मृत्यु शय्या पर पड़ी हुई हूँ ।डाक्टर ने जवाब दे दिया है ।उम्र भी तो हो ही गई है ।थोड़ा बहुत खाना खा लेती हूँ वह भी किसी की सहायता से ।कानों में बार बार के एल सहगल के गीत गूँजने लगते हैं ” बाबुल मोरा, नैहर छूटो जाय —” कौन सा नैहर? जो अब शायद छूटने वाला है, या वह जो पन्द्रह बरस में छोड़ आई थी।हाँ, कुल पन्द्रह साल की रही होगी जब एक दिन पिता जी को माँ से कहते सुना था वैशाली के लिए रिश्ता तय कर दिया है ।लड़का अच्छा है ठीक ठाक कमा रहा है ।परिवार भी अच्छा लगा ।हमे और क्या चाहिए? हमारी बहुत औकात भी नहीं है
कि किसी धनासेठ के यहाँ रिश्ता जोड़ें ? बहुत रोईं थी उस दिन ।यह क्या कर दिया बाबूजी आपने ।मेरी बहुत पढ़ने की तमन्ना, मन में ही रह गई ।समय पर शादी निबटा दी गई थी ।थोड़ा बहुत ले दे कर विदा कर दी गई थी मै ।सचमुच पिता के पास इतना था ही नहीं ।लेकिन सौभाग्य अच्छा था कि परिवार के लोग बहुत अच्छे लगे ।बहू के उपर बहुत अत्याचार के किस्से सुने थे पहले ।पर यहाँ ऐसा कुछ नहीं था।सास और जेठानी हाथ पर लिए रखती ।एक ननद भी थी सहेली जैसी।दिन भर घर में हिरनी सी उछलकूद करती, कब शाम हो जाती
, समय का पता ही नहीं चलता ।मायके से बहुत सारी बुनी हुई अपने हाथ का सामान लेकर आई थी।सोचा, घर सजाती रहूँगी।उस जमाने में बक्से में यही सब भर दिया जाता था कि देखो ससुराल वालों, मेरी बेटी कितनी होशियार है ।पर यहाँ कला की कोई कद्र नहीं थी।पहले ही दिन ननद ने मना कर दिया ” भाभी, यह फालतू चीज़ों को यहाँ मत लगाओ ।अच्छा नहीं लगता ।पति को कहा तो उनहोंने भी सबके हाँ में हाँ मिला दिया ।मन मसोसकर रह गई थी तब।बाबुल बहुत याद आये थे ।जी भर कर रोईं थी छिप कर ।वहां तो अपने मन से जैसा चाहती थी
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वैसे ही कर लेती थी।हाँ, एक दिन भाभी ने भी टोक दिया था ” बिट्टी, अपने घर जाना तो खूब सजाना ” सोच में पड़ी रही ।कौन सा अपना घर? वहां भाभी ने मना कर दिया, यहाँ ननद ने।अपने घर का कभी एहसास भी नहीं होने दिया किसी ने ।फिर भी मायके का मोह कम थोड़े ही कम होता है ।समय भागता रहा ।फिर दो बच्चों की माँ भी बन गई थी ।ससुराल की जिम्मेदारी निभाती रही थी कि खबर मिली पिता जी नहीं रहे ।पिता की बहुत लाड़ली थी।रो रो कर बुरा हाल हो गया था ।लड़की की पूरी जिंदगी भले ही ससुराल के लिए समर्पित रही हो पर बाबुल की गलियाँ हमेशा उसे खिंचती है ।माता पिता की बड़ी बेटी थी।दो छोटे भाई बहन, और मां के रहने की ,जीवन यापन की समस्या सिर पर खड़ी थी ।पति से विचार विमर्श किया तो उनहोंने साथ रखने की सहमति जताई ।
फिर पता नहीं जिम्मेदारियों का बोझ उठाते अपनी उम्र खिसकती रही ।अपने बच्चे, माँ के बच्चे, और परिवार के लोगों का आना जाना लगा रहता ।दुबली पतली सी काया पर अधिक बोझ पड़ा तो बीमारी ने अपना बसेरा बना लिया ।फिर समय और आगे बढ़ता गया ।सभी पढ़ लिख कर आगे बढ़ गये।बहन भी अपने ससुराल चली गयी ।भाई अपनी नौकरी पर चला गया ।अपने दोनों बेटे भी सर्विस में लग गये ।खैरियत रही कि मै उनके पास रही।पति भी तो इस बीच गुजर गए थे तो मेरा ठिकाना और कहाँ होता ।वैसे दोनों बेटे बहुत लायक रहे।मेरे लिए ।
कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी।बहुएं सेवा में लगी रहती ।पर मन का पंछी बावरा बाबुल की गलियों में पहुंच जाता ।आज जब शरीर साथ नहीं दे रहा है तो मन और भी उड़ने लगा है ।गांव की वह बड़ी सी हवेली ।बहुत याद आ रही है आज।बड़े बड़े नक्काशी दार दरवाजे ।दालान,गौशाले में गाय बंधी रहती ।घी दूध दही की कमी नहीं थी।लेकिन बहुत कहाँ रह पाई वहां ।पिता जी नौकरी की तलाश में बाहर निकले तो हमें भी कुछ दिनों बाद निकलना ही था।शहर में भी हमारा एक घर था जहाँ दादी और दादा जी रहते थे ।गांव का घर चाहे बहुत बड़ा था
पर पेट भरने और जिंदगी चलाने के लिए जितना चाहिए था उसकी कमी थी।बहुत संघर्ष के दिन थे हमारे लिए ।एक तरह से गरीबी में गुजर बसर करना ।अभी पिछली बहुत सी बातें चलचित्र की तरह आने लगी है ।शायद जल्दी ही आगे चले जाने का समय आ गया है ।छोटी सी थी मै, शायद चार साल की ।चेचक हो गया था मुझे ।पिता तो बाहर नौकरी खोजने में लगे थे।मां अकेले क्या करती ।अपनी छोटी सी बेटी को लेकर अपनी ननिहाल चली गई थी ।मां के भी माता पिता नहीं थे।तो मामा मामी का ही सहारा नजर आया ।मेरे पूरे बदन पर कहीं भी खाली जगह नहीं था।
चेचक के फफोले से चिल्लाने लगती थी मै तो फिर माँ ने चुपके से होमियोपैथी का इलाज कराया, वह भी नानी से छिपा कर।उस जमाने में अन्ध विश्वास भी तो बहुत था।नानी का कहना था कि चेचक होना, मतलब माता की कृपा मानी जाती थी ।दवा के असर से मै जल्दी ही ठीक हो गई थी ।बहुत दिनों तक बदनुमा दाग अपने पूरे शरीर पर महसूस करती रही ।लेकिन क्या कर सकती थी ।सबकुछ समय से निबटाया ।सबकी घर गृहस्थी संभालती रही ।और अब जब सुख का समय हो रहा था तो जान लेवा बीमारी ने घेर लिया ।
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हिचकी आ रही है ।ये हिचकी शायद जान लेकर ही छोड़ेगी ।आखों के आगे अंधेरा छा रहा है ।छः महीने से खाट पर लेटी हुई हूँ ।दोनों बहू मिलकर साफ सफाई, खाना, नहाने का सबकुछ अच्छी तरह निबटा देती है ।लेकिन मन का क्या करें? घूमता रहता है पुराने दिनों में ।कब बाबुल की गलियाँ हमेशा के लिए छूट गयी ।कब कहलाने को अपने घर आ गई जहां हमेशा अहसास दिलाया जाता कि अपने मर्जी का कुछ मत करो ।यह तुम्हारा अपना घर नहीं है ।तो कहाँ है मेरा अपना घर? जीवन भर सबके लिए खटती मरती रही ।
अब शायद उपर ही ईश्वर ने ठिकाना लिख दिया है ।बहुत जोरों की प्यास लगी है ।बड़ी बहू पानी लाने दौड़ कर गयी है ।लेकिन अब आखिरी साँस टूटने को है ।कानों में गूंजने लगा है ” बाबुल मोरा–नैहर छूटो जाय—” एक अंधेरे सुरंग में जा रही हूँ ।कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा ।सुनाई भी नहीं दे रहा है ।घर में भाग दौड़ हो रहा है ।मुँह में शायद गंगा जल डाल दिया गया है ।बस ,सबकुछ खत्म हो गया है ।फिर से सबलोग अपने अपने काम में लग जायेंगे ।थोड़ा बहुत रोना धोना भी होगा ।फिर कुछ दिन के बाद मेरा अस्तित्व भुला दिया जायेगा ।
यही तो है जिसे जिंदगी कहतें हैं ।सबलोग प्रार्थना कर रहे हैं कि मेरी आगे की राहें आसान हो।मुझे शान्ति मिले।मैने पहले ही कह दिया कि मेरे मरने पर फालतू दिखावा न करें ।दान ही करना है तो जरूरतमंद को कुछ मदद कर दे।मै नहीं चाहती कि फालतू आडम्बर से मेरे बेटे कर्ज में डूबे ।श्राद्ध तो मन का श्रद्धा है ।वह मुझे भरपूर मिला है अपने बच्चे से ।अब मुझे ले जाने की तैयारी होने लगी है ।मै भी अपनी राह पर बढ़ रही हूँ ।अलविदा दोस्तों ।
उमा वर्मा ।राँची, झारखंड ।स्वरचित, मौलिक ।