बदलता जमाना – बालेश्वर गुप्ता : Moral Stories in Hindi

  माँ जी, हिचक छोड़ मुझे नौकरी करने की इजाजत दे दे।अब पहले वाला जमाना नही रहा है, माँ जी अब लड़कियां भी हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है।और अपने परिवार में सहयोग कर रही हैं।

        वो सब मैं भी जानती हूं पर बेटी हमारे खानदान में महिलाएं नौकरी नही करती।अब तू ही बता,तू तो अच्छी भली नौकरी कर ही रही थी,पर आशीष से तेरी बात पक्की होते ही,हमने तेरी नौकरी छुड़वाई थी ना?

     और आपके कहने पर मैं तैयार भी हो गयी थी,पर अब इन चार वर्षों में परिस्थिति बदल गयी हैं। पहले केवल देवर जी की पढ़ाई का खर्च था अब आपका पोता स्कूल जाने लगा है, और आजकल एक बच्चे की पढ़ाई का खर्च हजारों रुपये माह बैठता है।आशीष कहते कुछ नही पर उन पर खर्च का दवाब है।कल ही कह रहे थे,सोच रहा हूँ उर्मि रात्रि में कोई पार्ट टाइम जॉब ढूंढ लूं,ताकि कुछ अतिरिक्त आय हो जाये।माँ जी जब आशीष दिन रात काम करेंगे बीमार हो गये तो?तब हमारा क्या होगा?मान जाओ माँ जी।

          नगर निगम में क्लर्क की नौकरी कर रहे आशीष के विवाह का उसकी माँ ने सोचा तो उसके कई रिश्ते आये पर माँ कोई पसंद नही आया।उर्मि पर आकर माँ की निगाहें जरूर अटक गयी।सुंदर सलोनी उर्मि को एक नजर में ही कोई भी पसंद कर सकता था, सो  आशीष और उसकी माँ को उर्मि भा गयी।बस दिक्कत एक थी कि उर्मि एक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी करती थी,जो आशीष की मां को नामंजूर था।

उनका साफ कहना था,महिला को घर संभालना चाहिये और पुरुष को कमाना चाहिये।माँ का यह भी कहना था कि हमारे खानदान में महिलायें नौकरी नही करती।थोड़ी ना नुकुर के बाद उर्मि के माता पिता उर्मि की नौकरी छुड़वाने को तैयार हो गये।इस प्रकार आशीष और उर्मि की शादी तय हो गयी।

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       आशीष और उर्मि की शादी होने पर पूरे घर मे खुशी का माहौल छा गया।उर्मि ने भी अपने इस नये घर को अपने मे आत्मसात कर लिया।पूरे घर की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली।शादी के अगले वर्ष ही उर्मि और आशीष को पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हो गयी।माँ जी को तो पोते के रूप में एक खिलौना ही मिल गया,वे तो रात दिन पोते को अपने से चिपटाये रहती।आशीष ने छोटे भाई सुमित को शहर में एमसीए करने भेज दिया था।

पिता के न होने के कारण सब जिम्मेदारी आशीष की ही थी।आशीष और उर्मि ने कभी भी सुमित को बोझ नही माना।जब मुन्ना के स्कूल जाने का समय आया तब आशीष का हाथ तंग हो गया।इसी स्थिति को समझते हुए उर्मि माँ जी को अपनी नौकरी के लिये मना रही थी।माँ जी ने भी स्थिति समझते हुए अनिच्छा होते हुए भी उर्मि को नौकरी करने की अनुमति दे दी।

        संयोगवश उर्मि को उसी विद्यालय में नौकरी मिल गयी,जहां से उर्मि ने शादी से पूर्व छोड़ी थी।उर्मि की जिम्मेदारी अब कुछ अधिक बढ़ गयी थी,पर मुन्ना को माँ जी संभाल लेती थी,सो उर्मि ने अपने को उसी रूप में ढाल लिया।उर्मि की कर्मठता और परिवार के प्रति समर्पण को देख माँ जी का सीना चौड़ा हो जाता।

    उधर सुमित ने एमसीए पूरा कर लिया और उसने जॉब ढूढना प्रारम्भ कर दिया।शीघ्र ही उसे एक अच्छी कंपनी में अच्छे वेतन पर नौकरी मिल गयी।सुमित ने जॉब जॉइन कर लिया।सुमित को जब पहला वेतन मिला तो वह सीधे उर्मि के पास आया और उर्मि के पावँ छू कर भावुक स्वर में बोला भाभी उस माँ ने तो जन्म दिया है,पर आपने तो इस परिवार के लिये अपने को झोंक दिया है।भाभी माँ ये रहा मेरा पहला वेतन।इसे स्वीकार करो

भाभी माँ।इतना अपना पन,इतना सम्मान पा उर्मि फफक पड़ी और सुमित को गले से लगा लिया।उर्मि सुमित का हाथ पकड़ कर माँ जी के कमरे की ओर बढ़ चली,पर माँ जी तो वही दरवाजे के पास खड़ी इस विहंगम दृश्य को देख अपनी नम आंखें पोंछ रही थी।उर्मि बोली माँ जी देखो

ना अपना सुमित कितना बड़ा हो गया है,पहली तनख्वाह लेकर आया है,माँ जी इसे आशीर्वाद दो,यह खूब उन्नति करे।माँ जी ने आगे बढ़ उर्मि को गले लगा बोली,मेरी बच्ची आशीर्वाद तो तू ही देगी,माँ का असली फर्ज तो तूने ही निभाया है।

     तभी आशीष जो शायद पहले से सब देख सुन रहा था,माहौल को हल्का करने के उद्देश्य से बोला,अरे उर्मि अब तो कम से कम मुझे खाना दे दे।और सब खिलखिलाकर हँस पड़े।

बालेश्वर गुप्ता, नोयडा

मौलिक एवम अप्रकाशित

#हम लोग भाग्यशाली हैं जो हमे समझदार बहू मिली साप्ताहिक वाक्य पर आधारित कहानी:

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