“सुनो! आज मैं बच्चों के पास ही सोऊँगी। राध्या को बहुत तेज बुखार है। सारा बदन तप रहा है उसका। रात को कुछ परेशानी हुई तो किससे कहेगी वह? रोमिल तो अभी बहुत छोटा है।” सुगंधा ने अश्विन की चिरौरी करते हुए कहा।
“मुझे कुछ नहीं पता। दवाई दे दी है न उसे। रात में बुखार उतर जाएगा। वैसे भी तुम्हारे यहाँ रहने से बुखार जल्दी उतर जाएगा क्या?” अश्विन ने सुगंधा का हाथ खींचते हुए कहा।
“नहीं! मैं नहीं जाऊँगी। तुम मेरी परवाह नहीं करते न सही पर बच्चों के बारे में तो सोचो। तुम्हारे ही बच्चे हैं। तुम्हें अपनी कामुकता पर जरा भी कंट्रोल नहीं है। कैसे पिता हो तुम?” सुगंधा चिड़चिड़ा गई।
“जबान चलाती है। वाह भई वाह! अब तो भाषण देना भी सीख गई है। एक झापड़ लगाऊँगा। चलती है कि नहीं?” अश्विनी ने सुगंधा को लगभग खींचते हुए कहा।
“नहीं जाऊँगी।बिल्कुल नहीं जाऊँगी।तुम इंसान नहीं जानवर हो। इतने साल तुम्हें और तुम्हारी वहशियत को बर्दाश्त करती रही पर आज सवाल मेरी बच्ची का है। वह बुखार में तप रही है और मैं उसे अकेले छोड़कर तुम्हारे साथ—-। छी!”सुगंधा ने दोनों हाथों से पलंग का पाया पकड़ लिया।
मां का घर – मंजू ओमर : Moral Stories in Hindi
सालों की घबराई सहमी हिरनी पर आज ममत्व की शेरनी हावी हो गई थी।
“चल! ड्रामा करती है।” ‘चटाक’ की आवाज पूरे घर में गूँज गई। आवाज इतनी जोरदार थी कि साथ वाले कमरे में सोई गीता जी को चौंका गई।वह चश्मा सँभालती हुई बाहर निकली। सामने का दृश्य देखकर
गीताजी अचंभित रह गई। उनका लाडला, सभ्य, इंजीनियर बेटा अपनी पत्नी के बाल पकड़े हुए था और उसे फर्श पर घसीट कर अपने कमरे की तरफ ले जा रहा था।
“अश्विन” गीता जी की कड़क आवाज से अश्विन और सुगंधा जड़वत रह गए।” यह क्या हो रहा है?तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई सुगंधा के साथ ऐसा व्यवहार करने की?”
“माँ! वह मेरी बात नहीं—-।”अश्विन माँ के सामने स्वयं को लज्जित महसूस कर रहा था। आखिर परिवार और समाज के समक्ष वह एक मर्यादित, संस्कारी, सभ्य इंसान का मुखौटा पहने था जिसका वास्तविक रूप केवल सुगंधा जानती थी।
“तेरी बात नहीं मानेगी तो तू उसके साथ बदसलूकी करेगा? तू मालिक है इसका?” वह तेरी पत्नी है। तेरी हर बात को मानने को बाध्य नहीं है। समझा?” तब तक सुगंधा आकर गीता जी से लिपट कर रोने लगी।
“क्या बात है सुगंधा?” मैं तो तुम दोनों को बहुत समझदार मानती थी, आज ऐसा क्या हो गया कि तुम दोनों इस कदर गैर जिम्मेदाराना व्यवहार कर रहे हो?” सुगंधा का सहमा चेहरा देखकर गीता जी ने उसकी पीठ पर हाथ फेरा तो सुगंधा रो पड़ी।
“जो रिश्ता विपत्ति बांटने के लिए बनाया जाता है वह खुद संपत्ति बांटने के चक्कर मे बंट जाता है।” – भगवती सक्सेना गौड़ : Moral Stories in Hindi
“माँ! यह पहली बार नहीं है। आज तक यह सब बंद कमरे में होता आया है। माँ! पहले ही दिन से अश्विन का व्यवहार मेरे साथ—–। वैसे वह बहुत अच्छे हैं पर वह रात को मुझे कहीं भी नहीं जाने देते। माँ! मैं इस से ज्यादा कुछ नहीं बता पाऊँगी। “कहकर सुगंधा ने नजरें झुका ली।
“इतने सालों से मेरे ही घर में यह सब कुछ चल रहा था और मुझे कुछ पता ही नहीं और तूने भी अपनी सास को कुछ बताना जरूरी नहीं समझा।” गीता जी के स्वर में नाराजगी थी।
“माँ! मैं आपके बेटे की शिकायत आपसे कैसे—?” सुगंधा चुप ही रह गई।
“हाँ! मेरे बेटे की शिकायत तुझे मुझसे करनी चाहिए थी। अगर यह कोई भी गलती करता है तो उस बात को जानने का, उसे सुधारने का मुझे पूरा हक है। मुझे तो इस बात पर आश्चर्य है कि तूने इतने सालों तक यह सहा कैसे?” गीताजी ने सुगंधा को गले लगा लिया।
“यह तुमने सही नहीं किया सुगंधा। यह हमारी पर्सनल बात थी, इसमें माँ को बीच में नहीं लाना चाहिए था। इसका अंजाम अच्छा नहीं होगा। मैं बता—-।” ‘चटाक् गाल पर इतना जोरदार थप्पड़ पड़ा कि अश्विन का गाल झनझना उठा।
“अंजाम? अंजाम की बात करता है। शर्म आती है तेरी बिजबिजाती सोच पर। तुझे मैं इतना सभ्य समझती थी पर तू तो जानवर निकला। कहाँ से सीखा यह सब? मैंने तो तुझे ऐसी परवरिश नहीं दी थी। याद रख! अगर तू मेरा बेटा है तो यह मेरी बहू है। इसमें मैं अपना अतीत, वर्तमान,भविष्य देखती हूँ। यह मेरा ही अक्स है। मेरी ही तरह निडर बनेगी और अगर आज के बाद तूने इसके साथ हुई बदसलूकी की तो सबसे पहले तेरी पुलिस रिपोर्ट मैं ही कराऊँगी और जब तक तू अपने व्यवहार को नहीं सुधारेगा तब तक सुगंधा मेरे या बच्चों के कमरे में रहेगी। सुगंधा! तेरी सास सदा तेरी ढाल बनकर तेरे आगे खड़ी रहेगी।” कहकर गीता जी सुगंधा को अपने कमरे में ले गई।
मौलिक सृजन
ऋतु अग्रवाल
मेरठ