“सुगंधा बहू, तुम तो बहुत बड़े दिल वाली हो फिर मन छोटा क्यों करती हो! बेटी तो पराई धरोहर होती है। उसे तो एक दिन विदा करना ही पड़ता है।” सुगंधा की बुआ सास उसके कंधे पर हाथ रख यह कहते हुए उसे ढाढस बंधाने की कोशिश करती हैं, जो अपनी दुल्हन बनी बेटी महक को ससुराल के लिए विदा करते हुए अविरल आंसू बहा रही है।
अपने माता-पिता, भाई और घर-आंगन जहां वह पली-बढ़ी, से विदाई के गम में महक स्वयं भी रो रही होती है। लेकिन फिर भी अपनी भावनाओं के सैलाब को नियंत्रित करते हुए मां सुगंधा के आंसू पोंछते हुए कहती है, “बस मां, आप यहां रोती रहेंगी तो वहां ससुराल में मैं भी रोती रहूंगी।”
महक को विदा करने के बाद सारे मेहमान भी एक-एक कर विदा हो जाते हैं। सुगंधा अपनी बुआ सास से महक के पगफेरे के बाद जाने का अनुरोध करती है तो वह सुगंधा के भावों को समझते हुए रूक जाती हैं।
सारा दिन तो विवाह के बाद के अनगिनत कार्यों को निपटाने में निकल जाता है। उसके बाद सुगंधा की बुआ सास, पति और बेटा सभी कई दिन के थके होने के कारण गहरी नींद में समा जाते हैं। पर रात गहराने पर भी सुगंधा की आंखों से नींद बहुत दूर है। बेटी से दूरी उसे भावविह्वल कर रही है।
महक की एल्बम निकाल कर सुगंधा महक की तस्वीरें देखने लगती है। तस्वीरों में महक की मासूमियत और उसकी मुस्कान देखकर अपने मन को बहलाने की कोशिश करते हुए वह पुरानी यादों में खो जाती है।
सत्ताईस साल पहले सुगंधा ने सुरेश की पत्नी बनकर ससुराल रूपी कर्मभूमि में कदम रखा। उसके विवाह के अगले ही साल उसके देवर प्रताप की भी शादी हो गई। लेकिन पहले उसकी देवरानी पूर्णिमा एक प्यारी सी बेटी महक की मां बनी। महक के जन्म के दो महीने बाद सुगंधा की गोद में बेटा जतिन आया।
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दो-दो बच्चों की किलकारियों से उनका घर-आंगन खिल उठा। पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। अभी महक तीन महीने की हुई कि उसका देवर प्रताप एक सुबह दुकान के लिए घर से ऐसा गया कि फिर कभी वापस नहीं आया। उसे बहुत तलाशा। अख़बारों के माध्यम से, टीवी पर गुमशुदा…के माध्यम से भी। पर वह नहीं मिला। न जाने वह अब इस दुनिया में भी है या नहीं!
प्रताप के न मिलने के गम में सब बुझे-बुझे रहने लगे। शुरू में सुगंधा की देवरानी ने धीरज रखा, प्रतीक्षा की अपने पति के लौट आने की। महीने बीतने लगे और देवरानी पूर्णिमा और उसके मायके वाले बेचैन होने लगे, जो स्वाभाविक ही था।
पूर्णिमा के मायके वालों को उसकी आगे की पहाड़ सी जिंदगी की चिन्ता होने लगी। वह उसका फिर से विवाह करना चाहते थे। लेकिन उसकी बेटी महक को लेकर वे असमंजस में थे। उन्हें डर था कि पूर्णिमा अगर महक को साथ रखेगी तो उसकी वजह से उन्हें उसके लिए अच्छा घर और सुयोग्य वर नहीं मिल पाएगा।
तब सुगंधा ने बड़ा दिल करके नौ महीने की महक को खुशी-खुशी अपनी झोली में डलवा लिया। तब उसका बेटा जतिन केवल सात महीने का था। उसने दोनों में कभी कोई फर्क नहीं किया। दोनों को ही वह बारी-बारी अपना स्तनपान कराने लगी।
पहले अपने बेटे और फिर बहू के बिछोह को सुगंधा के सास-ससुर सह न सके और असमय ही इस दुनिया से प्रयाण कर गए। अपने भाई की अमानत पर अपनी पत्नी को ममता उड़ेलते देख सुगंधा का पति सुरेश स्वयं को समझाकर, निश्चिंत होकर अपना कारोबार संभालने लगा। वह अपनी पत्नी की विशाल हृदयता का कायल हो गया।
सुगंधा के लाड-प्यार में दोनों भाई-बहन साथ-साथ खेलकर बड़े होने लगे। सुगंधा पढ़ाई-लिखाई में ज्यादा होशियार थी तो जतिन से एक कक्षा आगे थी। दो महीने ही बड़ी थी जतिन से, फिर भी जतिन उसे दीदी कहा करता।
कोई सुगंधा को कहता कि तुम्हारा एक ही बेटा है, उसे भाई कब बना रही हो? सुगंधा चिढ़ सी जाती और बड़ी दृढ़ता से कहती, ” अरे! है तो वह महक का भाई! मेरे पास दो बच्चे हैं। प्रभु की कृपा से भाई-बहन की सुन्दर सी जोड़ी है। मुझे कुछ और नहीं चाहिए।”
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वैसे भी सुगंधा हमेशा सोचती, “अगर फिर से बेटी ही गई तो कहीं मेरा महक के प्रति प्यार कम न हो जाए। ना, बाबा ना!” सभी उसके बड़े दिल की दाद देते। उसकी बुआ सास तो जब भी आती तो महक को हमेशा कहती, “महक बेटी, तुम भी अपनी मां की तरह बड़े दिल वाली बनना।”
समय अपनी गति से चलता रहा और दोनों बच्चे पढ-लिख कर बड़े हो गए। जतिन सॉफ्टवेयर इंजीनियर हो गया और महक असिस्टेंट प्रोफेसर। एक छुट्टी वाले दिन सभी बैठकर गपशप कर रहे थे तो मजाक करते हुए जतिन कहने लगा, “मांपापा, अब दीदी की शादी कर दो क्योंकि उसी के बाद तो मेरी होगी!”
सुरेश और सुगंधा तो जैसे इसी अवसर की बाट जोह रहे थे। उन्होंने महक से खुल कर इस बारे में चर्चा की तो महक ने उन्हें अपने सहकर्मी, उसी की तरह असिस्टेंट प्रोफेसर, मानविक के बारे में बताया। सुगंधा और सुरेश जब मानविक से मिले तो बेटी की पसंद पर गर्वित हो गए। उन्होंने मानविक के माता-पिता से मिलकर दोनों का संबंध तय कर दिया और अगले ही महीने शादी की तारीख भी तय कर दी।
पर ईश्वर की माया के आगे किसी की नहीं चलती। दोनों पक्ष खुशी-खुशी शादी की तैयारियों में जुटे थे कि मानविक की भाभी अपने ऑफिस से आते हुए एक हादसे का शिकार हो गई। वह अपनी दो साल की बेटी शनाया को छोड़कर हमेशा के लिए इस दुनिया को छोड़कर चली गई। विवाह को छह महीने के लिए स्थगित कर दिया गया।
जिंदगी में आगे तो बढ़ना ही पड़ता है। छह महीने बाद अपनी प्यारी बेटी महक का सारे रस्मों रिवाजों के साथ, धूमधाम से विवाह किया सुरेश और सुगंधा ने।
“बेटी की विदाई से पहले माएं चिंतित होकर न जाने कितनी हिदायतें दे डालती हैं उसे। लेकिन महक को किसी हिदायत या निर्देश की आवश्यकता नहीं। हर कार्य में दक्ष और सर्वगुणसंपन्न है मेरी बेटी।” अभी भी महक की तस्वीरें देखते हुए ऐसा सोच कर गर्वित हो रही थी सुगंधा। उसे पता ही नहीं चला कि कब सवेरा हो गया। तभी फोन की घंटी बज उठी।
“मम्मी, हम पगफेरे के लिए 12 बजे तक आपके पास पहुंच जाएंगे।” मानविक फोन पर कह रहा था। पीछे से महक की खिलखिलाहट सुनाई दे रही थी सुगंधा को। सुनकर वह निहाल हो गई। रोना-धोना सब छोड़कर, अपनी बुआ सास के निर्देशानुसार सुगंधा बेटी-दामाद के आवभगत की तैयारी में जुट गई।
समयानुसार सब बेटी-दामाद का स्वागत करने प्रवेश द्वार पर जम गए। जैसे ही गाड़ी घर के बाहर पहुंची तो महक अढ़ाई साल की शनाया को अपनी गोद में प्यार से संभालते, दुलारते हुए गाड़ी से उतरी। उसके अंदाज से न केवल उसके परिवार वालों, बल्कि आस-पड़ोस वालों को भी बिल्कुल साफ समझ आ रहा था कि महक ने शनाया को वैसे ही अपना लिया है जैसे कभी सुगंधा ने महक को अपनाया था।
सुरेश जी गर्व से कभी अपनी पत्नी सुगंधा की ओर तो कभी अपनी बेटी महक की ओर देख रहे थे। सुगंधा ने खुशी के अश्रु बहाते हुए अपनी महक को आलिंगनबद्ध कर लिया।
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मां-बेटी की अद्भुत सहृदयता से अभिभूत, सुगंधा की बुआ सास प्रफुल्लता से कह उठी, “देखा सुगंधा बहू, मैं कहती थी न कि तुम्हारी बेटी महक का भी उतना ही बड़ा दिल है जितना तुम्हारा।”
-सीमा गुप्ता
( सत्य घटना से प्रेरित, मौलिक व स्वरचित)
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