जिस दिन पूर्वी का जन्म हुआ उस दिन परदादा महेंद्र प्रताप सिंह जी ने पूरे गाँव में लड्डू बँटवाए ।उनके ना तो कोई बुआ थी ना बहन और ना ही बेटी । तीनों बेटों के भी बेटे ही बेटे ।
महेंद्र प्रताप सिंह अपने समय के जाने- माने ज़मींदार थे । आस-पास के गाँवों में अच्छा मान-सम्मान था । छोटी- मोटी ही नहीं, बड़ी-बड़ी कहासुनी में भी लोग थाने जाने की बजाय, ज़मींदार साहब से न्याय करवाना पसंद करते थे ।
परिवार बढ़ा तो बड़े बेटे सूर्य प्रताप सिंह को गाँव की ज़मीन- जायदाद की देखभाल की ज़िम्मेदारी सौंपी , दूसरे बेटे चंद्रप्रताप सिंह को शहर के पेट्रोल पंप की ज़िम्मेदारी दी और तीसरे बेटे इंद्रप्रताप सिंह को ट्रांसपोर्ट का बिज़नेस सौंप दिया पर साथ ही यह बात साफ़ कर दी कि मेरे जीते-जी खुद को मालिक समझने की गलती मत करना । महीने के अंत में, पूरे परिवार की उपस्थिति में हिसाब-किताब करते , इस तरह ना किसी को गिला था ना शिकवा ।
केवल बेटों को ही नहीं, घर की बहुओं को भी उनके हिस्से का जेबखर्च मिलता था । जिस दिन बड़े बेटे का विवाह हुआ और बहू के कदम घर में पड़े , उन्होंने परिवार के सभी सदस्यों , विशेष रूप से अपनी पत्नी से कहा——
हमें तो बहन और बेटी का सुख नहीं मिला पर माँ ने हमेशा यही सिखाया है कि जिस घर में नारियों का सम्मान होता है, वहाँ कभी किसी चीज़ की कमी नहीं होती । सुनयना ! इस परंपरा का मान रहे, बस इतनी सी इच्छा है ।
ससुर के इन शब्दों ने नई – नवेली दुल्हन का मन मोह लिया और सचमुच इस घर में उसे हमेशा ऊँचा दर्जा मिला । फिर दूसरी और तीसरी बहू आई पर ईश्वर की बदौलत, बदले में बहुओं ने भी इसी घर को अपना सब कुछ मान लिया था ।
बच्चे बड़े होने लगे तो प्रेम को बरकरार रखने के इरादे से तीनों बहुओं को ज़िम्मेदारी के नाम पर उनके पत्तियों के साथ भेजकर ,अलग-अलग कर दिया ।अब सभी तीज- त्योहार पर मिलते और जल्दी ही फिर से मिलने की उम्मीद लिए अपने-अपने ठिकाने पर चले जाते ।
हाँ, ज़मींदार साहब अपनी पत्नी के साथ हफ़्ता -दस दिन कभी छोटे बेटे के पास तो कभी मंझले बेटे के पास रहने जाते पर उनका स्थाई ठिकाना गाँव में ही था ।
देखते ही देखते बड़े बेटे के बच्चे विवाह योग्य हो गए । सूर्यप्रताप सिंह के दोनों ही बेटे दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट थे । दसवीं के बाद महेंद्र प्रताप सिंह ने दोनों पोतों को बड़े शहर में पढ़ने भेज दिया था कि कहीं बेटे के दिल में यह मलाल न रहे कि उसके बेटों को गाँव में ही पढ़ना पड़ा । दोनों ने ही छात्रावास में रहकर पढ़ाई की थी । बडे ने तो दिल्ली में ही नौकरी कर ली पर छोटे का मानना था कि अगर नई तकनीकों के साथ कृषि को एक व्यवसाय के रूप में अपनाकर लगन से कार्य किया जाए तो गाँव से पलायन करते युवकों के सामने एक नया रास्ता खुलेगा। इस तरह उसने पिता और बाबा के अनुभव ,अपनी शिक्षा और बहुत से श्रमिकों के परिश्रम के बलबूते पर जैविक खेती करनी शुरू कर दी थी ।
जब दिल्ली में नौकरी करने वाले पौत्र-बहू के पैर भारी होने की खबर महेंद्र प्रताप सिंह और उनकी पत्नी को मिली तो तुरंत गाड़ी लेकर वहाँ जा पहुँचे और यह कहते हुए सुरभि को ले आए ——
निखिल बेटा , इस बच्चे के साथ बहू नई पीढ़ी को जन्म देने जा रही है । शुरू के दिनों में बहुत देखभाल की ज़रूरत होती है। वहाँ घर का दूध- घी , आराम तथा अनुभवी लोग हैं । पास के शहर में मंझला चाचा तो रहता ही है, अगर ज़रूरत पड़ी तो वहाँ अच्छे अस्पताल हैं । तुम कोई चिंता मत करना ।
बस सुरभि बाबा – दादी के साथ आ गई । नौ महीने बाद पूर्वी के रूप में नन्ही सी राजकुमारी आ गई और कई पीढ़ियों के बाद बेटी- जन्म को साक्षात ल़क्ष्मी का रूप जानकर , पूरे परिवार ने उसका ऐसा स्वागत किया कि गाँव के लोग लड़की के जन्म का ऐसा जश्न देखकर दंग रह गए ।
पूर्वी घर भर की आँखों का तारा थी । उसकी एक आवाज़ पर पूरा घर इकट्ठा हो जाता था । महेंद्र प्रताप सिंह और उनकी पत्नी सुनयना की तो पूर्वी में जान बसती थी । संयोग की बात थी कि पूर्वी के बाद परिवार में किसी दूसरी पुत्री का जन्म नहीं हुआ । त्योहारों पर तो पूर्वी की शान देखते ही बनती थी । भाइयों की लाड़ली अक्सर कहती ——-
पूरे परिवार की इकलौती बेटी हूँ….. नाज- नख़रे तो उठाने पड़ेंगे।
अक्सर बड़े घरों के बच्चे बिगड़ जाते हैं पर ज़मींदार साहब का परिवार इस मामले में अलग था । हर एक बच्चे में तहज़ीब और संस्कार कूट-कूटकर भरे थे । अक्सर सुनयना बहू सुरभि से कहती——
पूर्वी को दूसरे घर में जाना है और तुम तो जानती हो कि हर घर का रहन-सहन सब अलग होता है । बेटा ! हमें ही अपनी बेटी को भविष्य के लिए तैयार करना है ।
और सचमुच सुरभि ने भी दादी सास की बातों को अधिक समझते हुए अपने दोनों बच्चों को उस घर के तौर तरीक़ों से पूरी तरह वाक़िफ़ करवाया ।
मृत्यु के शाश्वत नियम को भला कौन टाल सकता है ? अपने संस्कारों को और तीनों भाइयों को उनका अलग-अलग हिस्सा सौंपकर , समय के साथ महेंद्र प्रताप सिंह और उनकी पत्नी चल बसे ।
पिता के जाने के बाद, सूर्यप्रताप सिंह ने भी परिवार के मान- सम्मान में कोई कमी नहीं आने दी । घर – परिवार के सदस्यों के व्यवहार से प्रभावित होकर , शहर के बड़े उद्योगपति के घर से पूर्वी का रिश्ता आया । निखिल , सुरभि , पूर्वी और बाक़ी सब सदस्यों की राय लेकर , इस संबंध को स्वीकार कर लिया गया ।
आज पूर्वी की विदाई थी । गाड़ी में बैठी पूर्वी के सिर पर हाथ रखते हुए सूर्यप्रताप सिंह ने कहा ——
पूर्वी…. बेटी अब से ससुराल ही तेरा घर है अब तो तू यहाँ की मेहमान है ।
इतना सुनते ही पूर्वी की हिचकियाँ तेज हो गई । उसे लगा कि वह अनाथ हो गई है । जिस घर में अभी गई भी नहीं, जिस घर के सदस्यों को जाना- पहचाना भी नहीं……
तभी छोटी चाची ने पूर्वी का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा——
पूर्वी, ऐसा नहीं है कि तुम्हारा नाता इस घर से टूट गया है बस जितना प्यार,लगाव और समर्पण इस घर के लोगों के साथ है , वैसा ही वहाँ रखना । पापाजी के कहे इन शब्दों में अलगाव की भावना नहीं बल्कि बेटी को नए परिवार और माहौल में रचने- बसने और संतुलन बनाए रखने की सीख छिपी है ।
चाची की बातों का गूढ़ अर्थ समझ पूर्वी बोली —
बाबा , मुझ पर विश्वास रखिए…. दादी, मम्मी और चाची की तरह , मैं भी किसी को शिकायत का मौक़ा नहीं दूँगी ।
करुणा मलिक
Nice Story
Absolutely
Superb 👌
Enough is enough!