बेटों का फरेब – शिव कुमारी शुक्ला  : Moral Stories in Hindi

रामप्रसाद जी तेल के व्यवसायसी थे और उनका अच्छा खासा जमा-जमाया कारोबार था वे अपनी पत्नी कविता एवं दोनों बेटों अरूण एवं वरूण के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर रहे थे। दोनों बेटे मानो उनकी दोनों आंखें थे, जिनमें न जाने कितने सुखद सपने संजोए हुए थे। बेटों को लेकर न जाने क्या क्या सपने बुन रखे थे, मम्मी-पापा ने। उनके जीवन का ध्येय यही था कि जो पढ़ाई लिखाई वे न कर सके वह उनके बेटे अच्छे से कर लें और ऊंचे ओहदे पर नौकरी पाऐं।

बच्चे भी पढ़ने लिखने में होशियार निकले। प्रथम श्रेणी में पास होना, अन्य गतिविधियों में भाग लेना, खूब इनाम जीतना। मम्मी-पापा उनकी इस सफलता से फूले नहीं समाते।जब भी वे कोई इनाम जीत कर आते उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता। उनके मिलने वाले, रिश्ते दार सब कहते रामप्रसाद आपके बच्चे तो बड़े ही होनहार हैं। सुन कर उन्हें ऐसा लगता मानो सारे जहां की खुशीयां उनकी झोली में आ गिरी।

पढ लिखकर दोनों बेटे इंजीनियर बन गए। अच्छे पैकेज पर एम एन सी में नियुक्ति मिल गई।दो बर्ष के अन्तराल में ही उन्होंने खूब धूम धाम से दोनों बेटों की शादी कर दी। शादी के बाद से ही उनका मन बदलने लगा और वे अपने अपने परिवार में ही मग्न हो गये। मम्मी-पापा को ज्यादा पूछते भी नहीं। धीरे -धीरे आना भी कम कर दिया, कभी कभार फोन कर लेते बस। ऐसे ही सात साल निकल गए। दोनों के दो-दो बच्चे भी हो गये।

अब उनकी नजर मम्मी पापा के मकान पर थी।कारण वे बैंगलोर में फ्लैट लेना चाह रहे थे सो उनकी सोच थी कि कोटा में इतना बड़ा मकान है। मम्मी-पापा को अब क्या जरूरत है इतने बड़े मकान की यदि वह बेच दिया जाए तो अच्छी खासी रकम मिल जाएगी तो उन्हें फ्लैट खरीदने के लिए लोन कम लेना पड़ेगा।

सो एक दिन दोनों सपरिवार आ गये और खूब हंसी खुशी सप्ताह भर रहे। फिर बोले आप भी हमारे साथ चलो थोड़ा चेंज हो जाएगा। मम्मी-पापा बच्चों को देख निहाल हो गये और पोते -पोती के साथ रहने को उनका वृद्ध मन मचल उठा। वे उनकी मनमोहक क्रिडाओं से इतने मुग्ध हो गये कि उनके साथ जाने से अपने को रोक नहीं पाए।

वहां ले जाकर उनका खूब ध्यान रखा, घूमाना फिराना, शापिंग करवाई, ऐसे व्यवहार कर रहे थे जैसे हलाल करने से पहले बकरे को खिलाया पिलाया जाता है। खुशी -खुशी महिने भर रहकर लौट आए। यहां आने पर भी उनका मन उन्हीं छोटे बच्चों में अटका रहता।

बेटों ने अपनी योजनानुसार प्रॉपर्टी डीलर से बात कर ली और उसे पापा को बताने से मना कर दिया।अब  फिर चार माह बाद दोनों बेटे अकेले ही आए और बोले पापा हम आपको लेने आए हैं, यहां कब तक अकेले रहोगे आपके दो बेटे हैं हमारे साथ आराम से रहो,कब तक काम करोगे बंद करो यह सब।हम अच्छा कमा रहे हैं आपको काम करने की जरूरत नहीं है अब।

पापा बोले ऐसे कैसे चल सकते हैं ,मेरा कारोबार फैला है उसे समेटने को समय चाहिए। फिर मकान का भी देखना पड़ेगा कोई किरायेदार रख देंगे।

पापा आप अपना काम समेट लो किरायेदार की जरूरत नहीं है।जब आप हमारे साथ रहेंगे तो यहां मकान का क्या करेंगे इसको बेच देंगे यहां बार-बार कौन सम्हालने आएगा। फिर वे चले गए।

पापा बेटों के झांसे में आ गए उन्होंने बिजनेस समेटने का मन बना लिया और प्रक्रिया शुरू कर दी। फिर चार माह बाद बेटे आ गये तब तक उन्होंने मकान बेचने की पूरी तैयारी कर ली थी सो आनन-फानन में सामान पैक कर बैंगलोर भिजवा दिया और मकान बेच दिया। पूरा पैसा अपने कब्जे में ले लिया।

अब बैंगलोर पहुंचने के बाद बताया कि वे फ्लैट खरीद रहे हैं पैसों की आवश्यकता थी सो मकान बेच दिया।यह सुन रामप्रसाद जी को एक बारगी धक्का लगा कि बेटों ने उनके साथ फरेब किया किन्तु चुप लगा गये यह सोचकर कि अब हमें भी तो यहीं रहना है सो मकान का क्या करते ठीक है बच्चों को मदद मिल गई।

किन्तु उनका यह सपना शीघ्र ही चकनाचूर हो गया कारण तीन माह तो बड़े ही हंसी -खुशी से बीते। दोनों बेटों के यहां खूब मान-सम्मान मिला।अब उनके चेहरों से नकाब उतर गया और उन्होंने शतरंज की गोटियां चलनी शुरू कर दीं , क्योंकि जिस मकसद से उन्हें यहां लाया गया था उस पर तुरंत अमल करने के लिए उनकी पत्नियां बेताब थीं।

एक दिन बडा बेटा बोला पापा आज के जमाने में दो व्यक्तियों का भार उठाना मुश्किल हो रहा है। मंहगाई सुरसा के मुख की तरह बढ़ती जा रही है सो मैंने और वरूण ने सोचा है कि हम बारी-बारी से आपको और मां को अपने पास रखेंगे सो अभी मां मेरे पास रहेंगी और कल वरूण आकर आपको ले जाएगा ।

यह सुन रामप्रसाद जी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। शब्द उनके मुंह से नहीं निकल रहे थे वे हकलाते से बोले ये तू क्या कह  रहा है अरूण तुझे भान भी है भला हम लोग अलग कैसे रह सकते हैं। मैं तो तेरी मां के बिना कुछ नहीं कर सकता यह संभव नहीं है।

पापा आपके कहने से क्या होता है खर्च तो हमें करना है सो जैसा हम कहेंगे आपको रहना पड़ेगा। मम्मी के बिना रहने की आदत डाल लें।इस उम्र में आपको करना क्या है दो रोटी खाओ और पड़े रहो वो आपको मिल जाया करेंगी उसमें मम्मी की क्या आवश्यकता है। वहीं मम्मी भी बैठीं थीं उनकी आंखों से आंसू बह निकले अलग होने के सोचने भर से। ये मेरे कैसे बेटे हैं जो जीते जी मां-बाप को एक दूसरे से जुदा कर रहे हैं। दूसरे दिन वरुण आकर उन्हें अपने साथ ले गया।असल में दोनों की पत्नियों ने सुझाया था कि हम इन्हें मुफ्त में खाना खिलायें और कामवाली को भी पैसे दें। पापा साथ रहेंगे तो मम्मी उनकी देखभाल में लगी रहेंगी तो काम कब करेंगी इसलिए यह कुटिल चाल रची गई थी। पापा के जाने के बाद दूसरे दिन से काम वाली को एक माह के लिए आने को मना कर दिया और मम्मी पर सारा काम डाल दिया। दोनों बहुएं उनसे काम लेना चाहती थीं सो यह निर्णय लिया गया कि एक -एक महीने दोनों काम करायेंगी उस समय पापा दूसरे के पास रहेंगे।

कविता जी बी पी एवं शुगर की मरीज थीं। इतना काम उन्होंने कभी नहीं किया था और खाना एवं दवाइयां भी समय से न मिलने पर उनकी हालत खराब होने लगी।वे लोग मम्मी-पापा को फोन पर अकेले में बात नहीं करने देते। दोनों परेशान रहते एक दूसरे की चिन्ता में। फिर सोचा एक महिने की बात है जैसे -तैसे कट जाएगा वरुण के घर जाकर आराम से रहूंगी। मातृ स्नेह सिक्त उनका हृदय बेटे-बहुओं की कुटिल चाल को समझ ही नहीं पाया। पापा को भी खाना ढंग से नहीं देते।रुखा-सूखा बासी खाना कमरे में ही पहुंचा दिया जाता।

एक माह बाद अरुण मां को वरुण के यहां छोड आया और पापा को स्वयं ले आया।

वरुण के यहां भी वही हालत देख वे घबरा उठीं।बहू सारा दिन मौज-मस्ती में रहती कभी शापिंग, कभी किटी पार्टी, कभी पिक्चर, कभी पिकनिक और पूरी गृहस्थी का बोझ कविता जी के कंधों पर।वे बीमार पड़ गईं । पापा का भी वही हाल था जो वरुण के यहां था।

अभी बीस दिन ही हुए होंगे कविता जी की ज्यादा तबीयत खराब होने पर उन्होंने जिद पकड़ ली पापा को बुलाओ मैं उनसे मिलना चाहती हूं।उनकी जिद के आगे बेटे-बहू को झुकना पड़ा।

जब पापा वरुण के यहां आए और कविता जी की हालत देख कर उन्होंने तुरंत निर्णय लिया अभी के अभी हमारे टिकट कराओ और हमारा सामान वापस भिजवाओ,हम बापस कोटा जा रहे हैं।अब एक दिन भी यहां रुकना गवारा नहीं है।

आखिर वे बापस आ गये। घर तो अब रहा नहीं था सो किराए का मकान ढूंढ उसमें अपना सामान रखा।वो तो ये अच्छा था कि उन्होंने अपनी जमा पूंजी बेटों के हवाले नहीं की थी। उससे वापस अपना काम शुरू किया। दोनों बदहवास से थे सोच नहीं पा रहे थे कि उनके अपने खून ने उनके साथ इतना बड़ा फरेब किया। अपनी मां को नौकरानी बना दिया।उस मां को जिसने अपने रक्त और दूध से सींचकर इन्हें इतना बड़ा किया।न दिन का चैन देखा न रातों की नींद।खुद गीले में सो इन्हें सूखे में सुलाया। कविता जी के बारे में सोच रामप्रसाद जी की आत्मा तड़प उठती। दोनों बहुत दुखी थे किन्तु मां -बाप थे सो बच्चों को कोस तो नहीं सकते थे, लेकिन उनके अन्तर्मन से जो हाय निकलती उसका असर जरुर पड़ेगा। भगवान की लाठी में आवाज नहीं होती किन्तु उसकी चोट से कोई बच नहीं पाता। उन्होंने मुश्किल से खुद को समेटा ।इस सब को दुस्वप्न समझ भुलाने की चेष्टा करते फिर से अपना जीवन जीने लगे थे।

समय चक्र गतिशील हो घूम रहा था देखते ही देखते दस साल बीत गए।न इन्होंने कभी बेटों से सम्पर्क किया और न बेटों ने कभी अपने जन्मदाताओं की खोज खबर ली कि जिन्हें हमने अपना आशियाना बनाने के लिए बेघर कर दिया था वे किस हाल में हैं जिन्दा भी हैं या नहीं। 

समय की मार पड़ी एक दिन ऑफिस से आते समय अरुण की कार दुर्घटना ग्रस्त हो गई वह बच तो गया लेकिन रीढ की हड्डी में चोट आने से दोनों पैर लकवाग्रस्त हो गये और वह व्हील चेयर पर आ गया।

उधर वरुण के युवा होते बेटा -बेटी अपनी लीक से हटकर पढ़ना लिखना छोड़ गलत संगत में पड़ गए,कारण उन्हें कोई देखने वाला, संस्कारित करने वाला तो था ही नहीं। वरुण कमाने में लगा रहा और कावेरी उनकी मां अपने रुप,यौवन, पैसों के मद में अपने आप में ही व्यस्त थी। अपने शौक पूरे करना, समाज में अपना रुतबा दिखाना ये ही उसके शगल थे सो बच्चों की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया, बच्चे अपनी मन -मर्जी के मालिक हो गये जो उन्हें अच्छा लगता करते।

अरुण की दुर्घटना की खबर सुन वे बैंगलोर तो गये क्योंकि माता-पिता बच्चों से उनके आपत्ति काल में दूर कैसे रह सकते थे। जिस बेटे को ऊंगली पकड़ चलना सिखाया था उसे व्हील चेयर पर असहाय बैठा देख उनका ह्रदय चीत्कार उठा। किन्तु जिन्होंने अपने मां बाप को ही एक दूसरे से अलग करने का षडयंत्र रचा, मां से नौकरानी की तरह कार्य करवाया, पिता को भूखा-प्यासा रखा उन्हें सजा तो मिलनी ही थी । कहते हैं कि भगवान के

घर देर है अंधेरा नहीं।  

अरुण को देख जब वे चार-पांच दिन बाद वापस चलने लगे तो अरुण रोते हुए बोला मम्मी-पापा आप रूक जाइए, हमें माफ कर दें।

नहीं बेटा खुश रहो किन्तु न तो हम यहां रूकेंगे और न तुम माफी मांगो,वह हक तो तुम बहुत पहले ही खो चुके हो।

 

शिव कुमारी शुक्ला 

27-1-25

स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित 

वाक्य***जो अपने मां -बाप का दिल दुखाते है *****सजा जरूर देते हैं।

 

यह कहानी सत्य घटना पर आधारित है केवल पात्रों के नाम, स्थान बदल दिए गए हैं।यह घटना मेरे मिलने वाले परिवार के साथ घटी थी। बच्चों से प्रेम होना स्वाभाविक है किन्तु उनकी बातों से,हाव भाव से कभी उन्हें मनोवैज्ञानिक तरीके से समझना भी आवश्यक है।सब धन दौलत उन्हीं के लिए होती है किन्तु अपने हाथ कटाकर समय से पहले उन्हें सब न सौंपे।ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है सो सही समय आने पर ही उचित निर्णय लें ताकि पछतावा न हो।

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