बहु से बहुरानी तक – आशा झा सखी : Moral Stories in Hindi

 मध्यमवर्गीय परिवार में आजकल रिश्तों से अधिक धन को महत्व दिया जाने लगा है।अधिकांश लड़ाई-झगड़े,कलह-क्लेश की मुख्य वजह धन ही होता है।

      आशुतोष जी के दो बेटे और एक बेटी है।  दोनों बेटे प्रियम और प्रखर  विवाहित हैं। प्रियम बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत है और उसकी पत्नी निभा इंटर कॉलेज में व्याख्याता है।छोटा बेटा प्रखर  स्वयं का व्यवसाय करता है।उसकी पत्नी समिधा भी प्राथमिक शिक्षिका है। आशुतोष जी कुछ  समय  पूर्व ही बेटी रचिता का  विवाह कर  पारिवारिक उत्तरदायित्व से निवृत्त हुए हैं। अब अपनी छोटी सी पेंशन से अपना और अपनी भार्या  का जीविकोपार्जन कर रहे हैं। 

  बेटी के विवाह के समय उन्होंने अपने दोनों बेटों के बीच धन के व्यय को  खींचतान देखी थी। इसलिए  विवाह के बाद  जीवन की शांति के लिए दोनों बेटों को अलग- अलग कर अपने उत्तरदायित्व से मुक्त कर दिया। आशुतोष जी  अपने घर को इस तरह बाँटा कि एक भाग प्रियम के,दूसरा भाग प्रखर के और तीसरा भाग बेटी रचिता के नाम कर दिया। बेटी वाले भाग में वो स्वयं रह रहे हैं।

      वैसे तो सब सामान्य ही चल रहा है,पर जब से बहुओं को पता चला है पापा ने अपना हिस्सा ननद रचिता के नाम कर दिया है। तब से ही गाहे- बयाहे इस बात को लेकर टीका-टिप्पणी कर देती हैं।घर की सुख-शांति के लिए   सुमेधा जी  इन बातों को अनदेखा और अनसुना सा कर देती हैं।

    आज सुमेधा जी अपना घर का काम समाप्त कर जैसे ही लेटने को हुई कि फोन की घण्टी बजने लगी। जैसे ही फोन उठाया, चीख पड़ी- नहीं——।चीख सुनकर  आशुतोष जी, जो बगल के कमरे में टीवी  देख  रहे थे आ गए।सुमेधा के आँखों में  आँसू देख कर हाथ से फोन ले लेते हैं। उन्होंने जब हल्लो कहा तो सामने से रचिता की आवाज सुनाई दी। उसने रोते हुए बताया- पापा आपके दामाद का एक्सीडेंट हो गया है ऑफिस जीते समय। डॉक्टर ने ऑपरेशन के लिए बोला है। जल्द से जल्द ऑपरेशन करवाना पड़ेगा। उसके लिए कल तक दस लाख जमा करवाने हैं। पापा प्लीज आप  कैसे भी करके आप व्यवस्था कीजिये न।  इतना बोलते हुए रचिता रो पड़ी।

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     आशुतोष जी रचिता को ढांढस बंधाते हुए बोले- परेशान मत हो। मैं करता हूँ  कुछ । कहने को तो आशुतोष जी कह गए,”मैं कुछ करता हूँ”।पर करें क्या उनकी भी समझ में कुछ नहीं आ रहा।जितनी भी  जमापूँजी थी वो बेटी के विवाह में खर्च हो गयी। सोना-  चांदी एक तो अधिक था नहीं। जितना भी था वो दोनों बहुओं को बाँट दिया था। ताकि भविष्य में कभी किसी तरह का आपसी विवाद न हो। पेंशन से जैसे- तैसे दोनों प्राणियों का गुजारा चल रहा है।बेटों से माँगने का उनका साहस न हो रहा। वो ये बात जानते थे कि अपने भविष्य का हवाला देते हुए मना कर देंगे। 

    तभी  दरवाजे पर दस्तक हुई।सुमेधा जी ने आंसू  पोछते हुए दरवाजा खोला। तो सामने समिधा को खड़े पाया।  समिधा ने अंदर आते हुए महसूस किया कुछ तो बात है।आज घर का वातावरण कुछ बोझिल सा है। उसने सास- ससुर की ओर देखा तो दोनों को ही उदास पाया। सुमेधा जी की आँखें तो रोते – रोते  सूजी हुई सी लग रही थी। उसने आशुतोष जी से पूछा- क्या हुआ माँ- पापा? आप लोग कुछ परेशान है? सुमेधा जी कुछ कहने को हुई कि  तभी आशुतोष जी ने  रोकते हुए कहा ,कुछ नहीं।तुम जाकर अपना काम करो।पर सुमेधा जी बोल पड़ी- दामाद जी का एक्सीडेंट हो गया है।ऑपरेशन के लिए दस लाख रुपये की आवश्यकता है। समझ नहीं आ रहा, क्या करें। 

       सुनकर  समिधा सन्न रह गयी।उसके मुंह से निकला- दस लाख! फिर बिना कुछ कहे ही वो अपने कमरे  में चली गयी।आशुतोष जी सुमेधा जी पर बरस पड़े।मैंने  तुम्हें मना कर रहा था न। पर तुम न मानी।देखा, पैसे की बात सुनकर कैसे चुपचाप  भाग खड़ी हुई।सुमेधा जी को पता नहीं क्यों एक आशा सी थी कि शायद सहायता मिल जाये।इसलिए उन्होंने बोल दिया। पर  ऐसा परिणाम  देखकर वो भी कुछ कहने की स्थिति में न  रहीं।

         रात को निभा और समिधा दोनों ही भोजन की थाली  ले आयीं और सांत्वना देते हुए भोजन करने का आग्रह करने लगीं। तभी प्रियम और प्रखर ने आठ लाख रुपये देते हुए कहा- पापा बस इतना ही है हमारे पास।आशुतोष जी की आँखों में खुशी के आँसू  आ गए।पर समस्या का अभी भी पूर्णरूपेण समाधान न निकला था। तभी  निभा और समिधा  अपने कमरों में गईं और कुछ देर में लौट आईं। निभा ने अस्सी हजार और समिधा ने अपना एटीम  देते हुए कहा- पापा इसमें डेढ़ लाख  के लगभग रुपये होंगे। अब तो आपकी चिंता मिट गई न।

     आशुतोष जी और सुमेधा जी ने दोनों के सर पर हाथ रखते हुए इतना ही कहा- हम्म्म्म।पर  संशय से बहुओं की ओर देखते हुए बोले- तुम लोग तो हमेशा ही एक- एक पैसे के लिए हम लोगों से ।  आज  अपनी जमापूँजी  दे रही हो।तुम लोग तो अपने  पतियों को भी कभी दिल खोलकर हम लोगों पर खर्च नही करने देती हो। तभी दोनों  बोली- आपको क्या लगा। क्या  सिर्फ आपके बेटे ही अपना धर्म निभाना जानते हैं।

हम बहुरानी भी अपना  कर्तव्य निभाना जानती हैं। पैसा समय की परम आवश्यकता है, इसलिए इसके पीछे भागते अवश्य हैं। पर परिवार का महत्व भी समझते हैं।जीवन का वास्तविक आंनद अपनों के साथ से ही आता है।अब आप ही सोचिये, यदि रचिता  परेशान होती  तो आप लोग भी चैन से न रह पाते। फिर रचिता और आप लोगों को बेचैन- परेशान देखकर हमारे पतिदेव भी कहाँ चैन पाते। अब  किसी की हो या न हो,पतिदेवों की चिंता तो हम लोग करते ही हैं।इतना तो आप भी मानेंगे।

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       आप लोग परेशान न हों  कल सुबह-सुबह ही हम सब निकलेंगे। रचिता से हम लोगों ने बात कर ली है। तभी प्रियम के फोन से मेसेज की टोन सुनाई दी।उसने मेसेज पढ़ा तो उदास हो गया और बोला, मैं नहीं जा पाऊँगा पापा।छुट्टी नहीं मिली। एक नए प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है इसलिए। तभी आशुतोष जी बोले- कोई बात नहीं बेटा। जो समस्या थी वो तो तुम लोगों ने हल कर ही दी है।वैसे भी काम डॉक्टर का है

तुम लोगों का नहीं। तभी समिधा और निभा बोल पड़ी- पर हम दोनों अवश्य चलेंगे। जहाँ बेटे खड़े न हो सकें उस समय उस जगह बहुरानी तो खड़ी हो ही सकतीं है न पापा।आशुतोष जी व सुमेधा जी मुस्कुराकर बोले- बिल्कुल बेटा और बहू वैसे भी एक दूसरे के पूरक होते हैं। एक दूसरे की कमी को पूरा करने वाले।   

 

आशा झा सखी 

जबलपुर( मध्यप्रदेश)

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