का था। इसके बाद भाभी छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने लगीं।

हमारे गांव में कोई कॉलेज नहीं है। भाभी की प्रेरणा से गांव से 12 किलोमीटर दूर शहर के डिग्री कॉलेज में मैंने प्रवेश ले लिया। वहां पहुंचने के लिए दो बार बस बदलनी पड़ती थी। बसें प्रायः निश्चित समय पर भी नहीं आती थीं। दूसरा विकल्प साइकिल से जाना था। दोनों ही तरीके न केवल मुझे थका देते थे, बल्कि कॉलेज और घर दोनों जगह मेरी पढ़ाई पर विपरीत प्रभाव डाल रहे थे। 

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ऊपर से कॉलेज का नया माहौल, शहरी तौर-तरीके, नये सहपाठी, पियर प्रेशर, गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड बनाने का ट्रेंड, रोज-रोज पार्टी, डिस्को आदि-आदि मुझमें मिश्रित भावनाएं उत्पन्न कर रहे थे। 

पहले की तरह मैं भाभी से अपने कॉलेज की सारी बातें भी शेयर करता था। भाभी मुझे समझातीं, “बदलाव तो जीवन का नियम है। जो भी नई चीज हमारे हित में है, उसे अपना लो। जो चीज हमें गलत रास्ते की ओर अग्रसर करती हो, उसे वहीं छोड़ दो।‌ कॉलेज में तुम्हारा दायरा बढ़ रहा है ये तो अच्छी बात है। इससे तुम अधिक लोगों के विचार जान पाओगे जिससे तुम्हारा बौद्धिक विकास होगा।” 

इस तरह भाभी मुझे हौसला देतीं। भाभी मेरी सबसे अच्छी दोस्त और सलाहकार बनी रहीं। भाभी ने मुझे ये भी आश्वासन दिया कि मैं फर्स्ट ईयर में अच्छे अंक ले आऊं तो वे ईनाम के तौर पर भैया से कहकर मुझे मोटरसाइकिल दिलवाने का पूरा प्रयास करेंगी।

फर्स्ट ईयर में मैंने फर्स्ट डिवीजन तो हासिल कर ली लेकिन अधिक अच्छे अंक न ला सका। मोटरबाइक मिलना तो अब दूर का सपना था। वैसे भी हमारे घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं थी लेकिन भैया की आय इतनी अधिक नहीं थी कि मेरी कॉलेज की फीस, पुस्तकों आदि के अलावा भी बहुत खर्च कर सकें। पिताजी ने तो कब से काम करना छोड़ दिया था।

सेकंड ईयर की कक्षाएं शुरू होने वाली थीं। तभी मेरा जन्मदिन आया। पापा और भैया ने हैप्पी बर्थडे कहते हुए मुझे एक गिफ्ट दिया। “इसे बाहर चलकर खोलना” उन्होंने कहा। 

मैं बाहर आया तो नयी चमचमाती मोटरसाइकिल के पास भाभी चारू के साथ हाथ में थाली लिए खड़ी थीं। इधर मैंने गिफ्ट खोला, बाइक की चाबी निकली। सबने एक साथ बोला, “सरप्राइज! हैप्पी बर्थडे!” मैं भावविभोर हो गया। भाभी ने चार साल की हो गई चारू से बाइक पर स्वास्तिक बनवाया।

मैं अब बाइक से कॉलेज जाने लगा। समय बचने लगा और थकान भी कम होने लगी। भैया भी अब मुझे पढ़ाई के लिए प्रेरित करने लगे थे। इंटरनल असेसमेंट्स में मेरे अच्छे अंक आए। मेरे दोस्तों की संख्या भी बढ़ने लगी। लड़के-लड़कियां अक्सर एक साथ कॉलेज के कैफे और कैंटीन जाते थे। मेरी सहपाठी मीनू मुझसे कई बार नोट्स मांगने लगी और पढ़ाई में भी मदद मांगने लगी।

भाभी से मैं हर बात शेयर करता ही था। तो मीनू के विषय में बताते हुए मैंने भाभी से पूछा था, “भाभी, क्या मैं मीनू की मदद कर दूं? किसी लड़की से मित्रता करना क्या ठीक होता है?”

भाभी ने कहा, “लड़का हो या लड़की, स्वस्थ मित्रता किसी से भी की जा सकती है। जरूरत के समय सहायता करना और पढ़ाई में एक-दूसरे का सहयोग करना बहुत अच्छी बात है। बस हमें अपने संस्कारों, मूल्यों और अपने लक्ष्य को हमेशा याद रखना चाहिए।”

मीनू का गांव कॉलेज से बहुत दूर था। इसलिए वह हॉस्टल में रहती थी। घर से दूर रहने में कई परेशानियां आती हैं। मीनू मुझे कोई भी तकलीफ़ बताती, मैं हर समय उसके लिए तैयार रहता। कभी उसे सामान दिलवाने तो कभी उसके नोट्स फोटोकॉपी करवाने आदि के लिए उसके कहने पर उसे बाइक पर बिठाकर ले जाता। 

एक दिन उसने कहा, “आज हॉस्टल में खाना ख़त्म हो गया तो मुझे बहुत भूख लगी है। तुम मुझे बाहर खाना खिलाने ले चलो।” फिर ऐसा कई बार होने लगा। धीरे-धीरे वह बहुत ज्यादा मेरे साथ रहने लगी। मुझे भी उसकी आदत हो गई। फिर एक दिन उसने कहा, “अमन, मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकती। मुझे तुमसे प्यार हो गया है।” जल्दी से मेरे मुंह से भी निकला, “आई लव यू टू, माई डियर मीनू।”

भाभी को मैंने सब सच-सच बता दिया। भाभी ने कहा, “ओह अमन! तो ये बात है। मैं स्वयं भी देख रही थी कि तुम अब खोये-खोये रहने लगे हो। सेकंड असेसमेंट्स में तुम्हारे मार्क्स भी कम आए हैं। तो तुम मीनू से मुझे कब मिलवा रहे हो?”

“भाभी, जब आप कहें। कल ही ले आऊं।” भाभी की हां सुनते ही, अगले ही दिन मैं मीनू को अपने घर ले गया भाभी मां, नमस्ते कहते हुए वह भाभी से लिपट गई, “अमन आपकी बहुत तारीफ करता है, भाभी।” सुनकर मैं बहुत खुश हुआ।

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भाभी ने उसे बिठाया। लंच करवाया और बातें करनी लगी, “अपने बारे में कुछ बताओ, मीनू?”

“अमन की दीवानी! बस यही मेरा परिचय समझ लो, भाभी।” कहते हुए मीनू ने मेरे गले में बाहें डाल दीं।

मैं थोड़ा शरमाते हुए भाभी से बोला, “वो भाभी मां, मैंने इसे बताया था कि आप मेरी बहुत अच्छी दोस्त हैं तो इसलिए आपसे ऐसे बात कर रही है।”

फिर भाभी ने कहा, “अपने माता-पिता के बारे में कुछ बताओ, मीनू?”

मीनू कहने लगी, “बस उनकी तो बात ही मत कीजिए, भाभी। वे बहुत दकियानूसी हैं। उन्हें मेरा लड़कों से दोस्ती करना बिल्कुल भी पसंद नहीं है। मैं तो अब कभी उनके पास नहीं जाना चाहती।”

भाभी ने उसे समझाया, “मीनू, तुम मेरी छोटी बहन जैसी हो, इसलिए कह रही हूं कि अपने माता-पिता के बारे में ऐसा नहीं सोचते। सभी सुविधाएं देकर उन्होंने तुम्हें पढ़ने के लिए बाहर भेजा है।”

मीनू ने उत्तर दिया, “पर भाभी, उन्होंने मुझे जन्म दिया है तो ये तो उनका फर्ज है।”

भाभी ने फिर कहा, “मीनू, इसी तरह तुम्हारा भी कर्तव्य है कि तुम अपने माता-पिता का सम्मान करो।”

मीनू बोली, “क्या भाभी, आप तो भाषण देने लगीं।”

 भाभी ने पूछा, “अच्छा ये बताओ,  तुम्हारे शौक और लक्ष्य क्या हैं?” 

“बड़ा घर और खूब सारा पैसा, भाभी। जिससे मैं अपना घूमने-फिरने का शौक पूरा कर सकूं। ठीक है न, अमन।” मेरे हाथ पर अपना हाथ रखते हुए मीनू ने कहा।

भाभी ने फिर समझाया, “इतना पैसा कमाने के लिए बहुत मेहनत करनी होगी, मीनू। मैं चाहती हूं कि तुम दोनों पढ़ाई में खूब मेहनत करो।”

मीनू चिढ़ छिपाते हुए बोली, “भाभी, आप तो बार-बार ज्ञान देने लगती हैं। चलिए अपना घर तो दिखा दीजिए।”

भाभी ने उसे पूरा घर दिखाकर पूछा कि कैसा लगा तो वह बोली, “अच्छा है भाभी! लेकिन मैं तो सोच रही थी कि आप लोग काफी अमीर हैं और आप लोगों का थोड़ा बड़ा शहरी तरीके का घर होगा।” 

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चाय पिलाने के बाद भाभी ने मुझे मीनू को हॉस्टल छोड़कर आने के लिए कहा। मैंने घर वापस आकर भाभी से पूछा, “भाभी, अब बताइए आपको मीनू कैसी लगी?” 

तो भाभी ने कहा, “अमन, क्या तुम मीनू के बड़े-बड़े शौक पूरे कर पाओगे?”

“मैं अकेला थोड़ा न हूं भाभी! मीनू और मैं दोनों मिलकर कमाएंगे न।” मैंने कहा।

भाभी: “उसके लिए मन लगाकर पढ़ना होगा न!”

मैं: “तो भाभी मैं पढ़ ही तो रहा हूं।”

भाभी: “फिर अगली बार अंक कम नहीं आने चाहिएं।”

 मीनू के प्यार में अंधा हुआ मैं, भाभी से बोला, “भाभी मुझे लगा था कि आप मीनू की प्रशंसा करेंगी। लेकिन आप तो कुछ कह ही नहीं रही।”

भाभी बोली, “क्या तारीफ करूं अमन? पात्र की प्रशंसा तो स्वयं ही हृदय से निकलती है। मीनू का अपने माता-पिता के बारे में ऐसा कहना मुझे अच्छा नहीं लगा।”

“भाभी, वैसे तो आपको वह अपना दोस्त मानकर निश्छल मन से बता रही थी। फिर भी मैं उसे समझा दूंगा।” मैंने भाभी से कहा।

भाभी थोड़े रोष से बोलीं, “अमन, दोस्तों के सामने क्या अपने माता-पिता की बुराई की जाती है? मैंने तुम्हें कहा था न कि अपने संस्कारों को हमेशा याद रखना।”

अब मैं कुछ और न बोलकर अपने कमरे में चला गया।

अगले दिन मैंने मीनू को खुद से कटा-कटा पाया। उसने भाभी के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर की। मैंने उसे मनाते हुए कहा, “भाभी ने कुछ ग़लत नहीं किया। जैसे वे मुझे समझाइश देती हैं, वैसे ही तुम्हें भी दी। फिर भी मैं भाभी से बात करूंगा।”

सच में मुझ पर कॉलेज की हवा का असर था या मीनू की संगति का, मैं घर जाकर भाभी से बोला, “भाभी, आपको मीनू से इस तरह बात नहीं करनी चाहिए थी। वह मुझसे बहुत नाराज़ है।”

भाभी ने कहा, “अगर वह इतनी सी बात से नाराज़ है तो उसे नाराज़ ही रहने दो। अमन क्या हो गया है तुम्हें, सब कुछ छोड़कर अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो।”

“भाभी आप नहीं चाहती कि मैं मीनू से प्यार करूं, तो प्लीज़ आप सीधा सीधा बताइए।” मैंने कहा।

भाभी बोलीं, “हां, क्योंकि वह तुमसे प्यार नहीं करती, बल्कि तुम्हारी बाइक की वजह से तुम्हें यूज़ करती है।”

मैं गुस्से में आ गया, “भाभी ऐसा मत कहिए। अब मैं छोटा बच्चा नहीं हूं, अपना अच्छा-बुरा सब समझता हूं। मैं आपका सब कहना मानता हूं और आप….।”

भाभी बोलीं, “अमन मुझे पता है कि अब तुम बड़े हो गए हो। स्वयं ही समझ लोगे। इसीलिए मैं तुम्हें सीधा सीधा नहीं कहना चाह रही थी बाइक वाली बात।”

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“हां तो भाभी कह दीजिए न कि मैं बाइक की चाबी आपको वापस दे दूं।” मैंने बाइक की चाबी भाभी को दे दी।

आज कई महीनों बाद बस से कॉलेज गया और मैंने मीनू को सब सच बता दिया कि आज बाहर नहीं जा पाएंगे। इसलिए कॉलेज की कैंटीन में ही एक साथ लंच करेंगे। 

कैंटीन, कैंटीन! बोलते हुए मैं होश में आया और मीनू की मेरा मजाक उड़ाती ‘bhabhi’s boy’ वाली आवाज फिर से मेरे कानों को भेदने लगी। मैंने अपने आप को कॉलेज के बेंच पर पड़ा पाया। और मुझे स्वयं से ग्लानि होने लगी कि मैं अपनी भाभी मां के बारे में क्या-क्या सोच रहा था!

किसी तरह स्वयं को समेटकर मैं घर पहुंचा। भाभी मां बाहर ही खड़ी थीं। जैसे ही भाभी के चरणों में झुककर मैंने कहा, “भाभी मां।” भाभी ने मुझे उठाकर अपने गले से लगा लिया, “मेरे बेटे, मुझे पता था कि तुम लौट आओगे। न तो मेरा बेटा इतना कच्चा है और न ही उसकी मां। मां-बेटे का ये बंधन बहुत मजबूत है।” 

“आप सही थीं भाभी मां। अब मैं आपका बेटा कहलाने के लायक नहीं हूं। क्या आप मुझे माफ़ कर देंगी।” मैं रोते हुए बोला।

“हां। लेकिन एक शर्त पर। कल से तुम बाइक पर ही कॉलेज जाओगे।” भाभी मां ने प्यार से कहा।

पीछे से भैया मुझे बाइक की चाबी पकड़ाते हुए बोले, “पता है तुम्हारी भाभी ने ट्यूशन पढ़ाकर इकठ्ठे किए हुए पैसे देते हुए मुझे कहा था कि बाकी पैसे खुद मिलाकर अमन के लिए बाइक लेकर आओ। मैं नहीं चाहती कि इस सुविधा के अभाव में उसकी प्रतिभा पर आंच आए।”

“भाभी मां, बाहरी दुनिया की चमक में भटककर आपको कितना गलत समझने लगा था मैं। आपके त्याग को नहीं समझ पाया मैं।” मुझे आत्मग्लानि हो रही थी।

 “अमन मुझे खुशी है कि मैं मां का फर्ज सही से निभा पाई। उस  दिन मीनू को बुलाने का और आज बाइक की चाबी तुमसे लेने का मेरा उद्देश्य केवल इतना था कि अपने बेटे को भटकने से पहले ही सही मार्ग पर ले आऊं।” मेरे आंसू पोंछते हुए भाभी मां ने कहा।

“मैं समझ गया हूं, भाभी मां। अब मैं आपको वचन देता हूं कि कभी अपने लक्ष्य से, संस्कारों से और आपके सिखाए मूल्यों से कभी नहीं भटकूंगा।” मैंने भाभी को वचन दिया।

उस दिन से मैं अपनी भाभी मां, मित्र और सच्ची मार्गदर्शिका के निर्देशन में दिन प्रतिदिन निखरने लगा और सफलता की सीढ़ियां चढ़ने लगा।

– सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)

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