बड़े होने का फ़र्ज़ – ऋतु यादव : Moral Stories in Hindi

भाई साहब के क्रियाकर्म के पश्चात घर लौटे कीर्तन जी निढ़ाल हो चारपाई पर बैठ गए। पत्नी सुशीला जब पानी का गिलास लेकर बोली, “लीजिए” तो वर्तमान में लौटे। सुशील जी से नज़रें मिलते ही आंखों में दो आंसू कीर्तन जी के न चाहते हुए भी लुढ़क ही गए। 

सुशीला जी कुर्सी सरकाकर पास बैठते हुए बोली, “रोते क्यों हो जी? भाई साहब तो मुक्त हुए हैं, कितने समय से परेशान थे तन से भी और मन से भी। देखिए ना भाई साहब घर चलाने के लिए शुरू से ही कोल्हू के बल की तरह कमाते रहे, कभी अपने फर्ज से मुंह नहीं मोड़ा ।भाइयों में सबसे बड़े थे तो पहले मांजी बाऊजी का हाथ बंटाने के लिए जल्दी कमाने लग गए थे।

फिर बच्चे हो गए तो उनके लिए और अंतिम समय में जब उन्हें जरूरत पड़ी तो सबने मुंह मोड़ लिया, पर कहते हैं ना सब कहां परिपूर्ण होता है।”

कीर्तन जी मन ही मन सोचने लगे, “सही ही तो कह रही है सुशीला। भाई साहब 21 बरस की उम्र में ही फौज में भर्ती हो गए थे, फिर बड़ा परिवार था तो तीनों बहनों की शादियां, छूछक सब भाई साहब ने ही तो निपटाए। इस दौरान उनकी भी शादी हो गई और तीन बेटे। उस समय में कितना गर्व करते थे भाई साहब तीन बेटों के बाप होने का। पर कहते हैं

ना सब कहां परिपूर्ण होता है। भाई साहब साल में 2 महीने छुट्टी आते, उस दौरान खेत का, खाट बनाने का, बहनों के यहां वहां आने जाने का, यारी रिश्तेदारी निभाने का अन्य सभी काम पहले से निश्चित होते। इसलिए न चाहते हुए पत्नी एवं बच्चों को समय कम ही दे पाते थे। बच्चे भी धीरे-धीरे उनके बिना जीना सीख गए थे और पत्नी का भी अपना ही सामाजिक दायरा हो गया।

ऐसे कहने को कोई कमी नहीं थी परंतु भाई साहब भी इस चीज से अनभिज्ञ नहीं थे कि परिवार से जितना जुड़ाव होना चाहिए उतना उनका विभिन्न कारणवश नहीं हो पाया। सभी बहनों और भाइयों की शादियों के बाद अलग होने के पश्चात भी बड़े भाई साहब यह सभी जिम्मेदारियां निभाते रहे। बस इतना ही था कि अब उनकी तनख्वाह एवं जो पूंजी थी

वह केवल पत्नी एवं बच्चों के लिए थी। समय गुजरता गया भाई साहब के तीनों बेटे भी सही कमाने लग गए और भाई साहब रिटायर आ गए। कितना खुश थे भाई साहब के भाई अब तुम्हारी भाभी को जितनी भी शिकायतें हैं सब दूर कर दूंगा पोते पोते खिलाऊंगा आराम से। पर होता वही है जो होनी को मंजूर होता है। आते ही भाई साहब को लकवा मार गया और वह धीरे-धीरे ठीक भी हो गए परंतु इससे हमेशा के लिए उनकी आवाज़ चली गई एवं अब वे बेंत के सहारे ही थोड़ा बहुत चल पाते थे।”

बेटे अपने जीवन में फिर से व्यस्त हो गए और अब भाभी का भी अपना ही सहेलियों का जमावड़ा रहता। चूंकि भाई साहब बोल नहीं पाते तो मन की बातें कहीं साझा नहीं होती इसलिए जल्दी झल्ला जाते थे तो पोता पोती भी धीरे-धीरे उनसे दूर होने लगे। बेटे बहू तो थे ही ही अपने जीवन में व्यस्त। अब भाभी भी उनके साथ कम ही बैठती।

कीर्तन जी जब भी महीने में एक दो बार शहर से गांव आते तो भाई साहब के पास बैठते और उनकी मन की बातें कागज़ पर लिखवा लिखवा कर उनसे सुनते। तो भाई साहब बताते कि अब मेरे पास कोई नहीं बैठता मैं सारी जिंदगी इन सबके लिए ही तो इनसे दूर रहा। भाई साहब की यह शिकायतें जब कीर्तन जी भाभी मां को बताते तो उनका कहना था

यह तो खाट पर बैठा ही है मैं भी इसके साथ बैठ जाऊं क्या? घर के काम और सामाजिक जिम्मेदारियां तो निभानी ही हैं। मैंने भी तो सारा जीवन उनके बिना सब्र किया है, इन ने तो खाली पैसे देकर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी हुई समझी। बहुत कोशिशें के बाद भी कीर्तन जी भाभी मां और बच्चों को यह नहीं समझा पाए के केवल भोजन और दवाई ही काफी नहीं है

बल्कि किसी इंसान को स्वस्थ करने के लिए उसके पास बैठ मन लगाना भी एक ज़रूरी चीज है। और इसी गम में भाई साहब बस साल भर के अंदर ही सब को छोड़कर चले गए कि उनका इस जीवन में कोई नहीं है, अकेलेपन के इस दंश ने उन्हें खा लिया।कीर्तन जी भी आखिर कितना समय दे पाते।

तभी सुशीला जी फिर से बोली, “कहां खो गए जी? एक दिन तो सभी को जाना है चाहे भाई साहब हो या आप और हम। वैसे भी भाई साहब अपनी सारी जिम्मेदारियां पूरी करके गए हैं, और दुख पाने से अच्छा है कि भगवान उठा ले। उठिए और नहा लीजिए।”

कीर्तन जी बोले, “सही कह रही हो सुशीला पर बस जब तक बड़े भाई साहब थे ऐसा लगता था कि किसी बड़े का साया और आशीर्वाद है। अब वह चले गए तो बड़ा अकेलापन सा महसूस हो रहा है।” 

सुशील जी समझा हुए कहने लगी,”देखिए जी बहुत साल छोटे होने का लाड़ ले लिया अब उठिए और अपने घर परिवार में सबसे बड़े बुजुर्ग होने की ज़िम्मेदारी संभालिए। आप पहले नहाइए फिर चलिए जीजी और बच्चों के लिए भी मैंने खाना बना लिया है, उन्हें भी जाकर खाना खिला कर आएंगे। अब घर परिवार में सबसे बड़े आप ही हैं तो आपको ही सब संभालना है।” 

कीर्तन की आंखों में संबल लिए बोले, “सुशीला मैं कितना भाग्यशाली हूं, तुमने सारी उम्र मेरा हमेशा ख्याल रखा और मुझे संभाल सही फैसला लेने के लिए प्रेरित किया। बस इस बात का ही मलाल है कि कुछ कारणवश मेरे भाई साहब के हिस्से में सब होकर भी कुछ खुशियां अधूरी रह गई । पर तुम्हारे वाली बात है की सब कुछ कहां परिपूर्ण होता है ,बस हम जितना पूरा कर सके उसे करने की कोशिश करते हैं। चलो मैं नहा लेता हूं तब तक तुम खाना रख लो फिर भाभी मां और बच्चों को संभाल कर उनके साथ ही दो कौर खा लेंगे। यह कह चल दिए सुशील जी अपने बड़े होने का फ़र्ज़ निभाने ।

लेखिका 

ऋतु यादव 

रेवाड़ी हरियाणा

# मुहावरा मुंह मोड़ना

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