बेनाम रिश्ते – करुणा मलिक: Moral Stories in Hindi

कहाँ हो यजमान …… कित्ती देर  से दरवाज़ा खटखटा रही हूँ…कहाँ गए सब ? ए….. मालती …. अपनी माँ और दादी को तो बुला दे   बेटा ।

मालती ने आवाज़ सुनी और कमरे में लेटी अपनी माँ से कहा—-मम्मी…. वो बाहमणी दादी …आ गई । जब देखो … मुँह उठा कर चली आती है । अब घंटों बैठी रहेगी । मुझे बाहर मत बुलाना…..  देखो … ज़रा अपने आप ही बरामदे में पड़ी कुर्सी पर बैठ भी गई।

मालती …. ग़लत बात है । ऐसा नहीं कहते बड़ों को…. वो तो बेचारी इतनी दूर से दादी को बताने आती है तिथियाँ…. 

कैलेंडर में सब लिखी होती हैं…. इनको नहीं पता क्या …. मुझे मत बुलाना बाहर ….

क्यों नहीं बुलाना …… क्या एक गिलास पानी देने में तेरे हाथ टूट जाएँगे ?  बोलने से पहले सोच लिया कर …. इसे मत बुलाना …. अब इसके हुकुम को मानना पड़ेगा हमें तो…

यार मम्मी…… हुकुम की क्या बात है इसमें ? देखते ही बोलेगी…. आइए मालती , तुझे पुचकार दूँ …. जा बेटा …. दादी बाह्मनी के लिए पानी तो ला दे …. भाई कहाँ है तेरे ….

हाँ तो आशीर्वाद ही तो देती हैं तुम्हें….. 

मेरे सारे बाल ख़राब कर देती हैं.. हाथ फेर-फेर कर ….. फिर कहेंगी – बेटी ….. तेल ना लगाती तू बालों में  ? कैसे झाड़ से हो रहे ….. मालिश करवाया कर ….. जा तेल की शीशी ले आ … मैं लगा दूँ ….. 

सारी बात तो तेरे भले की कहती फिर तू क्यों चिढ़ी जा रही है? वो तो प्यार से कहती हैं ना , बेटा !

अरे मम्मी… आपको समझ नहीं आएगा…. अच्छा मुझे विन्नी के घर से एक कॉपी ले आनी है । अभी आई….

इतना कहकर कोमल चली गई । सुमन सोचती ही रह गई कि क्या हो गया है आजकल के बच्चों को ? आशीष लेने में भी इनके बाल ख़राब होने लगे । एक हमारा ज़माना था कि घर में हर आने-जाने वालों के चरण-स्पर्श करके आशीर्वाद लेते थे …किसी ने सिर पर हाथ नहीं रखा तो कह उठते —-

हमें तो पुचकारा भी नहीं…. बस भाई को प्यार करते हैं सब …

सोचते-सोचते सुमन बाहर बरामदे में आ गई और दादी बाहमनी  से बोली —- राम-राम दादी , आज तो कई दिनों में आई …. लो  ..पानी पी लो ।

और सुमन हाथ में लिया पानी का गिलास उन्हें देकर पाँव दबाने  लगी —-

रहन दे …. पवन की बहू …. अब तो बहू … सब नमस्ते ही करने लगे हैं …दुखी ना होया कर ….. तेरे भाई- भतीजे जीते रहे …. तेरा कमाऊ बना रहे…. तेरे बच्चों की बड़ी उमर हो …. तेरे हाथ-पाँव बनाए रखे .. रामजी….

ना दादी …. दुखी की क्या बात है…. आशीर्वाद की भी तो झड़ी लगा देती हो तुम …. 

सेठानी कहाँ है…. दिखी ना … कल मावस है ,  बताने चली आई …. अब तो दो- चार ही घर बचे… जो पुराने रीत- रिवाज को मानते …… टाइम ही ना … किसी के पास …

इतने में  मालती की दादी  बाहर से  आते हुए बोली—-

सुमन , बाहर गली में सब्ज़ी बेचनिया खड़ा …. जा कल के लिए कद्दू ले ले …. खीर- पूरी के साथ कद्दू की सब्ज़ी बढ़िया लगे ….. बच्चों के लिए आलू बना लेंगे । दादी … राम-राम … कब आई ?

बस गिलास पानी का पिया ….. यजमान । मावस की बताने आई थी ….अब तो थकान होने लगी …. यहाँ तक आने में दो बार रास्ते में बैठना पड़ा ।

हाँ दादी……. उमर तो होने ही लगी । सुमन….. दादी के लिए भोजन का इंतज़ाम कर …. मालती कहाँ गई …ऐसा कर ….. बढ़िया सी चाय बना दे पहले…… दादी…. सीधी मंदिर से ही आ रही हो क्या  ?

हाँ…. यजमान । पहले तो धयान ही नहीं रहा कि तुम्हें बताने जाना है …. वो तो ग्यारह बजे सी शिवकुमार ने याद दिलाया कि माँ …. तुम्हें तो सेठानी चाची के घर जाना है ….. तब याद आई ।

सुमन चाय बनाते-बनाते सोच रही थी कि अम्माजी.. इतने भी पुराने जमाने की नहीं है , जब केवल मंदिर के पुजारियों से ही तिथियों की जानकारी मिलती थी । शायद वे अपने सास- ससुर की बनाई  िकसी परंपरा को बनाए रखने की ख़ातिर , उसका निर्वाह कर रही थी । उसे आज भी याद है कि उसकी शादी में , अम्मा जी ने बाहमणी दादी की साड़ी विशेष रूप से मँगवाई थी —-

समधिन जी, एक अच्छी सी बहुत हल्के रंग की कॉटन साड़ी चिट लगाकर ज़रूर भेज देना “ बाहमणी दादी “ ।यह बात सुनकर उस समय सुमन के मुँह से निकल गया था——

ये क्या मम्मी! कैसे लोग हैं…. ऐसे कौन  किसी के लिए मँगाता है, देनी थी तो खुद ख़रीदकर देते ना …. कोई विशेष ही है जो चिट लगकर जाएगी ।

शादी के बाद जब संदूक खोला गया तो सबसे ऊपर की साड़ी बाहमणी दादी की थी …. उस समय सुमन की माँ ने यह सोचकर कि शायद किसी पूजा-पाठ के लिए है …. सबसे ऊपर  रखी थी । जब सविता दीदी ने बक्सा खुलाई का नेग लेकर , बाहमणी दादी को साड़ी दी तो वह यह सुनकर खिल उठी कि बक्से में सबसे ऊपर उनके नाम की साड़ी थी ——

राम जी बनाए रखें बहू-बेटे की जोड़ी को । उसके पीहर वाले बने रहें ….. सेठानी…. तुम्हारा मान- यश यूँ ही बढ़ता रहे….. और भी जाने…क्या-क्या । 

नई नवेली बहू के रूप में सुमन ने महसूस किया कि उसके सास-ससुर के दिल में बाहमणी दादी  और उनके परिवार के लिए विशेष मान- सम्मान का भाव था । वह सोचती रही कि आख़िर ऐसा भी क्या ….. ठीक है…. रीति-रिवाजों को बताने और पूजा-पाठ करवाने में पंडितों की ज़रूरत पड़ती है पर यहाँ तो…. । और फिर अम्मा जी भी इन्हें दादी कहती हैं? बराबर की नहीं  , तो बाहमणी दादी  दो-चार साल बड़ी होंगी ।

एक बार अम्मा जी से पूछा भी —-

अम्मा जी , आप इन्हें दादी क्यों कहती हैं? ये तो आपसे बहुत ज़्यादा बड़ी नहीं हैं ।

इनका रिश्ता बड़ा है….बस तुम्हारी दादी ने यही बताया था कि ये दादी लगती हैं…

उसके बाद सास की देखादेखी वो और बाद में बच्चे भी बाह्मनी दादी कहने लगे ।

सुमन ने पहले चाय और बाद में गरमागरम खाना खिलाया । उसके बाद अम्मा जी के कहने पर दादी के लिए एक चटाई पर दरी और चादर बिछाकर सुमन बोली—-

दादी …. आपकी चटाई बिछा दी । दो घड़ी आराम कर लो । 

ना बहू …. चलूँगी…. वो पोते की बहू अकेली है आज … चिंता करेगी ।

 जाते समय अम्मा जी ने एक दर्जन केले और सौ रुपये थैले में डालकर पकड़ाते हुए कहा —

दादी ! रिक्शा से चली जाना । पैदल मत जाना …. ये लो रिक्शा का किराया । कल दुखी मत होना … मावस पूजकर , मैं सामान मालती के हाथों भिजवा दूँगी । खाना मत बनाइयो सुबह…..

आ जाऊँगी मैं ही …. कहाँ बिटिया को तंग करोगी ?

ना कोई तंग ना होगी …. उसे तो  साइकिल पे थोड़ी देर ही  लगेगी ।

अगले दिन सुबह- सुबह जब दादी ने कहा —-

मालती ….. लाडो ! जा जल्दी से बाहमणी दादी के घर ये टिफ़िन और थैला पकड़ा आ …..मावस है बेटा …

मैं नहीं जाऊँगी… उनके घर …. ये क्या सारा दिन बाहमणी दादी…. बाहमणी दादी…. दादी ! प्लीज़…. पापा को कह दो … गाड़ी में दो मिनट लगेंगे । वैसे इन बातों में क्या रखा है ?

सुमन ….. देख … ये लड़की कितनी बोलने लगी है । इसे समझा दे … नहीं तो किसी दिन इसकी खबर लेनी पड़ेगी । मोहित को कहूँगी…. तो वो भी अपनी बहन के नक़्शे कदम पर चलता है । पवन…. बेटा , ऑफिस की तैयारी से पहले ये सामान जल्दी मंदिर में पकड़ा कर आ… मेरी ही मति मारी गई थी जो इस लड़की पे भरोसा करके , मैंने दादी को आने से मना कर दिया था ।

माँ…. मुझे भी ज़रा जल्दी निकलना है आज . रख दो पहले नहाकर तैयार हो जाऊँ ,..….जाते- जाते पकड़ा जाऊँगा । 

इतना कहकर वो बाथरूम में चले गए और सुमन मावस का सारा सामान टेबल पर रख रसोई में चली गई ।

जब पवन ऑफिस के लिए निकलने लगा तो सुमन बोली ——

सुनो ! वो मंदिर का सामान भी ले जाना ….. रूको अभी लाई पर टेबल पर तो कहीं कुछ भी नहीं था । उसने इधर-उधर देखा…फिर अपने बेटे से पूछा—-

मोहित…. बाहमणी दादी के लिए सामान रखा था….. जा पापा से पूछ… उठा लिया क्या …. 

पर बहुत ढूँढने पर भी ना तो सामान दिखा और ना ही घर में अम्मा जी थी । सुमन समझ गई कि मालती के पापा की  , नहा-धोकर बाद जाने वाली बात से ,अम्मा जी ग़ुस्से में खुद ही चली गई । उसने पति को जाने के लिए कह दिया क्योंकि अब उसे ही अम्मा जी को मनाना पड़ेगा । वैसे तो अम्मा जी बहुत अच्छी है पर उनके अपने जीवन के कुछ सिद्धांत थे , जिनके साथ उन्होंने कभी समझौता नहीं किया , विशेष रूप से रीति- रिवाजों के साथ ।

दो घंटे बाद अम्मा जी लौटी और बाहर बरामदे में ही बैठकर बोली——

मेरी रोटी मत सेकना आज ….. रास्ते में सुशीला बहनजी मिल गई थी…… ज़बरदस्ती खाना खिला दिया ।

पर सुमन जानती थी कि किसी ने खाना नहीं खिलाया…बस वे नाराज़ हैं ।

अम्मा जी….. आप मेरी गलती बताइए …. अब आपके बेटे ने ही तो सामान बाद में देकर आने की बात कही थी….

और तेरी बेटी ने मेरी बात तुरंत मान ली थी ? तेरा बेटा भी कहते ही काम कर देता है ….

 बताओ अम्मा जी….. मैं क्या करूँ….. मेरे तो वश में बस इतना  है कि आगे से …. जो भी काम हो , मुझे बता दिया करो ।

सुमन ने इतनी बेबसी से कहा कि अम्मा जी पिघल गई और बोली—-

देख बहू ….. मुझे पुराने जमाने की कहो या गवाँर …… पर मैं जीते- जी इन रिश्तों को टूटने ना दूँगी । और तुम्हारे  पति और बच्चे  को मेरी बातें पसंद ना हों तो ……

नहीं अम्मा जी …. कैसी बात कह दी?  मेरे कहाँ से  ? आपका बेटा और आपके पोता- पोती हैं ….. आगे से मैं ख़्याल रखूँगी..  । 

थोड़ी देर बाद अम्मा जी सुमन की रूआँसी सूरत देखकर बोली —- तू अपने मन पे मत लेना मेरी बात …. बहू ! आने दे आज शाम को पवन को …. मेरा बेटा होकर वो कैसे भूल गया कि अमावस्या के दिन बिना मंदिर में खाना भेजे  , मैंने इस घर में आकर कभी खाना नहीं खाया और इसने पितरों के नाम से निकाले भोजन को ….. चल ….. अपनी और मेरी रोटी सेंक लें।

उस दिन सुमन ने सोच लिया कि दोनों बच्चों को घर की परंपराएँ सिखाना उसकी ज़िम्मेदारी है । रही पति की बात ….वे  हर परंपरा को पूरे आदर- सम्मान से निभाते हैं,  आज पता नहीं कैसे ……. खैर  उन्हें तो अम्मा जी खुद देख लेंगी ।

अब जब भी बाहमणी दादी आती तो सुमन मालती या मोहित में से किसी को भी बाहर न बुलाती , यहाँ तक कि बाहमणी दादी कई बार पूछती——

बहू ! बच्चे ना दिखते …… बड़े दिन हो गए….. हाँ पढ़ाई में लगे होंगे….. हमारे भी बच्चे सारा दिन किताबों में लगे रहते ….. जाने कैसी पढ़ाई आ गई …… ना खेलने के ना खाने के ।

एक दिन मालती स्कूल से आते ही बोली ——

मम्मी! टीचर ने कहा है कि अलग-अलग अवसरों पर गाए जाने वाले लोकगीतों की लिस्ट बनाकर , गीत लिखकर लाएँ । आपको तो आते होंगे  …… मैंने तो अपनी सहेलियों से शर्त भी लगा ली कि यह कॉम्पीटिशन तो मैं ही जीतूँगी ।

तुमने मुझे कभी गीत गाते सुना है ? अम्मा जी से पूछ लो …..शायद उन्हें आते हो ……. वैसे मैंने तो उन्हें  कभी गुनगुनाते नहीं देखा….. हाँ, ऐसी तो बाहमणी दादी हैं , जिन्हें हर मौक़े पर गाए जाने वाले बहुत से गीत आते हैं ।पर तुम्हें तो उनका यहाँ आना – जाना बिल्कुल भी पसंद नहीं…… छोड़ो ……. 

मालती ने अप्रत्यक्ष रूप से यह कहने की कई बार कोशिश की गई कि एक बार बाहमणी दादी को बुला दो ….

पर सुमन अनजान बनने का नाटक करती रही । वो जानती थी कि अगर एक बार मालती को अपनी ग़लतियों का अहसास हो गया तो मोहित को कुछ भी सिखाना मुश्किल नहीं होगा । 

दोनों बच्चों की वार्षिक परीक्षा शुरू होने वाली थी पर हर साल की तरह ना तो अम्मा ने और ना ही मम्मी ने मंदिर जाकर भगवान के दर्शन करने को कहा । मोहित तो छोटा था पर मालती सब समझ रही थी कि मम्मी और अम्मा दोनों ही उससे उखड़ी-उखड़ी सी रहती हैं ।

अब मालती को मम्मी की वे बातें याद आती जब वे कहती थी —- मालती बेटा ! आशीर्वाद का कोई आकार नहीं होता , वे तो कार्य की सफलता  में छिपे  होते हैं ।

जिस दिन पहली परीक्षा थी , उस दिन अम्मा के कमरे से हमेशा की तरह सुनाई देने वाली आवाज़ “ सुमन ! बच्चों को दही-चीनी खिलाकर भेजना “  ख़ामोश थी । आज मालती को वे सारी बातें याद आ रही थी, जिनसे वो चिढ़ती थी । मम्मी ने भी रसोई में से ही केवल “ ऑल द बेस्ट “ कहा । मोहित उससे सात साल छोटा था , शायद उसकी बातों को ना समझे पर उसका मन उदास था और इसी उदासी में उसने अपनी साइकिल मंदिर की ओर घुमा दी । बाहर ही तुलसी के पास बैठी बाहमणी दादी की नज़र मालती पर पड़ी तो वे ख़ुशी से चहकती हुई बोली ——

आज तो मेरी लाडो मुझसे मिलने यहीं आ गई …… आइए बेटा ! तुझे पुचकार दूँ ….. पर मालती के पास पहुँचते ही उनके आशीर्वाद देते हाथ अचानक रूक गए ——

क्या हुआ दादी …… आज मेरी परीक्षा है , मैं आपका आशीर्वाद लेने आई हूँ ।

जीती रह बेटा …. पर हाथ लगाने से तेरे बाल तो ना बिगड़ जाएँगे…. तू स्कूल जा रही है ।

मालती ने उनके उठे हाथों के नीचे अपना सिर करते हुए कहा —-

बाल तो सँवारे जा सकते हैं, दादी पर बड़ों का आशीर्वाद सबको नसीब नहीं होता …

इतना सुनकर दादी ने हमेशा की तरह उसके ऊपर आशीषों की झड़ी लगा दी और प्रसन्नता से मालती परीक्षा देने गई ।

इस बीच सुमन ने महसूस किया कि उसकी मालती ने घर के बड़ों की बातों को मानना सीख लिया ….. अगर कोई काम करने का समय ना हो तो बहाने बनाने की जगह सच बताना शुरू कर दिया और एक बड़ी बहन की तरह मोहित को समझाना भी सीख लिया था ।

जिस दिन मालती की परीक्षा का परिणाम आने वाला था , उस दिन वह सुबह जल्दी उठ गई और अम्मा से बोली —

अम्मा! मेरे साथ मंदिर चलो ना , रिज़ल्ट आने से पहले मैं भगवान के दर्शन करके बाहमणी दादी का आशीर्वाद ले लूँगी…. मम्मी कहती है कि कार्य की सफलता में बड़ों का आशीर्वाद छिपा होता है ।

सुमन का चेहरा गर्व से खिल गया , उसने अम्माजी की तरफ़ देखा तो अम्मा जी की मुस्कान से वह समझ गई कि वह अपनी बहू को मन ही मन आशीर्वाद दे रही है ।

सुमन अपनी सास के पास आकर बोली —-

अम्माजी! मैं  भी जीते-जी घर की परंपराओं से अपना और बच्चों का रिश्ता टूटने ना दूँगी ।

करुणा मलिक

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