यह कहानी मेरी है।
मैं बाबू ‘ दीनदयाल शर्मा’ प्राथमिक विद्यालय का रिटायर्ड टीचर हूं। मेरी दो संतानें एक बेटा
‘सुप्रिय’ और दूसरी बिटिया ‘रूपा’ जिसकी शादी कानपुर शहर में मध्य वित्त परिवार के सरकारी मुलाजिम बेटे से मैंने अपनी ऐक्टिव सर्विस में ही कर दी थी।
लेकिन उसकी बदकिस्मती या इसे किस्मत का खेल कह लें शादी के महज सात बर्षों के बाद ही दामाद जी की आक्समिक मृत्यु हो गई।
वे अपने पीछे सहारे के तौर पर एक पांच बर्षीय बेटे ‘ सोम’ को रूपा के पास छोड़ गए थे।
बहरहाल… यह तो उसकी किस्मत थी।
अब बेटे की बात …
जिसके जन्म के बाद उसका नाम मैंने और मेरी दिवगंत पत्नी मंजुला ने बड़े चाव से ‘सुप्रिय’रखा था।
तब हम दोनों को कहां पता था कि इसी सुप्रिय की पत्नी ‘हिमांशी’ के लिए एक दिन वह इतनी अप्रिय हो जाएगी।
कि वह उसे गला घोंट कर मार देगी।
हां! आप विश्वास नहीं करेंगे मंजुला का गला
तो हिमांशी ने ही घोंटा था।
फिर बड़े सफाई एवं चालाकी से उसे ब्रेन स्ट्रोक से होने वाली मौत का नाम दे दिया था।
सुप्रिय उस दिन ऑफीशियल टूर पर शहर से बाहर गया हुआ था।
अलबत्ता हिमांशी को यह आज तक नहीं मालूम है कि मंजुला ने अपने अंतिम क्षणों में हकलाते हुए मुझको उसकी इस अमानवीय हरकत के बारे में बता दिया था।
इतना बड़ा धोखा!
इतने बड़े झूठ और फरेब का माया जाल ?
मेरी पत्नी ,मेरे ही घर में और घर के ही सदस्य के हाथों … अपनी राह से हटा दी गई और मैं उफ्फ तक नहीं कर पाया।
आखिर हम दोनों ही तो एक दूसरे का सहारा बन रहे थे।
मैं कांप कर रह गया। जो होना था वह हो गया था।
यों कि इस घटित के बाद मैंने भी आत्महत्या करने की सोच ली थी। लेकिन फिर रूपा और उसके मासूम अनाथ बेटे ‘सोम’ की तस्वीर आंखों के सामने घूम गई ,
‘ जिन दो मां-बेटे का गुजारा मेरी पेंशन से बहुत मुश्किल से हो पाता है।
उनका क्या होगा ? ‘
या फिर इससे भी बड़ा और मधुर कारण बनी।
सुप्रिय की नन्ही बेटी ‘सुप्रिया ‘
जिसे अब मैं अपनी पत्नी मंजुला के ‘पुनर्जन्म’ के रूप में देखने लगा था।
वह अपनी तुतली बोली में पुकारती ,
‘दादू ‘ और मैं अपने सारे दुख भूल जाता।
खैर … प्रश्न यह है कि हिमांशी जो पूरी सोसायटी में अपनी शालीनता के लिए जानी जाती है।
वह हर बड़े बुजुर्ग को मुस्कुरा कर मिलती और अभिवादन करती है।
वह कैसे अपनी ही सासु मां की हत्या कर सकती है ?
अफसोस कि इसकी साजिश तो शायद उसने शादी से पहले ही रच ली थी।
हुआ ये था कि,
‘ मंजुला को हिमांशी सुप्रिय की पत्नी के रूप में सहज स्वीकार नहीं थी।
जब हम उसके लिए बहू तलाशने की सोच रहे थे। तब हिमांशी का नाम खुद बेटे ने ही सजेस्ट किया था ,
‘एक बार उससे मिल लें फिर निर्णय लीजिएगा ‘
हम दोनों सुप्रिय के साथ उसके घर गये थे।
जहां उस पर नजर पड़ते ही न जाने क्यों मंजुला का मूड उखड़ गया। वह बिना कुछ कहे वहां से जल्दी ही उठ कर चली आई।
इस बात को हिमांशी ताड़ गई थी।
फिर तो उसने ऐसा जाल बुना कि अगले कुछ महीने बाद ही वह हमारी बहू बन कर घर आ गई।
फिर वो कहते हैं ना,
‘ जब करुणा मर जाती है तब ‘बुराई ‘ पनपने लगती है।
एवं समाज तथा घर में उसका तांडव नई-नई शक्लों में चलने लगता है।
अब इसके क्या मायने हैं नहीं जानता पर इसमें कुछ सच्चाई तो अवश्य है बहरहाल …।
एक बार बहुत हिम्मत कर के मैंने बेटे को हिमांशी के दोहरे बर्ताव के बारे में जानकारी देनी चाही थी,
तो असमंजस में भरा हुआ सुप्रिय ने बहुत जोर देने पर मां ‘मंजुला’ को ही इसका कारण ठहरा दिया।
‘ मां ? तुम्हारी मां ने क्या किया है?
‘ हां, यह तो शादी … के पहले ही … पता चल गया था … ‘
कहता हुआ वह चुप हो गया।
लिहाजा अब मैं चुपचाप ही रहता हूं।
पता नहीं कौन सा दुख बड़ा है ?
हिमांशी द्वारा इस प्रकार धोखे और नृशंसता से पत्नी मंजुला का जान लिया जाना ?
या रूपा के पति का असमय उसका साथ छोड़ कर दुनिया से चले जाना ?
लेकिन एक जरा सी बात पर घर की बहू अपनी सास की जान ले ले ?
वैसे तो इस बावत मैं किसी से कोई बात नहीं कर सकता था।
क्यों कि हिमांशी घर के अंदर-बाहर हर वक्त मुझ पर कड़ी नजर रखती है।
पूरी सोसायटी में उसकी न जाने कितने लोगों से दोस्ती है।
कभी वो लोगों के घरों में पार्टी में जाती है तो कभी लोग उसके यहां पार्टियों में आते हैं।
खूब हंसी -ठठ्ठा होती है खाना पीना होता है।
मुझे इससे कोई नाराज़गी नहीं होती है।
लेकिन अपने कमरे में एकाकी बैठा हुआ मैं यह सोचता हूं कि कहीं यह सब भी तो मुझसे मेरी मंजुला को धोखे से छीन लेने के बाद उपजे अपने कड़वेपन को बहलाने का साधन मात्र तो नहीं है ?
अपने मन को यह कह कर ढांढ़स देता रहता हूं। कहीं पढ़ा था ,
‘ कलियुग में लोग अपने रिश्ते -नातों को छोड़, दूसरे-पराए के साथ मेल-जोल करेंगे ‘
सच है,
तभी एक और घट गई।
हुआ यों कि रूपा के बेटे सोम को उसी बीमारी ने जकड़ लिया जिससे उसके पिता पीड़ित थे।
मैं कितने दिनों बाद फिर से खुद को मकड़ी के जाल में फंसा हुआ सा महसूस करने लगा।
वह अस्पताल में भर्ती था। जहां इलाज के लिए और अधिक पैसे की जरुरत थी।
रूपा के फोन आने के बाद सुप्रिय और मैं हम दोनों वहां जाने को तत्पर थे तभी हिमांशी सीढ़ियों से फिसल कर गिर पड़ी।
यद्यपि कि उसे चोट तो मामूली आई थी पर डाक्टर द्वारा उसे आराम करने की सलाह देने पर उसने वो हाय तौबा मचाई कि सुप्रिय को वहीं रुक जाना पड़ा।
सुप्रिय ने मुझे एक लिफाफा पकड़ाते हुए कहा ,
‘ बाबा इसमें कुछ रुपये हैं दीदी को दे दीजिएगा
सोम के इलाज के लिए ‘
मैं ने लिफाफा ले लिया बगैर देखे हुए कि अंदर खाली है या रुपये रखें हैं ंं’
मैं मन ही मन हिमांशी के इस नाटकीय व्यवहार से बुरी तरह क्षुब्ध कुछ बोल पाने की स्थिति में नहीं था।
लिहाजा अकेला ही रूपा के पास जाना पड़ा। पर मेरी वृद्धावस्था और ऊपर से समय पर न पहुंच पाने की आत्मग्लानि अलग से आप समझ सकतें हैं।
वहां सोम अपनी जिंदगी की अंतिम घड़ियां गिन रहा था।
मेरे पहुंचने में दो-तीन दिन की देरी हो गई थी।
फिर भी लिफाफा रूपा को थमा दिया।
वह तो वैसे ही अशक्त और निराश हो चुकी थी फिर भी लिफाफा खोला कर देखा तो वह खाली था।
मैं वहीं सिर थाम कर बैठ गया।
ओहृ … अब समझा !
फिर से इतना बड़ा धोखा।
नजर के सामने घर से निकलते समय की हिमांशी की कुटिल मुस्कान तैर गई।
उधर सोम की सांसें थमने को हैं इधर इतना बड़ा धोखा ?
आप मान नहीं सकेंगे कभी -कभी मां-बाप होना भी कितना बड़ा हादसा और बेबस होना होता है।
काश कि कोई क्या जान ंं पाता अपनी आंखों के सामने संतान का जाना कितना बड़ा दुख होता है। उस दिन बचाखुचा भी मैं पूरा भर चुका था।
यकीन मानिए…
‘ जिंदगी की कोई भी कहानी दोबारा कहां लिखी जाती है ? ‘
#धोखा
सीमा शर्मा /नोएडा
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