यह बहुत सालों पहले की कहानी है,जब परम्पराओं का बहुत ही कठोरता से पालन किया जाता था।
बेटी के घर का पानी पीना भी पाप समझा जाता था।
सब स्त्रियां कितनी भी उम्रदराज क्यों ना हों,लंबा घूंघट हर समय चेहरे पर रहता।मजाल है कोई उनका चेहरा देख ले।
माधुरी की सासू मां ने एक दिन अचानक माधुरी से कहा,, दुलहिन, तुम्हारे अम्मा, बाबूजी तो अब गांव में अकेले ही रहते हैं, तो क्यों ना हम उन्हें हर त्यौहार पर अपने यहां बुला लिया करें। सब कोई साथ में हर त्यौहार मनायेंगे तो कितना मजा आयेगा। है ना।
आश्चर्य से देखते हुए माधुरी ने कहा, अम्मा जी, ऐसे कैसे हो सकता है,? वो भी गांव में। आपके रिश्तेदार और गांव वाले भला क्या कहेंगे ?
क्या कहेंगे,हम किसी से डरते हैं क्या? हमारे समधी और समधन हमारे घर घूमने आयें हैं, साथ में हम खुशियां मना रहे हैं। इसमें लोगों को क्यों देखना,सुनना।
बस तुम अपने मां पिता जी से बात करो। बस हमने जो कह दिया सो कह दिया।
माधुरी के ससुराल में केवल उसके ससुर, सासूजी ही रहते थे। इसलिए माधुरी अपने पति और बच्चों के साथ हमेशा आती जाती रहती।
माधुरी के पिता जी अपने जन्मस्थान की जमीन मकान बेच चुके थे। उन्होंने उसकी ससुराल से दस पन्द्रह किलोमीटर की दूरी पर खेत खरीद लिया था और बढ़िया मकान भी बनवा लिया था। बेटी,बेटे सब दूर शहर में नौकरी करते थे। बस छुट्टियों में और बड़े त्यौहारों पर ही घर आते थे। पर माधुरी के भाई भाभी और बच्चों को गांव का मौसम रास नहीं आता था। माधुरी उसके पति और बच्चे अपने गांव जरूर आते थे। पिता जी रिटायर्ड होने के बाद गांव में ही रहने लगे थे।
माधुरी की सासू मां बहुत ही गरम मिजाज और कठोर स्वभाव की थी, माधुरी को उनकी बात सुनकर हैरानी हुई।
उसने अपने मां पिता से पूछा पर उन्होंने साफ मना कर दिया।
माधुरी की सासू मां ने कहा, दुलहिन, फोन लगाओ और हमसे बात कराओ। जी मां जी,
उन्होंने माधुरी के मां से कहा, समधन जी,हम आप दोनों को बुला रहें हैं तो मना काहे कर रहीं हैं। आप दोनों वहां अजनबियों के बीच में रहते हैं। नये नये आयें हैं। अकेले दोनों प्राणी तीज त्यौहार पर चुपचाप बैठे रहते हैं अपने बच्चों को याद करते। अगर आप हमारे पास आ जायेंगे तो हम सब एक साथ त्यौहार मना लिया करेंगे, एक परिवार की तरह। हमें भी दुःख नहीं लगेगा कि आप दोनों अकेले उदास हो कर बैठें हैं।
“आखिर बहू के माता-पिता की भी हमारे लिए अहमियत है कि नहीं। “
आप बस एक दो दिन के लिए आ जाया करो। आपकी बेटी भी उदास और दुःखी रहती है कि जरा सी दूरी पर अम्मा बाबूजी अकेले रहते हैं , और हां हमें किसी की परवाह नहीं है।बस हम बेटे को गाड़ी लेकर भेज रहें हैं।आपको आना ही है, ये मेरा आदेश और प्रार्थना भी है।
माधुरी की मां अपने समधन के गुस्से और जिद को जानती थी इसलिए चुपचाप दामाद के साथ आ गईं। माधुरी के रिश्तेदारों ने घूंघट लिए एक नई महिला को देखा तो आश्चर्य से बोले,ई दुल्हनिया कौन है। सासूजी ने गर्व से कहा, हमारी समधन और समधी जी आयें हैं, हमने बुलाया है। नवरात्रि में एक दो दिन रहकर भजन कीर्तन और कन्या भोजन करवा कर चलें जायेंगे। औरतों ने हंसते हुए व्यंग्य कसा,हाय रमवा,अब ई समय आय गवा कि बिटिया के ससुरे मां ओकर महतारी बाप आके रहियैं।
गुस्से से माधुरी की सासू मां चिल्ला उठी, तो तुम्हारा पेट क्यों दुःख रहा है। तुम्हें काहे परेशानी हो रही है।अब से हम सब एक साथ सब त्यौहार मनाएंगे। हमारी बहू भी खुश और हमारे समधी समधन के साथ हम सब भी खुश।” हमारे समधी समधन जी हमारे लिए बहुत अहमियत रखते हैं, जैसे हम उनके लिए रखते हैं।”
रिश्तेदार और गांव वाले उनके तेजतर्रार स्वभाव से वैसे ही बहुत डरते थे ,सो उनकी हां में हां मिला कर चलते बने।
अब हर त्यौहार पर माधुरी की मां बहुत सारी मिठाईयां, नमकीन, बना कर माधुरी के पिता जी के साथ आतीं और सब मिलजुल कर हंसी खुशी होली, दिवाली,मनाती। कभी-कभी माधुरी के ससुराल वाले भी माधुरी के मायके मिलने जाते।
माधुरी के मायके और ससुराल वालों ने एक दूसरे की अहमियत को स्वीकार किया, एक दूसरे की क़दर जानी।
ये सिलसिला माधुरी की सासू मां के देहांत तक चलता रहा। उनके देहावसान के बाद माधुरी के माता-पिता उनकी तेरहवीं संस्कार करने के बाद ही अपने घर गये।
काश, दोनों परिवार इसी तरह हर सुख दुःख में एक दूसरे का साथ दें और एक दूसरे को अपने जीवन में अहमियत दें तो सबके जीवन में खुशियां ही खुशियां छा जाएं।
सुषमा यादव पेरिस से
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित