भाई बहन का सम्बन्ध अटूट होता है। किसी भी बहन के जीवन में भाई का और भाई के जीवन में बहन का एक अति महत्वपूर्ण स्थान होता है। भाई बहन के लिए और बहन भाई के लिए सब कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार रहते हैं। भाई हर हाल में अपनी बहन को खुशहाल देखना चाहता है और बहन भाई को। दोनों एक-दूसरे के सुख-दुख में हिस्सेदारी निभाते हैं।
इसी संदर्भ में एक घटना की चर्चा करना चाहूंगा।रवि बाबू की दो पुत्रियां और एक पुत्र थे। रंभा और रेखा तथा सौरभ जिनके नाम हैं।
तीनों का पालन पोषण रवि बाबू ने पत्नी स्नेहा के सहयोग से किया। तीनों बच्चे पढ़ने लिखने में ठीक ठाक थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि तीनों सुशील स्वभाव के थे। और उनमें आपसी सहमति थी। घर के किसी भी कार्य को पूरा करने में अपने माता-पिता को भरपूर सहयोग करते थे। समय के साथ उनकी उम्र तो बढ़ती ही जा रही थी
और उसी अनुपात में बुद्धि भी। उनके व्यवहार से माता-पिता को प्रसन्नता थी। वे उनके लिए दायित्व नहीं बल्कि साधन के रूप में थे।वे कभी भी बोझ नहीं बनें बल्कि बोझ हल्का करने वाले साबित हुए। पता नहीं ऐसा क्यों होता है कि कन्याएं माता के साथ अधिक सुरक्षित महसूस करती हैं और उनके कामकाज में नित्य प्रति बहुत ही तल्लीन होकर हिस्सा लेती हैं। आगे उनके जीवन का वह अंग बन जाती हैं और स्वत: घरेलू कार्यों का निपटारा करने लगती हैं। रंभा और रेखा भी ऐसा ही करने लगीं। माता पिता तो उम्रदराज हो ही रहे थे।
सौरभ भी कम समझदार नहीं था। पढ़ाई के साथ साथ घर के काम में भी सहयोग किया करता था। उसके ऐसा करने से बहनें खुश रहती थीं । वैसे दोनों बहनों से छोटा था। इसलिए उनका भरपूर मात्रा में प्यार इसे मिलता था। फिर भी वह ऐसा करने से बाज नहीं आता था।
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मां स्नेहा गांव के प्राथमिक विद्यालय में एक शिक्षिका थी और पिता एक तहसील में राजस्वकर्मी थे। घर में आय के स्रोत थे। कोई दिक्कत नहीं थी। सब कुछ सही सलामत था।
बड़ी बेटी रंभा जब मनोविज्ञान विषय से स्नाकोत्तर की पढ़ाई पूरी कर ली थी तो अब क्या होगा जैसा सवाल खड़ा हुआ था। फिर तो आगे की प्रक्रिया बहुत लंबी होती। सामान्य आय वाले और सामान्य पारिवारिक पृष्ठभूमि में रहने वाले लोग प्रायः ऐसा मानते हैं कि लड़की जब पढ़ लिख गयी तो कहीं उसका विवाह कर दिया जाय।
रंभा के साथ भी यही हुआ। रंभा ने कहीं कोई अपनी अप्रसन्नता व्यक्त नहीं की थी। रेलवे में गार्ड की नौकरी करने वाले लड़के से उसका विवाह संस्कार संपन्न हो गया। जब रंभा ससुराल जाने लगी तो मां के गले से लिपट कर रोने लगी। सौरभ भी फूट-फूटकर रोने लगा। रंभा ने उसे चुप कराया। सौरभ
उसके साथ जाने के लिए ज़िद करने लगा। आखिरकार वह साथ में गया। वहां एक सप्ताह रहने के बाद अपने पिताजी के साथ वापस आ गया। लेकिन उसके बिना कुछ दिनों तक इसका मन उदास सा रहता। बहन ने भाई को भरोसा दिलाया था कि वह रक्षाबंधन पर्व पर राखी बांधने अवश्य ही आयेगी।
सौरभ रक्षाबंधन आने का इंतजार करता और बार बार अपनी दीदी रेखा से पूछता रहता। रेखा कहती —-” बबुआ घबराओ मत। एक महीने बाद रक्षाबंधन त्योहार आने वाला है। मैं तो यहां हूं ही, उस समय तक दीदी भी आ जायेंगी। हम दोनों अपने प्यारे भाई की कलाई पर राखी बांधेंगी और मिठाइयां खायेंगे, खुशियां मनायेंगे। “
सौरभ बहुत खुश हुआ। अपनी मां से कहा —- ” जानती हो मां, एक महीने बाद दीदी आने वाली है। वह राखी लिये आयेगी और फिर मेरी कलाई पर बांध कर मुझे मिठाइयां खिलायेगी।”
“हां बेटा! तुम्हारी दीदी आने वाली है ” –ऐसा मां ने कहा।
एक दिन रेखा और सौरभ आपस में बातें कर रहे थे। तब तक रेखा ने कहा —- “बबुआ!अब तो दीदी के आने में सिर्फ एक सप्ताह का ही समय रह गया है। हम दोनों तुम्हें तिलक लगाकर राखी बांधेंगी और मिठाइयां खिलायेंगी। फिर तुम क्या करोगे?”
सौरभ ने कहा —” मैं तुम दोनों के चरणों में झुक कर आशीर्वाद मांगूंगा कि आपका स्नेह सदैव मुझे मिलता रहे। और मां से रुपये मांग कर आप दोनों को दूंगा।”
सौरभ की अतिशय मृदु वाणी सुनकर गदगद हो गयी और दौड़ी हुई मां के पास गयी। मां को सारी बातें बतायी। मां ने रेखा को चुम लिया।
रेखा भी अब स्नातक इतिहास प्रतिष्ठा उत्तीर्ण हो गई थी। स्नातकोत्तर में नामांकन के लिए आवेदन भेज दिया गया था। इधर सौरभ भी प्रवेशिका परीक्षा की तैयारियां कर रहा था।
रवि बाबू और स्नेहा की नौकरी भी छह सात साल की ही शेष थी।
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परिवार में सब कुछ सामान्य ही था। किसी तरह का उतार चढ़ाव बहुत कुछ नहीं था। छोटा-सा अपना एक आशियाना था जिसमें गुजर-बसर हो रहा था। ऐसी कोई बड़ी परेशानी उस परिवार के समक्ष नहीं थी। वैसे शरीर और संसार ये दोनों परेशानी के कारण बनते हैं। छोटी-छोटी घटनाओं को छोड़कर कोई बड़ी दुर्घटना का सामना अब तक नहीं करना पड़ा है। सबको रक्षाबंधन का इंतजार है और उसके लिए इंतज़ाम किया जाना है।
एक दिन पहले ही रंभा भाई के लिए सुनहली राखी लेकर पहुंच गई।
आज रक्षाबंधन का त्योहार हर जगह हर घर में मनाया जा रहा है। ‘राखी धागों का त्योहार’ जैसे गाने लाउडस्पीकर से बजाये जा रहे हैं। हर ओर खुशियों का माहौल है। रंभा और रेखा जैसी बहनें सौरभ जैसे अपने प्रिय भाई की कलाई पर राखी बांधने के लिए सारी तैयारियां पूरी कर ली हैं। अभी सौरभ भी स्नानोपरांत नये नये वस्त्र पहन कर उनके समक्ष उपस्थित हो गया।
बहनों ने बारी-बारी से तिलक लगाकर उसकी कलाई पर राखी बांधी और मिठाइयां खिलायीं। सौरभ ने उनके चरणों को स्पर्श किया और चिरंजीवी होने का आशीर्वाद प्राप्त किया। सौरभ समझदार हो गया था। उसने अपनी बहनों से कहा —” दीदी जब तक मैं जीवित रहूंगा तब तक आपके सुख-दुख में हाथ बंटाता रहूंगा। मैं यह वचन देता हूं कि जिस हालत में रहूंगा आवश्यकता पड़ने पर वह उपस्थित हो जायेगा। भाई को बहन और बहन को भाई तो बड़े ही सौभाग्य से प्राप्त हुआ करते हैं। “
कल भादों मास आने वाला था, सावन आज ही तक था। भादों माह में कन्याओं की विदाई नहीं की जाती है। इस परम्परा के अनुसार रंभा को आज ही ससुराल जाना है और इधर अचानक सौरभ को तेज बुखार हो जाने के कारण उसे अस्पताल ले जाने की बातें की जा रही थीं। तब तक रंभा के पति दरवाजे पर गाड़ी का हार्न बजा रहे थे।
अयोध्या प्रसाद उपाध्याय, आरा
मौलिक एवं अप्रकाशित।