बदलाव* –  मुकुन्द लाल

दफ्तर की ड्यूटी से लौटने के बाद कौशल जब घर पहुंँचता तो उसकी नवोढ़ा धर्मपत्नी के जूड़े में गुंथे हुए फूलों की खुशबू उसके होश ऐसे उड़ा देते थे कि उसको अपने बच्चों की सुध लेने की जरूरत ही महसूस नहीं होती थी। ज्योति अपने पापा को टुकुर-टुकुर देखती रह जाती थी,  किन्तु उसको कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं होती थी।

 पहले दफ्तर से लौटने के बाद ज्योति के साथ जब तक बातचीत नहीं करता, उसके साथ घंटे-आधघंटे नहीं खेलता उसे संतोष नहीं होता था।

 कौशल की पत्नी का प्रसवोपरांत मृत्यु हो गई थी। उसके नवजात शिशु और ज्योति के लालन-पालन व देख-रेख की समस्या उसके सामने मुंँह बाये खड़ी थी। उसके माता-पिता की मृत्यु वर्षों पहले ही हो गई थी। ऐसी स्थिति में वह खोया-खोया सा रहने लगा था। उसे अपने जीवन में रिक्तता और अधूरापन महसूस होने लगा था, फिर भी वह दूसरी शादी करने के लिए राजी नहीं था। पड़ोस के बड़े-बुजुर्गों के परामर्श की वह अवहेलना नहीं कर सका। अपने बच्चों की देख-रेख और पालन-पोषण के निमित उसने आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि वाले परिवार की लड़की छाया से शादी कर ली।

 कई महीनों तक तो सब कुछ ठीक-ठाक था, लेकिन समय बीतने के साथ-साथ छाया का रंग-ढंग बदलने लगा।

 कौशल के यहाँ किसी चीज की कमी नहीं थी। सुख के सारे संसाधन मौजूद थे। उसके अंतस में उठने वाली इच्छाएं व आकांक्षाएं बलवती होने लगी थी।


 उसने स्वतः कहा, ” भले ही उसके पति की यह दूसरी शादी है किन्तु मेरे लिए तो यह पहली ही है। उसे हर सुख-सुविधाओं को भोगने का हक है।.. और फिर मेरा इसमें दोष ही क्या है?.. नई शादी और दो बच्चों के संभालने, उसके पालन-पोषण की जिम्मेदारी, यह कैसी विडंबना है, कहांँ का न्याय है?”

 आये दिन बच्चों की देख-रेख और लालन-पालन में आई खामियों से खिन्न होकर उसने छाया से कहा,” घर कैसे अव्यवस्थित हो जाता है?.. तुम्हारा रवैया बच्चों के प्रति गैरजिम्मेदाराना हो गया है। लापरवाही बढ़ती जा रही है। बच्चों पर से तुम्हारा ध्यान हट गया है। “

उसने चुप्पी साध ली, फिर कुछ मिनट के बाद उसने अपना चेहरा दूसरी ओर फेर लिया।

 पुनः कौशल ने कहा, ” मैंने दूसरी शादी खासकर बच्चों की देखभाल करने के लिए ही की थी, लेकिन यहाँ तो उल्टी धारा बह रही है। पंछी की तरह फुदकने और चहकने वाली ज्योति गुम-शुम रहने लगी है। उसके चेहरे की रौनक चली गई है।

” देखिये जी!.. हम इतना बड़ा बोझ नहीं संभाल सकते हैं, कोई दूसरी व्यवस्था कीजिए बच्चों के लिए।.. आखिर मेरे भी तो कुछ अरमान हैं। मेरा उमंग-उत्साह तो घरेलू बोझ के नीचे दबकर अंतिम सांँसें ले रहा है। जीवन नीरस मालूम पड़ने लगा है।”

 छाया ने खासकर पहली पत्नी से कुछ माह पहले जन्म लेने वाले शिशु को अनाथालय या किसी ऐसी व्यावसायिक एजेंसी को सुपुर्द करने की राय दी जो पालन-पोषण का काम करती है।

 उसकी बातें सुनकर थोड़ी देर तक वह खामोश रहा, फिर उसने छाया की राय पर स्वीकृति की मोहर लगा दी।

   ज्योति को विश्वास करना मुश्किल हो रहा था कि उसके पापा वही हैं या बदल गए हैं।


  स्वरचित

 मुकुन्द लाल

 हजारीबाग

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