“बहु या बेटी” – ऋतु अग्रवाल

  “अरे चलो भाई! जल्दी बहू को विदा कराओ। अगर देर हो गई तो जगह-जगह जाम मिलने लगेगा।”

“हाँ बात तो सही है,” सतीश जी ने कहा और अपनी पत्नी समिधा जी से कहा कि समधन जी को विदाई के लिए बोलो। थोड़ी ही देर में विदाई शुरू हो गई।बहु अवधि सब के गले लग कर रोने लगी।माहौल बड़ा गमगीन हो गया।

  “सतीश,”नवीन जी की आवाज सुनकर सतीश जी,नवीन जी के पास पहुँचे।

“जी, भाई साहब”

“सतीश तुझे कब अक्ल आएगी”

“क्यों, क्या हुआ भाई साहब?”

“अरे तूने बहू के पिताजी से कुछ कहा या नहीं।”

“क्यों कुछ कहना था क्या भाई साहब?”


“अरे तू भी ना बस, रिवाज है कि जब बहू को विदा करा कर ले जाते हैं तो लड़की वालों को सांत्वना देने के लिए कहते हैं कि फिक्र ना करें। हम बहू नहीं बेटी ले जा रहे हैं।”

“अच्छा ठीक है भाई साहब अभी कह देता हूँ।”सतीश जी बोले।

“भाई साहब अब अनुमति दीजिए और आप जरा भी फिक्र ना करें। मैं अपनी बहू को ले जा रहा हूं और आपकी बेटी मेरे घर में बहू का मान सम्मान  अधिकार एवं भरपूर स्नेह पाएगी।” सतीश जी ने अवधि के पिता दिवाकर जी से कहा।

इतना सुनते ही वर और वधू पक्ष में कानाफूसी शुरू हो गई।

“क्या कह रहा है तू ?” नवीन जी गरजे।

“क्या हो गया भाई साहब।”

“ऐसा भी भला कोई कहता है क्या?”

“मैं सही कह रहा हूँ भाई साहब” सतीश जी बोले।”मैं अपनी बहू को अपने घर ले जा रहा हूँ ना कि अपनी बेटी को।” इसमें गलत क्या कह दिया मैंने? अवधि मेरे घर की बहू है । मेरे परिवार की कुलवधू है ।हाँ,वो मेरे घर में बेटी जितना प्यार और स्नेह पाएगी परंतु मेरे घर की मर्यादा,रीति-रिवाज, परंपरा और नियम का पालन करने के लिए उसे एक बहू का दायित्व निभाना होगा।”

“भाई साहब बेटियाँ पराई अमानत होती हैं। उन्हें हम दूसरों के घर की अमानत के तौर पर सहेजकर रखते हैं।वो घर की इज्जत होती है। परंतु बहू परिवार की इज्जत और वारिस दोनों होती है। वही एक परिवार, खानदान की परंपरा को आगे बढ़ाती है ।उनके कर्तव्य और अधिकार बेटियों से इतर होते हैं। वह तो उसे मिलेंगे ही,उससे कहीं ज्यादा मिलेगा। मैं यह नहीं कहता कि हम अवधि को नियति से कम स्नेह,स्वतंत्रताऔर प्यार देंगे। अवधि जो चाहे पहने,खाये। जहाँ चाहे जा सकती है उस पर  कोई रोक टोक नहीं लगेगी । उसे प्यार और स्नेह के अलावा मेरे परिवार के अधिकार, कर्तव्य, जिम्मेदारी भी मिलेंगे।

“क्यों अवधि बेटा? मैंने कुछ गलत कहा क्या?” सतीश जी ने प्रश्नवाचक नेत्रों से अवधि की ओर देखकर कहा।

“नहीं पापा,मुझे गर्व है कि मुझे आप जैसे पापा ससुर मिले।आपने चली आ रही परिपाटी को नहीं निभाया बल्कि आपने न केवल मुझे बल्कि उपस्थित सभी लोगों को समझा दिया कि बहू की अपनी अहमियत है और बेटी की अपनी।मुझे आपकी सोच पर फख्र है  और मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मैं बहू और बेटी दोनों की भूमिका बखूबी निभाऊँगी और इसमें मेरी मदद नियति दीदी करेंगी।” “आप मेरी मदद करेंगी न दीदी”?

“बिल्कुल भाभी।” नियति ने अवधि का हाथ थामकर कहा।

शामियाने में खड़े सभी लोग सतीश जी को हर्ष मिश्रित दृष्टि से देख रहे थे और अवधि, नियति का हाथ थामकर एक नए संसार की ओर बढ़ गई।

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