बहन तो बहन ही होती है – सीमा प्रियदर्शिनी सहाय  : Moral Stories in Hindi

“शशांक रिद्धि आने वाली है रक्षाबंधन पर! कितने दिन हो गए हैं उसे देखे हुए!

ये रक्षाबंधन तो खिल ही उठेगा उसके आने से।”

मां ने खुशी से यह खबर सुनाते हुए कहा तो एकबारगी से मैं जितना खुश हुआ उतना ही शौक्ड भी।

तबतक सुधा तीन कप चाय लेकर आई और कहा “अम्मा जी चाय बन गई।”

“हां हां सुधा बहू, तुमने सुना रिद्धि आ रही है रक्षाबंधन में।”

मैं सुधा की तरफ ही देख रहा था।

“बहुत अच्छा है अम्मा, कितने साल हो गए रिद्धि को आए हुए और रक्षाबंधन में आएगी तो कितनी खुशी की बात है भाई की तो कलाई सज जाएगी।”

सुधा खुशी से मुस्कुराते हुए बोल रही थी।

न जाने वह मुस्कुराहट उसके दिल से उठी थी या सिर्फ मां को खुश करने के लिए, मैं नहीं जानता!

मैंने चाय का कप उठा लिया।

सुधा और अम्मा चाय पीकर वहां से हटकर अपने कामों में लग गए  पर मेरा मन पीछे भागने लगा।

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मैं और रिद्धि दोनों भाई बहन पढ़ाई में बहुत ही अच्छे थे।

 मेरे पिता घनश्याम दास एक ऑफिस में चपरासी थे। बहुत ही साधारण, खींच तान कर चलने वाले जिंदगी हम वहन कर रहे थे। 

उसपर मैं एक पुरुष जिस पर मेरे माता-पिता दोनों की उम्मीदें टिकी हुई थी।

मैं  पढ़ाई के बाद धक्के खाता रहा पर नौकरी मिली ही नहीं।

रिद्धि जैसे ही बीए में आई, पिताजी ने कर्ज लेकर एक पढ़ा लिखा लड़का देखकर उसकी शादी कर दिया।

वह अपनी जिंदगी में खुश थी।

मैं एक ट्यूशन सेंटर में पढ़ाने लगा था।

अपना घर था इसलिए सुकून था नहीं तो जिंदगी बस चल रही थी।

अब मेरी जिंदगी फिर से उसी कहानी को रिपीट करने जा रही थी।

मैं अपने बच्चों को उम्मीद भरी निगाहों से देखा करता।बड़ी मुश्किल से मैं बच्चों को पढ़ा भी रहा था।

बच्चे अपनी स्कॉलरशिप लेकर पढ़ाई कर रहे थे तो मुझे फिलहाल थोड़ी राहत थी।

अब इस समय रिद्धि के आने की खबर सुनकर मैं खुश नहीं था ।

भले ही रक्षाबंधन था पर आने वाले खर्च की लिस्ट देखकर मेरा मन घबरा उठा था। रक्षाबंधन के गिफ्ट से लेकर आने जाने, लेनदेन, मिठाई के डिब्बे और उसे पर वह इतने  सालों बाद आ रही है, तो दामाद जी और  बच्चों को  भी अच्छा ही गिफ्ट देना होगा

मैं चुपचाप मंथन कर रहा था ,कोई एक दो स्टूडेंट और मिल जाए तो शायद थोड़े पैसे बढ़ जाए ।

बड़े ही उधेड़बुन में मैं बैठा हुआ था कि सुधा की आवाज आई “आज कहां खोए हैं जी? आपको ट्यूशन सेंटर भी नहीं जाना क्या?”

“अभी जाता हूं, तैयार होकर आता हूं।”

मैं तैयार होकर निकल गया।

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 देखते ही देखते राखी का त्यौहार आ गया।  एक शाम पहले ही रिद्धि अकेली ही आईं।

वह बिल्कुल वैसी ही थी, हंसती मुस्कुराती हुई।उतने ही गर्मजोशी और स्नेह से सुधा से गले लग गई और उसे जोर-जोर से झूलाते हुए बोली “कैसी हो भाभी? आपको तो मैंने सच में बहुत मिस किया। 

आपके हाथ के हलवा और कचौड़ियां मुझे बहुत याद आते थे।

कल रक्षाबंधन में आप यही बनाना।”

 सुधा की आंखें भर आई।

भले ही वह बहन नहीं थी पर एक छोटी बहन की तरह वह उससे प्यार करती थी और उसे बहुत ही ज्यादा सम्मान  भी देती थी।

उन दोनों के प्रेम को देखकर मेरी आंखें भर आई।

भले ही ईश्वर ने मेरी झोली नहीं भरी मगर एक बहुत ही संस्कारी पत्नी और एक बहुत प्यारी बहन मुझे दे दिया है ,मुझे सब कुछ मिल गया।

दूसरे दिन रक्षाबंधन था सुबह से रिद्धि किचन में लगी हुई थी।

“तुम यहां क्या कर रही हो? इतनी गर्मी में रसोई में क्यों घुस गई हो ?”

“मैं आपके लिए जलेबियां बना रही हूं भैया आपको बहुत पसंद है ना।”

जलेबियों के साथ उसने सूजी के उपमा और गुलाबजामुन भी बना लिया था।

“अब आएगा मजा राखी बांधने में ।”

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उसने आरती का थाल सजाया। उसमें दीपक, रोली,चावल रखकर पहले मेरी आरती उतारी फिर माथे पर रोली का तिलक लगाया मेरे सिर पर अक्षत बिखेरा फिर हाथों में रेशमी राखी।

“अब मेरा गिफ्ट?”उसने अपने हाथ फैलाया। बहुत ही शरारत से बोली “अगर पैसे नहीं मिले तो मिठाई नहीं मिलेगी।”

मैं कांपते हुए हाथों से पांच सौ रुपए के दो नोट उसके हाथों पर रख दिया। वह फूल सी खिल गई।

उसने जल्दी से जलेबी लेकर मेरे मुंह में डाल दिया।

तभी सुधा एक सुंदर सा कॉटन का सूट लेकर आई और उसे रिद्धि को थमाते हुए बोली” रिद्धि यह एक साधारण सा तोहफा मेरी तरफ से!”

“भाभी यह तो बहुत सुंदर है, साधारण कहां है?”

वह खुशी से थिरकती फिर रही थी।

उसने मूवी के दो टिकट मेरे हाथ में रखते हुए कहा “भैया भाभी आज आप दोनों का दिन है। आप दोनों जाकर फिल्म देखकर आइए ।आपके फेवरेट हीरो की फिल्म है।”

“अरे नहीं रिद्धि! मैं नहीं ले सकता?”

“नहीं भैया आज आप दोनों फिल्म देखने चलेंगे और रात का खाना मै बनाऊंगी।”

मेरे शून्य से पड़े हुए घर में अचानक ही बहार आ गई थी।

हम दोनों तैयार होकर दिन के खाने के बाद 2:00 बजे के शो देखने के लिए निकल गए।

वहां घर से बाहर निकलते ही जकड़न भरी सोच से मैं बाहर निकल आया। रिद्धि मेरी बहन है, मेरी सांस, मेरी आत्मा। मुझसे जुदा थोड़े ही है।”

शाम को वह पनीर की भुर्जी दाल और रोटियां बनाकर हम लोगों का इंतजार कर रही थी।

खाने के टेबल पर भी उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं था।

“रिद्धि,आज तो मजा ही आ गया। कितना टेस्टी खाना बनाई हो। बिल्कुल बहन के प्रेम में घोलकर।

घर में बहन का होना कितना जरूरीहै।आज लग रहा है कि घर खिल गया है।”सुधा ने खुशी जताते हुए उससे कहा।

“नहीं भाभी, ऐसा नहीं है। पापा के जाने के बाद आप और भैया ने मुझे कभी यह एहसास भी नहीं होने दिया कि मैं,,,पराई हो गई हूं!!”उसका स्वर भीग गया।

“अरे पगली,यह तुम्हारा ही घर था सदा से।”

मेरे कुछ कहने से पहले ही सुधा ने बोल दिया।

“भैया आपको याद है ना बहुत पहले जब राखी आई थी तब आपने मुझसे कहा था कि तुम ही खाना बनाओगी!”

 और मैंने आपसे कैसे झगड़ा किया था?”

“हां!याद है।”मैं मुस्कुराया।

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“पर मैं उस बात को भूल नहीं पाई।उस के बाद मेरी शादी हो गई और फिर कभी रक्षाबंधन में आने का मौका भी नहीं मिला।”

 “अरे छोटी-छोटी बातें हैं!” सुधा हंसने लगी।

“ भाभी आपने अपने मायके से मिले हुए सारे गहने मुझे दे दिए थे क्योंकि पापा के पेंशन पर सरकारी तलवार लटक चुकी थी!ये भी छोटी-सी बात है?”

“हां, रिद्धि उस समय यही उपाय था और कुछ नहीं। गहने तो आते-जाते रहेंगे।”सुधा ने  जवाब दिया था पर वह मेरे गले में अटक गया।

उसके सारे गहने रिद्धि को दे दिया गया  और मैं आज तक कोई गहना नहीं बनवा पाया ।

न ही पिताजी ने। उन्होंने प्रॉमिस किया था लेकिन अब वह अचानक ही चल बसे थे।

“जाने दो रिद्धि,यह पुरानी बातें हो गई है।यह सब परिवार में चलता रहता है।”मैंने बात को टालने की कोशिश की।

“नहीं भैया यह सब बड़े भाई और भाभी का बड़प्पन है। आप ही लोगों के त्याग ने मुझे आज अपनी दुनिया में  सेटल किया है।”वह सुबक उठी।

“रिद्धि आज त्योहार के दिन रो मत!”मैं ने उसके सिर पर हाथ फेरा।

उसने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया।

“भैया आज रखी है आप मेरी किसी भी बात को टालेंगे नहीं और मना भी नहीं करेंगे।”

उसने मेरा हाथ अपने सिर पर रखते हुए कहा।

“अरे मैं आज तक मना नहीं किया अब क्या करूंगा?”

“ आप मेरी बात मानेंगे ना !”

“हां हां मानूंगा !”

“ठीक है!”वह अपने कमरे में जाकर अपने पर्स से पचीस पचीस हजार रुपए के दो चेक लेकर आई।

उसने मेरे हाथों में थमाते हुए कहा “भैया यह आयुष और शैली के नाम पर फिक्स कर दीजिए। उन दोनों की पढ़ाई के काम आएगा।”

“अरे यह तुम क्या कर रही हो?विकास जी क्या सोचेंगे?”

“ नहीं भैया विकास जी क्यों सोचेंगे? यह रुपए तो मेरे हैं।

आपको पता है ना कि आपने ही मुझे सिलाई की ट्रेनिंग दिलवाया था कभी मुश्किल समय के लिए।

मैं वहां अपना सिलाई का बिजनेस भी चलाती हूं। यह रुपए मेरे हैं। सबकुछ आपका ही दिया हुआ है।”

उसने दो चेक मेरे हाथों में जकड़ दिया।

मैं अपलक उसे देखता रहा,,, कितनी बड़ी हो गई है मेरी बहन।

“जुग जुग जियो बहना!”मेरे मुंह से बस यही निकला।

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प्रेषिका -सीमा प्रियदर्शिनी सहाय 

नई दिल्ली 

#बहन

पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित रचना।

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