बाबुल का आंगन – रश्मि झा मिश्रा : Moral Stories in Hindi

“आज तक कौन सा सुख पाया मेरी बेटी ने… अपने बाबुल के घर में… जो उसे यहां की याद आएगी… क्यों आएगी…!” बोलकर रविंद्र जी एक ठंडी आह भरकर बिस्तर पर लेट गए…

 पूरे एक साल हो गए थे वसुधा के ब्याह को… मगर इन एक सालों में कभी घूम कर वह बाबुल के आंगन नहीं आई… सच ही तो था कौन सा सुख मिला था उसे यहां… 

बचपन में मां गुजर गई तो पूरे घर का भार उस नन्ही सी 15 साल की बच्ची के सर पर आ गया…

 पिता ने दूसरा ब्याह नहीं किया कि बच्चों को सौतेली मां का दुख नहीं दूंगा… पर पिता की इस सोच से… तीन छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारी वसुधा को ही निभानी पड़ी… 

वह बेचारी सबसे छोटे तीन साल के भाई की तो मां ही बन गई थी… बाकी दोनों बच्चे तो कुछ समझदार थे… मगर छोटा बबलू तो बिल्कुल नासमझ था…

 दसवीं में थी वसुधा उस समय… उससे छोटी रत्ना फिर कुसुम और सबसे छोटा सबका लाड़ला बबलू…

 वसुधा ने पूरा घर अच्छे से संभाल लिया था… रत्ना और कुसुम भी दीदी की बात मानते थे… अपनी पढ़ाई के साथ-साथ भाई बहनों की पढ़ाई लिखाई… पापा की देखभाल… सब करते कब वसुधा विवाह के लायक हो गई रविंद्र जी को पता ही नहीं चला… पता तब चला जब वसुधा के ममेरे भाई के ब्याह के समय… उसके ही ससुराल से आए दीनबंधु जी ने लड़की का हाथ रविंद्र जी से मांग लिया… 

अचानक जैसे रविंद्र जी को होश आया कि अब तो मेरी वसुधा भी विवाह लायक हो गई… पीछे दो और बहने हैं… सभी जवान हो गईं… बबलू भी बारह तेरह साल का हो गया… अब तो विवाह करना ही होगा…

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 उसी लग्न में… महीने भर बाद ही रविंद्र जी ने वसुधा का ब्याह उसी लड़के से कर दिया… घर परिवार सब देखा ही था… वसुधा का बिल्कुल मन नहीं था अभी ब्याह करने का… उसने पापा के पास बहुत मिन्नतें की…” पापा मेरी जगह आप रत्ना का ब्याह करवा दीजिए… तीनों भाई-बहन की जिम्मेदारी निभा लेने के बाद ही मैं अपने बारे में सोचूंगी… !”पर पापा कहां सुनने वाले थे…

 वसुधा का ब्याह हो गया… ससुराल बहुत दूर था… इतनी दूर जहां बस सोचने भर से नहीं पहुंच सकते…

 शुरू-शुरू में तो वसुधा घंटों वीडियो कॉल पर भाई-बहनों से लगी रहती… पूरा घर फोन पर ही संभालती… मगर कुछ दिनों में रविंद्र जी ने खुद ही एक दिन बेटी से कह दिया की…” बेटी इतना ध्यान इधर रखोगी तो ससुराल कैसे देखोगी… यहां की जिम्मेदारी पूरी हुई तुम्हारी… अब अपने ससुराल के लिए अपना फर्ज निभाओ…उनकी बेटी बनो…!”

वसुधा को यूं तो ससुराल वाले भी मना करते थे इतना दिन भर फोन में लगे रहने से… पर पिता का मना करना उसे बहुत बुरा लगा… उसके बाद से उसने फोन करना बहुत सीमित कर दिया… भाई बहन भी पापा के डर से कम ही कॉल करते थे… रविंद्र जी स्वयं ही कभी दो-चार दिनों में एक बार बेटी का हाल समाचार ले लेते थे…

 इस बीच कई तीज त्यौहार बीते… वसुधा कभी मायके नहीं आई… परसों रविंद्र जी अपनी नौकरी से रिटायर्ड होने वाले थे… इसके लिए उनके सभी खास दोस्त मित्रों की फोन पर बधाइयां आ रही थी… मगर वसुधा ने ना फोन ही किया… ना कोई बधाई ही दी… रविंद्र जी को लगा शायद वह खुद आ जाए… आखिर साल भर तो हो ही गए ब्याह को… अब तो मायके आ ही सकती है…

 इन्हीं विचारों में खोए रविंद्र जी बिस्तर पर पड़े थे कि तभी दरवाजे की घंटी बजी… सामने वसुधा ही नहीं उसका पूरा परिवार था… उसके सास, ससुर, पति, देवर सभी आए थे… रविंद्र जी की रिटायरमेंट सेलिब्रेट करने…

 वसुधा ने पापा के पैर छुए तो पापा ने उसे गले से लगा लिया… दीनबंधु जी आगे आए और रविंद्र जी की पीठ पर थपकी देते हुए बोले…” समधी जी वसुधा की मां भले एक हो पर पिता तो दो हैं ना… तो एक पिता का दर्द भला दूसरा पिता कैसे नहीं समझेगा… आपने हमारी बहू को हमारी बेटी बनने की नसीहत दी तो… मुझे भी तो इसका पिता बन इसकी खुशी का ख्याल रखना होगा…!” रविंद्र जी की आंखें भर आईं…

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 अच्छे से रिटायरमेंट पार्टी हो जाने के बाद… वसुधा भाई बहनों से विदा लेकर… अपने एक बाबुल का अंगना छोड़… दूसरे बाबुल के साथ वापस ससुराल चलने को हुई… तो पापा के पास जाकर उनके आंसू पोंछते हुए बोली…” पापा आप यह कभी मत सोचिएगा… कि मुझे यहां कोई सुख नहीं मिला… मुझे सब कुछ यहीं इसी आंगन से मिला… आपसे मिला… अपने भाई बहनों से मिला… और मैं इस आंगन को कभी नहीं छोड़ सकती… मैं तन से दूर भले जा रही हूं… पर मेरा मन हमेशा मेरे भाई बहनों और आपके पास है… मेरे भाई बहनों को और आपको जब भी मेरी जरूरत होगी… मैं सबका साथ देने जरूर आऊंगी… अगर आप खुद भी चाहें तो भी मुझे दूर नहीं कर सकते…!”

स्वलिखित 

रश्मि झा मिश्रा 

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