बाँस का बिस्तर: – मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

#चित्रकथा

जल्दी करो यार, तुम गुटका बाद में भी चबा सकते हो। बाँस वाला दुकान बंद कर चला जायेगा। धूप जीतनी तेज होती जाएगी बाँस वाले का मिलना उतना मुश्किल हो जाएगा।

बाँस लेने के बाद कुम्हार से दो मिट्टी की हाँड़ी भी लेनीं है। वहाँ से फिर फूल वाले के पास जाना है, फूल भी तो लगेंगे। इतना सब कुछ लेना है और तुम गुटका खाने के लिए परेशान हो।

हाँ यार जानता हूँ, चबा लेने दे आज भर फिर तो दो हफ़्ते बाद ही चबाने को मिलेगा।

इधर घर के बाहर भीड़ लगी है, कोई कुछ कह रहा है कोई कुछ। मास्टरनी चुपचाप सर झुकाए बैठी है, औरतें पास जा कर हौसला दे रही हैं। कोई पानी पीने दे रहा है तो मास्टरनी बीना कुछ बोले गट-गटा कर पुरा ग्लास ख़ाली कर दे रही है।

रामप्रसाद का शिथिल शरीर ज़मीन पर लेटाया हुआ है। सफ़ेद कपड़े से ढक कर ऐसा बना दिया गया है मानो कोई मिट्टी का ढेर। अग़ल बग़ल ख़ुशबू वाली अगरबत्ती जला दी गई है, कुछ औरतें चाह रहीं थी मास्टरनी की चूड़ियाँ तोड़ दी जाए, माँग से सिन्दूर पोंछ दिया जाए, लेकिन मास्टरनी को शाँत देख किसी की हिम्मत नहीं हो रही। मास्टरनी के सामने कुछ ज़ोर ज़ोर से रो रही हैं, सबको उम्मीद है की मास्टरनी भी दहाड़ मार कर रोएगी। मास्टरनी के रोने से समाज के रीति-रिवाज ज़िंदा हो जाते। आख़िर यही तो समाज की रीत है, पती चाहे जैसा भी हो पत्नी के लिए सब कुछ है “भला है बूरा है, जैसा भी है, मेरा पती… मेरा देवता है”। हाँ, वहाँ जमा भीड़ इस आशा में मास्टरनी को देख रही थी।

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मास्टरनी किसी से कुछ नहीं बोल रही थी, बस अपने ठुड्डी को घुटनों पर सटा कर चुपचाप बैठी थी। रामप्रसाद तो आज साँस लेना बंद किया था लेकिन उसने तो मास्टरनी की साँसें तीस साल पहले ही बंद कर दी थी।


मास्टरनी जब ब्याह कर आई थी तब बड़े भैंसूर (जेठजी) ने रामप्रसाद को सबके सामने कहा था, देख रामू अब तू गृहस्थ का आदमी हो गया, अब अपनी ज़िम्मेदारीयाँ समझ और उसी हिसाब से जीवन-यापन कर।

भावहू (छोटे भाई की पत्नी) बहुत सुशील और समझदार है, इनका सम्मान करना तुम्हारा दायित्व है। स्कूल में पढ़ाती हैं तो घर का वातावरण भी अच्छा रखने की कोशिश करेंगी, तुम अच्छी बातों में साथ देना।

भैया, मैं क्या कम हूँ? मैं भी तो सिविल इंजीनियर हूँ। इस से ज़्यादा कमाता हूँ, ज़्यादा लोग मुझे नमस्कार करते हैं।

मास्टरनी कमरे में चुपचाप यह सब सुन रही थी, पहली बार ही वो बात खटक गई।

रामप्रसाद रोज़ चिक-चिक-चिक-चिक करते ऑफिस जाता, वापस आ कर भी रौब झाड़ता। ऑफिस से आ कर बिस्तर पर ऐसे गिरता की आधी रात निंद खुलती।

मास्टरनी तब तक जागते रहती, खाना ला कर देती, उसे तो कभी-कभी इतना भी होश नहीं रहता की हाथ भी धोना है।

मास्टरनी ने इस उम्मीद में पाँच साल गुज़ार दिए की रामप्रसाद एक दिन ठिक हो जाएगा। शादी के एक सप्ताह ही सांसारिक जीवन का सुख मिल पाया। उसके बाद जब रामप्रसाद जागता तब तक उसके स्कूल जाने का समय हो जाता।

रविवार पुरा दिन छुट्टी होने के बावजूद रामप्रसाद बाहर निकल जाता, कभी बोलता यहाँ जाना है तो कभी वहाँ।

अब तक कोई बच्चा न हो सका, इसका भी सारा दोष मास्टरनी के माथे लाद दिया गया “बाँझ कहिं की”

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हद तो उस दिन हो गई जब शनिवार को तय समय के अनुसार स्कूल के सभी बच्चों को लेकर पार्क जाना था, पार्क में बच्चों के लिए छोटा सा मेला लगाया गया था। बच्चों के साथ मास्टरनी बहुत खुश थी की अचानक थरथराने लगी, बाक़ी के शिक्षक या शिक्षिकाओं को कुछ समझ आता, मास्टरनी ज़ोर से गिर पड़ी। पानी की छींटे मार कर होश में लाया गया उसके बाद दूसरी शिक्षिका हमेशा उसका हाथ पकड़े रही। कई बार मास्टरनी को टोका भी।

उधर क्या देख रही हो बार-बार?

ऐसे ही दीदी।

मास्टरनी जब से वापस आई है तब से बिस्तर पर लेटी है, जेठानी कई बार खाना खाने बोल चुकी है, हर बार मना कर दिया।


देर रात जब रामप्रसाद वापस आ कर पलंग पर गिरा तो मास्टरनी ने पुरा जग का पानी डाल कर जगाया।

क्या बदतमीज़ी है ये?

वही तो मैं भी जानना चाहती हूँ।

क्या मतलब?

वो औरत कौन थी जो बाँहों में हाथ डाले चल रही थी? वो बच्चा कौन था जिसका हाथ पकड़ कर तुम घुम रहे थे?

अच्छा, तो तुम जासूसी करती हो?

नहीं, लेकिन काश कर लिया होता।

देख ही ली तो सुनो, उस औरत को मैं अपने जान से भी ज़्यादा चाहता हूँ। वो बच्चा उसी का है, मैंने उसे अपना नाम दिया है, हम दोनों ने ठान रखा है की हम कोई और बच्चा नहीं करेंगे। और हाँ, मैं उसे तुमसे पहले से जानता हूँ।

तो तुमने मुझसे शादी क्यों की?

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भैया को पुछो, उन्हें ही मेरी शादी कराने की चूल्ल मची थी।

हाँ, मैं करूँगी बात, तुम्हारे भैया से भी और अपने घरवालों से भी।

उस रात घर में खुब कोहराम मचा था। ग़ुस्से में रामप्रसाद ने चमड़े के बेल्ट से मारा था। मास्टरनी के पीठ से माँस उधेड़ दिया था। सुबह-सुबह ही मास्टरनी ने थाने जा कर रपट लिखा दी। पुलिस वालों ने भी रामप्रसाद को जी भर कूटा था। बात अदालत तक पहुँची तब सास ने हाथ जोड़ते हुए मास्टरनी से विनती की थी। बुजुर्ग औरत का रोना उसे मजबूर कर गया रामप्रसाद को छोड़ देने के लिए। आख़िर वो भी तो औरत थी, पिघल गया उसका दिल।

मास्टरनी जिस दिन थाने गई थी उसी दिन से स्कूल के क्वार्टर में रहना शुरू कर दिया था।

बाद में दुसरे प्रखंड में तबादला कर कर वहीं रहने लगी।

धीरे-धीरे वहाँ के लोगों ने भी अपना मान लिया और दो कमरों का घर बनाने में मदद भी किया।

इधर जब तक रामप्रसाद जवान रहा तब तक उस औरत के साथ रहा। जब वो रिटायर हुआ तब उस औरत का बेटा भी बड़ा हो चुका था। दोनों ने मिल कर रामप्रसाद के सारे पैसे हड़प लिए। जब वो बुढ़ापे की तरफ़ बढ़ा तो उसके कर्मों की सजा उसे उसी औरत और उसके बेटे से मिलने लगे।

अब तो रामप्रसाद न घर जा सकता था और न ही अकेले रह सकता था। भटकते-भटकते उसकी हालत किसी कुत्ते जैसी हो गई थी। अन्ततः वो मास्टरनी का पता ढूँढने में कामयाब हो गया। मास्टरनी के पैरों में गिर कर आसरे की भीख माँगने लगा। मास्टरनी अब उसे मारती या धिक्कारती तो भी कुछ वापस न मिलता।

मास्टरनी परिस्थितियों से एक बार फिर हार गई और उस निर्लज्ज को घर के बाहर वाली कोठरी में रहने की अनुमति दे दी। धीरे-धीरे लोगों को पता चल गई वो निर्लज्ज ही उसका पती है।


उसके होने न होने से मास्टरनी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन फिर भी काम वाली से कह रखा है, उसको तीन पहर खाना और जरुरत की सारी चीज़ें दे देने के लिए।

आज उसके कर्मों ने सारा हिसाब पुरा कर दिया, उसके प्राण पखेरू हर लिए। लोगों ने उसके कर्मों को दरकिनार कर उसके लिए बाँस का बिस्तर सजाया। मास्टरनी का व्यवहार ही था जो पड़ोस के लोग उसकी अंतिम क्रिया करने आ गए। वो लड़का भी तैयार हो गया मुखाग्नि देने।

जब रामप्रसाद के निर्जीव शरीर को ले गए तब मास्टरनी दहाड़ मार कर रोने लगी।

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तुमने मुझे दो बार छोड़ दिया।

तुमने मेरे सारे स्वाभिमान चकनाचूर कर दिए।

क़िस्मत यहाँ भी मेरे साथ दगा कर गई, पहले मैं जाती और तुम अकेले रहते तब तुम्हें पता चलता कैसे मैंने काटे हैं इतने दिन अकेले।

ग़ैर के पाप को तुमने अपना नाम दिया उसी ने तुम्हें धक्के मार कर भगाया। मेरे पास क्यों आए थे तुम? मुझे तो नफ़रत थी तुमसे, फिर दोबारा क्यों अपनाया तुझे? तुम दोबारा वापस आना, इस बार तुम मेरा जन्म लेना। कोई और ले तुम्हारा जन्म। वो वह सब तुम्हारे साथ करे जो तुमने मेरे साथ किया।

मुकेश कुमार (अनजान लेखक)

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