बहू तुम बड़ी पत्थर दिल हो – अर्चना खण्डेलवाल

सुबह -सुबह मेघना जी उठकर रसोई में गई, तो उन्हें वहां कुछ समझ नहीं आया, फिर भी उन्होंने दो -चार रेक खोलकर चाय पत्ती, शक्कर और चाय का बर्तन ढूंढ ही लिया, गांव में तो खुली रसोई थी, सब कुछ सामने ही मिल जाता था, पर ये शहरों की रसोई हर चीज छुपी होती है, एक चीज ढूंढने के लिए कितनी सारी अलमारी खोलनी होती है, उन्होंने जैसे तैसे करके चाय का पानी चढ़ा दिया।

अब उसमें दूध डालना था, सामने अलमारी नुमा फ्रिज खोलना चाहा तो वो उनसे खुला ही नहीं, दो-चार बार कोशिश की, पर वो नाकाम रही, गैस बंद करके वो अपने पति सोहन जी को बुलाकर लाई, और फ्रिज की तरफ इशारा किया, ये फ्रिज तो खुली ही नहीं रहा है, और बहू ने दूध इसी में रखा होगा।

सोहन जी ने कोशिश की और बोले, बहू ने फ्रिज में ताला लगा रखा है, ये फ्रिज चाबी से ही खुलेगा, ये सुनते ही मेघना जी को आश्चर्य हुआ, फ्रिज में ताला कौन लगाता है? घर में कोई छोटा बच्चा भी नहीं है, दिन भर कोई नौकर भी नहीं रहता है, हम ही हैं जो कुछ दिनों के लिए बहू-बेटे के पास रहने आये है, हमारे लिए ताला लगाया है?

कल रात बस  से वो शहर पहुंचे थे, बहू माला नौकरी करती थी, और आज रविवार था तो उन्होंने सोचा कि उसे क्यूं परेशान करूं? खुद ही चाय बना लेती हूं, आजकल की बहू-बेटी वैसे भी देर से उठती है, सभी कुछ ना कुछ काम करती है, एक रविवार ही तो उन्हें आराम के लिए मिलता है।

सोहन जी ने घड़ी की ओर देखा  आठ बज रही थी, उन्हें चाय की तलब लग रही थी, छह बजे चाय पीने वाले सोहन जी को आठ बजे तक भी चाय नहीं मिली थी, वो परेशान हो रहे थे, मेघना जी ने कमरे का दरवाजा खटखटाना भी जरूरी नहीं समझा, दोनों बॉलकोनी में बैठकर बहू के उठने का इंतजार करने लगे।

दस बजे करीब माला उठी और रसोई से बाहर ड्राइंग रूम के सोफे पर आकर पसर गई, पीछे-पीछे बेटा रोहित आया, और उसने रसोई में जाकर देखा तो समझ गया कि मां ने चाय बनाने की कोशिश की पर उन्हें दूध नहीं मिला।

माला से चाबी लेकर रोहित ने फ्रिज खोला और चार कप चाय बना ली, मां -बाबूजी को भी चाय दे दी, दोनों कुछ नहीं बोले और चुपचाप चाय पीने लगे, तभी माला रसोई में कप रखने आई तो पहले वाला चाय का बर्तन देखकर चिढ़ गई, अरे!! ये आपने चाय की भगोनी जला दी, आपसे चाय बनाने को किसने कहा था, ये चाय और खाने-पीने का सामान सब रोहित संभालते हैं, आपको मेरी रसोई में घुसने की क्या जरूरत थी??

माला के मुंह से ऐसी बातें सुनकर मेघना जी चुप रह गई, अभी दो महीने पहले रोहित ने अपनी पसंद से शादी की थी, दोनों एक ही कंपनी में काम करते थे, दोनों के परिवार वालों ने रजामंदी दे दी, वैसे भी आजकल लड़के-लड़की एक दूसरे को पसंद करके ही शादी करते हैं, परिवार और उनकी भावनाएं उनके लिए कोई मायने नहीं रखते हैं।

बारह बज चुके थे, पर नाश्ते का कोई प्रबंध नहीं था, सोहन जी को दवाई लेनी थी, उन्होंने मेघना जी को कहा, वो ड्राइंग रूम में बैठे बेटे को बोली, बेटा नाश्ते में क्या है? नहीं तो मैं बहू को अपने हाथ से बनाकर खिला दूं, तुझे तो पता है कि तेरे बाबूजी दस बजे भोजन ही कर लेते हैं, और अब बारह बजने को आये है, सुबह से भूखे हैं।

मां, आप चिंता मत करो, माला ने खाना स्वीगी से ऑर्डर कर दिया है, वो अभी आता ही होगा, रविवार को घर में खाना नहीं बनता है, क्योंकि हेमलता खाना बनाने वाली रविवार को खाना बनाने नहीं आती है।

अच्छा, खाना बनाने वाली आती है, वो आज नहीं आई तो क्या हुआ? मैं जल्दी से तेरी पसंद की आलू टमाटर की सब्जी, गरमागरम पूडियां और बूंदी का रायता बना देती हूं, मेघना जी सोफे से उठते हुए बोली तो रोहित ने हाथ पकड़कर बैठा दिया, नहीं मां आप आराम करो, खाना बनकर आ रहा है।

तभी माला बाहर आती है, जब खाना आ रहा है तो आपको बनाने की क्या जरूरत है? बेकार ही रसोई गंदी होगी और आज बर्तन वाली भी नहीं आयेगी।

थोड़ी देर में ऑर्डर आ जाता है, सोहन जी और मेघना जी खाने के लिए बैठते हैं, जिसमें खाना आया था, उसी को माला आगे सरका देती है, मतलब उसी में खाओ और उसे बाद में फेंक देना है।

दोनों मां -बाबूजी आश्चर्यजनक रह जाते हैं, खाने के नाम पर बहू ने चाउमिन और मोमोज मंगवाये थे।

रोहित बेटा, ये क्या है? ये खाना तो नहीं है, हमें लगा कि रोटी, सब्जी, रायता होगा, सोहन जी बोले।

बाबूजी, रोटी सब्जी तो आप अपने गांव में ही खाते रहते हो, यहां पर कुछ नया खाइये, माला बेशर्मी से पहला टुकड़ा मोमोज का मुंह में रखते हुए बोली, इन सबमें भी बहुत स्वाद होता है, खाकर तो देखिए, माला ने दबाव डाला।

रोहित चुपचाप था, उसने कुछ नहीं कहा, मेघना जी और सोहन जी ने खा तो लिया, लेकिन उन लोगों का पेट नहीं भरा।

बहू, तुम कहो तो मैं चार रोटी सेंक लूं, हमें ये सब खाने की आदत नहीं है और पेट भी नहीं भरा, अचार से ही खा लेंगे, मेघना जी ने बहू की रसोई में खाना बनाने की आज्ञा लेनी चाही तो माला बिफर गई, आप लोग तो वहीं पुराने गांव के रहेंगे, मैंने फालतू ही पैसे खर्च किए, यहां आकर भी आपको अपने मन की करनी है, मैंने कहा ना रविवार को मेरी रसोई में खाना नहीं बनता है, मुझे रसोई साफ-सुथरी पसंद है, सुबह भी आपने चाय बनाकर गंदी कर दी, मैं रात को इसकी फ्रिज का ताला लगाकर सोई थी, ताकि आप चाय और नाश्ता बनाकर मेरी रसोई को फैला ना दो।

छह दिन लगकर ऑफिस में काम करती हूं, आपके बेटे से ज्यादा कमाती हूं, एक रविवार भी अपनी मर्जी से जी नहीं सकती क्या? और ये क्या रोटी सब्जी लगा रखा है? पेट भरना है, कुछ भी पेट में डाल लो, भर जायेगा, और माला पैर पटकते हुए अंदर कमरे में चली गई।

मेघना जी और सोहन जी के पैरों से जमीन सरक गई, उन्होंने कातर आंखों से अपने बेटे को देखा वो भी सिर झुकाये खड़ा था, जो गांव में अपने मां -बाबूजी के साथ पला था, जिसने चूल्हे की गर्म रोटियां खाईं थी, खेत की सब्जियों का स्वाद चखा था, छाछ दही के बिना एक दिन नहीं निकलता था, आज उनका बेटा कैसे एक पत्थर दिल पत्नी के साथ बसर कर रहा है?

ये उनके ही संस्कार थे कि वो पति-पत्नी का रिश्ता एक खेल ना समझकर सच्चे मन से निभाने की कोशिश कर रहा था।

सोहन जी कमरे में आये और सामान बांध लिया, रोहित ने रोकने की कोशिश की, बेटा, तेरी पत्नी ने एक ही दिन में सब रंग दिखा दिए, हम तो महीने भर की सोचकर आये थे, हम गांव के है, पर समय के साथ अपनी सोच भी बदली है, हम ये तो नहीं कह रहे हैं कि बहू जल्दी उठें, साड़ी पहनें, हमें खाना बनाकर खिलाएं, तेरी मां तो ये सोचकर आई थी कि, बहू नौकरी करती है, उसे कहां समय मिलता होगा, मैं बहू को नई-नई चीजें बनाकर खिलाऊंगी, वो तो अपनी बहू का ख्याल रखने और उस पर प्यार बरसाने आई थी।’

इतने में माला कमरे से बाहर आ जाती है, ‘ये क्या 

खटपट लगा रखी है, और सामान देखकर बोली, आप लोग जा रहे हैं?

अब मेघना जी की बारी थी, हां हम जा रहे हैं, बहू तुम बड़ी पत्थर दिल हो, तुम अपने पति की इच्छाओं और खाने-पीने का ध्यान नहीं रखती हो, दिन-रात मेहनत इंसान चैन की रोटी खाने के लिए करता है, पर तुम आजकल की कमाऊ बहूंए पैसे तो कमा लेगी, कपड़ों, गहने, मेकअप, घर की साज सजावट, फर्नीचर और घूमने फिरने में लाखों खर्च कर देगी, लेकिन घर में दो लोग आ जाएं, तो खाने-पीने में कंजूसी करेगी, होटल से मंगवाये खाने में हजारों का बिल भर देगी, लेकिन घर पर सास-ससुर या  अन्य रिश्तेदार आयें तो उनका दो समय का खाना भी तुम लोगों को बोझ लगता है, बड़ा खर्च लगता है।

ये आधुनिक रसोई तुम्हें ही मुबारक हो, जिस रसोई से किसी का पेट नहीं भरें, बुजुर्ग सास-ससुर भूखे रह जायें, ऐसी आधुनिक रसोई तुम ही संभालों, इस रसोई से कोई भूखा चला जाएं, वो तुम्हें मंजूर है, लेकिन अपनी रसोई को बिखराना पसंद नहीं है।

पेट भरने के लिए कुछ भी पेट में डाल दो, बाजार से मंगवा लो, लेकिन उस खाने में शुद्धता और पौष्टिकता तो नहीं होती है, हमारी सोच आजकल तुम्हें गंवारू लगेगी, पर यही तो देश का दुर्भाग्य है, युवा पीढ़ी पाश्चात्य संस्कृति में ढल गई है, उसने अपना रहन-सहन, कपड़े, खाना -पीना सब उस हिसाब से कर लिया है, तुम ऐसी हो तो तुम जिस पीढ़ी को जन्म दोगी, वो कैसी होगी?

पाश्चात्य लोग हमारा खान-पान और जीवनशैली अपना रहे हैं, और तुम लोग उनके जैसे बनके सब रिश्तों, भावनाओं, सम्मान को भुलाकर पत्थर दिल बनते जा रहे हो, ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दें।

रोहित और माला चुपचाप सब सुनकर खड़े रह जाते हैं, और सोहन जी मेघना जी का हाथ पकड़कर गांव की बस पकड़ने को निकल जाते हैं।

धन्यवाद 

लेखिका 

अर्चना खण्डेलवाल

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