औरत की चाहे कितनी भी उम्र भले ही क्यों न हो जाएँ,परन्तु बाबुल का घर उसके जेहन में धरोहर की भाँति संचित रहता है!मैं उमा काॅलेज के कुछ काम से मायके के शहर में आई हूँ।आते समय पति ने चुहल करते हुए कहा था -” उमा!माता-पिता अब न रहें तो क्या हुआ?एक बार बाबुल की गलियाँ भी घूम आना!”
मैंने प्रत्युत्तर में कुछ नहीं कहा,परन्तु मन-ही-मन सोचती रही कि कभी चमन था वहाँ,अब केवल वीरानी ही पसरी हुई है,तो वहाँ जाकर क्या करूँगी?”
मेरा काम खत्म हो चुका था।मेरे मन में अंतर्द्वंद मचा हुआ था कि बाबुल के घर जाऊँ या न जाऊँ!अगले दिन सुबह-सुबह चाय पीते हुए चारों ओर सूर्योदय की आभा मन को मोह रही थी,परन्तु एक विचित्र झंझावात मन-मस्तिष्क में द्वन्द्व मचाए हुआ था।माता -पिता का प्यार-स्नेह मेरी नस-नस में लहू बनकर दौड़ रहा था।उनकी यादों को भूलना कहाँ आसान था!मूँदी हुई पलकों में बाबुल के घर में बिताया हुआ समय साकार हो उठा।मुझे देखते ही माँ-पापा का चेहरा कैसे खिल उठता था!मायके पहुँचने पर माँ बताती थी
कि हमेशा धीर-गंभीर रहनेवाले मेरे पापा पहुँचने तक बार-बार फोन लगाने को कहते।जब तक मैं अपने परिवार के साथ सुरक्षित पहुँच न जाऊँ,तबतक बरामदे में चहलकदमी करते रहतें।हमारे पहुँच जाने पर हाल-समाचार पूछकर निश्चिन्त होकर सो जातें।अब वहाँ मेरा कौन इंतजार करेगा?वहाँ जाकर क्या करुँगी?इस तरह के सवाल बार-बार मन में उठ रहे थे।अब समझ में आ रहा है कि माता-पिता का साया जबतक सर पर बना रहता है,तबतक बड़े होने पर भी हम खुद को बच्चा ही समझते हैं,परन्तु उनके गुजरने के बाद एकाएक बड़े होने का एहसास हो जाता है।
मुझे याद है कि माँ के गुजरने के बाद पापा कितने अकेले हो गए थे!नौकरों से घर भरा रहने के बावजूद हमारे लौटने के समय माँ की तरह हाथ पकड़कर रोने लगे थे। बगलवाली आँटी को बुलवाकर माँ के समान खड़े होकर पूजाघर में खोइछा दिलवाया था। जिस बात के लिए माँ को मना करते थे,अब खुद वही करने लगे थे।माँ के गुजरने के बाद मात्र छः महीने पापा जीवित रहें,परन्तु इन छः महीनों में हमने पापा को माँ बनते हुए देखा था।पहले बहुत जरुरी होने पर ही पापा फोन करते थे,
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परन्तु माँ के गुजरने के बाद हम तीनों भाई-बहनों को बार-बार फोन लगाते रहते थे।अपनी तकलीफ चाहकर भी हमें नहीं बता पाते थे।इतना लाचार और बेबस हमने पापा को कभी नहीं देखा था।जब उनसे अंतिम बार मिलकर लौट रही थी,तब उस समय उनकी आँखों में अजीब-सी बेचैनी और बेचारगी दिख रही थी।जवानी में अपना खास रूतबा और शेर सी दहाड़ रखनेवाले पापा माँ के जाते ही बेचारगी से भर उठे थे।उम्र के चौथे पड़ाव पर अकेले रह जाना तो अभिशाप है ही ,
उससे भी बड़ा अभिशाप है अपने बच्चों का साथ नहीं रहना।बच्चों के पास जाकर पराधीन रहना उन्हें पसन्द नहीं था और बच्चों की मजबूरी थी कि नौकरी छोड़कर उनके पास रह नहीं सकते थे।अपनों के अभाव में नौकर-चाकर मनमानी करने लगें थे।माँ के रहते उनकी एक आवाज भी अनसुनी नहीं होती थी,बाद में नौकर-चाकर भी उन्हें तेवर दिखाने लगे थे।उनसे मिलकर अंतिम बार लौटते वक्त भावातिरेक से उनके मुख से बोल भी नहीं फूट सकें, जिह्वा तालु में चिपककर रह गई थी,
बस आँखें झर-झर बह रहीं थीं।उनकी उदास, निष्प्रभ आँखों में पीड़ा घनीभूत हो उठी थी।पापा के गुजर जाने के बाद उतना बड़ा घर भी अपने बाग के माली के वियोग में खड़ा सन्नाटे में तड़प रहा था।वक्त की रफ्तार में रिश्तों की डोर,जिसमें हम सब भाई-बहन अटूट बंधन में बँधे थे,टूटती नजर आ रही थी।
सोचते-सोचते अचानक तैयार होकर यंत्रवत्-सी मैं अपने बाबुल की दहलीज पर जाकर खड़ी हो गई। बाबुल की दहलीज पर इंतजार करती हुईं माँ की आँखें न जाने किस लोक में जाकर गुम हो चुकींथीं!मेरी व्याकुल आँखें सूनी देहरी पर इधर-उधर भटकने लगीं,जैसे वे माँ-पापा को खोज रहीं हों।उसी समय शंभू काका दौड़कर चाभी लेकर मेरे पास पहुँच गए। बगल में रहने के कारण घर की देखरेख के लिए एक चाभी उन्हीं के पास रहती थी।घर खोलकर कुर्सी झाड़ते हुए शंभू काका ने कहा -” बिटिया!बैठ जाओ। बहुत दिनों बाद तुम्हें देखा है!”
मैंने उन्हें कहा -” शंभू काका!कुर्सी को बगीचे में आम के पेड़ के पास रखवा दीजिए। “
शंभू काका -“अच्छा बिटिया!वही रख देता हूँ।मालिक भी तो सदैव इसी आम के पेड़ के नीचे बैठे रहते थे।”
शंभू काका-” बिटिया!अचानक कैसे आना हुआ?”
मैंने कहा -” काका! मैं अपने काॅलेज के काम से आई थी।जब मैंने सुना कि भाई इस घर को बेच रहें हैं,तो एक बार फिर से बाबुल के घर को देखने और महसूस करने के लोभ का संवरण न कर सकी!”
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शंभू काका -” बिटिया!तुमने यहाँ आकर बहुत अच्छा किया।तुम्हारे लिए चाय-नाश्ता लेकर आता हूँ और तुम्हारी काकी को भी भेजता हूँ।तुमसे मिलकर काफी खुश हो जाएगी।”
मैंने कहा -” काका! ठीक है!”
मैं आम के पेड़ के नीचे बैठकर कुछ ही देर में पुरानी सुखद स्मृतियों में खो गई। पेड़ के नीचे बैठते ही मुझे माँ-पापा की स्पर्शानुभूति हो रही थी।मैं मुँदी पलकों से उनकी यादों के समंदर में हिचकोले लेने लगी। जब पापा ने यहाँ जमीन ली,तो बागवानी के लिए भी अलग से जमीन ली थी।पापा को बागवानी का बहुत शौक था।माँ -पापा ने तिनका-तिनका जोड़कर इतना बड़ा घर बनवाया था,जो आज निर्जीव सन्नाटे में खड़ा है।
मैंने कई बार उन्हें मना करते हुए कहा था -” पापा!आपके दोनों बेटे यहाँ नहीं रहेंगे,फिर खुद कठिनाई सहकर इतना बड़ा घर बनवाने का क्या फायदा?”
अन्य पिता की तरह पापा को भी पुत्र-मोह कुछ अधिक ही था।उन्होंने खुलकर तो मुझे कुछ नहीं कहा,परन्तु मैं समझ गई थी कि दोनों बेटों के लिए दो-दो फ्लोर बनवाना चाहते थे।पापा जो सोच लेते थे,वही करते थे।
घर बनने के शुरुआती दिनों में खाली जमीन पर पापा खूब बागवानी करते थे।धीरे-धीरे बढ़ती उम्र ने अशक्त कर दिया ,तो बागवानी भी छूट गई। परन्तु उनके लगाए हुए आम,अमरूद,लीची,आंवला के पेड़ हमारी आँखों के समक्ष बड़े होकर फल देने लगें।हम तीनों भाई-बहन इन पेड़ों के इर्द-गिर्द खेलते थे।सारा खाली समय हम बगीचे में तितलियाँ पकड़ने से लेकर उछलती गिलहरियों के साथ पूरे उत्साह से दौड़ा करतें।आम के मौसम में फल लगने पर हम तीनों भाई-बहन कोयल की कूक के साथ अपनी आवाजें मिलातें।गर्मी में
सुबह-शाम और जाड़े में दिनभर पापा -माँ इसी पेड़ के नीचे बैठते।यह आम का पेड़ हमारे बचपन के साथ-साथ हमारे विवाह का भी साक्षी रहा है।इसी पेड़ में मैंने अपनी शादी के कच्चे धागे लपेटकर पूजा की थी।दोनों भाईयों के जनेऊ में भी इसी पेड़ ने अपनी पवित्र और महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।यह पेड़ अपने बड़े और रसीले फलों से हर साल हमारी स्वागत करता था।सभी कहते थे कि इस पेड़ जैसे स्वादिष्ट और रसीले आम किसी अन्य पेड़ के नहीं होते थे।
पापा अपनी निगरानी में इन पेड़ों की देखभाल करवाते थे।फलों से लदा पेड़ हमारे साथ मानो मस्ती में झूमता रहता था।आज रख-रखाव के अभाव में यह पेड़ भी वीराने में उदास-सा खड़ा है।यह सब सोचते-सोचते मेरी आँखों से अनायास ही आँसू बहने लगें।
उसी समय शंभू काका ने आवाज देते हुए कहा-” बिटिया!क्या सोच रही हो?”
मैंने आँसुओं को पोंछते हुए पूछा -” काका!अब भी इस पेड़ के आम इतने ही स्वादिष्ट होते हैं?”
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शंभू काका -“बिटिया!रख-रखाव के अभाव में लगभग सभी पेड़ों ने फल देना बन्द कर दिया है। शायद इनके मन में भी सूनेपन का एहसास भर गया है।जब खानेवाले ही न रहें,तो फल किसके लिए देगा?”
शंभू काका की पत्नी ने चाय देते हुए कहा -” बिटिया!चाय पी लो।ठंढ़ी हो जाएगी।कुछ खा भी लो।गरीब के घर का तो तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा!”
मैंने काकी के दोनों हाथ पकड़ते हुए कहा-“काकी !अपनेपन की इसी डोर से खिंची तो यहाँ आ गई हूँ।”
जो प्यार और अपनत्व मुझे उन दोनों की आँखों में दिखाई दिया,वह मेरे अन्तस को आलोड़ित कर गया।माथे पर उनके स्पर्श के साथ उनकी आँखों में स्नेह की नमी थी।बचपन की मधुर स्मृतियाँ और अपनेपन की सौंधी सुगंध से मन भींग उठा।
चाय-नाश्ता करने के कुछ देर तक मैं बगीचे में टहलती रही।विश्वास नहीं हो रहा था कि माँ-पापा के गुजरने के बाद इस तरह परिदृश्य बदल जाएगा!जिन्दगी भी बड़ी अजीब है जिन्दगी के जो पल सबसे खुबसूरत होते हैं,एक समय बाद उन्हीं पर विश्वास करना कठिन हो जाता है।
सामने अड़हूल का पौधा उम्मीद के सहारे अभी भी फूलों से लदा खिलखिला रहा था,मानो अपनी मुस्कराहट में उदासी समेटे हुए मुझसे पूछ रहा हो कि मुझे देवी पर अर्पित करनेवाली माता कहाँ गुम हो गई?उसके फूलों को नर्म हाथों से सहलाते हुए मुझे एहसास हो रहा था कि इसमें माँ की छुअन शामिल है!उसके स्पर्श से मेरा रोम-रोम खिल उठा।माँ को खिले हुए फूल देखना बहुत पसन्द था।किसी को दो-चार से ज्यादा फूल तोड़ने नहीं देती
थी।यहाँ नीचे गिरे हुए फूल मानो शोक मना रहें हों।सामने लीची, अमरूद ,आंवला,पपीते में छोटे-छोटे फल लगे हुए थे,परन्तु उन पर चढ़कर बंदर उत्पात मचाए हुए थे। कच्चे फलों को तोड़कर फेंक रहें थे।इन्हें देखकर मुझे ऐसा महसूस हो रहा था मानो सभी पेड़ मुझसे शिकायत करते हुए कह रहे थे-” देखो! बिना मालिक के हमारी क्या दुर्दशा हो रही है?”
मैंने भी सोचा -“सही है!बिना माली के तो बागों की यही दुर्दशा होनी थी!”
आगे बढ़ने पर सामने उदास -सा खाली पड़ा हुआ तुलसी चौरा था।उसमें तुलसी जी सूखकर डंठल मात्र रह गईं थीं।माँ के गुजरने के बाद छः महीने तक कभी पूजा-पाठ न करनेवाले पापा ने जल देकर इन्हें जीवित रखा।माँ के लिए तो तुलसी जी देवी के साथ-साथ सर्दी-जुकाम की औषधि भी थीं।माँ-पापा के गुजरने पर बारी-बारी से उनका पार्थिव शरीर इन्हीं तुलसी जी के नीचे रखा गया था।इन्हें मुरझाए देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि माँ-पापा के समान निर्जीव होकर तुलसी जी भी बैकुंठ चली गईं हों।
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कुछ देर बाद दुबारा से चाय बनाकर आवाज देते हुए शंभू काका ने कहा -” बिटिया!शाम हो रही है।घर के अंदर आ जाओ।”
माँ-पापा के बिना उस सूने घर में घुसने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी।बड़ी मुश्किल से मैंने घर के अंदर प्रवेश किया।मैंने भावावेश में आकर माँ कहकर पुकारा।मेरी आवाज सूने दीवारों से टकराकर वापस आ गई। माँ-पापा की सुगंध घर के कोने-कोने से आ रही थी।इस घर की प्रत्येक वस्तु के साथ मेरी स्मृति जुड़ी हुई थी।
पापा के कमरे में घुसने पर सामने खामोश-सा टेलीविजन नजर आया,मानो अपनी बेबसी पर वह भी रो रहा हो!पापा का पलंग अपने पर बिछी म्लान चादर के साथ शोक -संतप्त लग रहा था।मैंने धीमे से पापा के दोनों तकिए को स्पर्श किया।ये दोनों बिछावन पर मानो उपेक्षित पड़े हुए थे।जब पापा इन दोनों तकिए को अपनी गोद में लेकर बैठते थे ,तो उस समय ऐसा महसूस होता था मानो कोई सजीव शिशु पिता की गोद में अठखेलियाँ कर रहा हो!
अचानक से मेरी नजर छोटे से खामोश पड़े रेडियो पर पड़ी।पापा का रेडियो प्रेम जग-जाहिर था।टेलीविजन बंद हो जाता था,परन्तु पापा के सोने तक रेडियो अनवरत चालू रहता था।कभी-कभी माँ झल्लाकर रेडियो बंद कर देती थी,तो पापा इसे तुरंत चला देते थे।शायद धीर-गंभीर स्वभाव के पापा ज्यादा लोगों से अधिक घुल-मिल नहीं पाते थे,तो रेडियो ही उनका संगी-साथी बना हुआ था।हाथों में रेडियो पकड़े हुए पापा की यादें मुझे भाव-
विभोर कर रहीं थीं।खुद-ब-खुद मेरी आँखें नम हो उठीं।रैक पर करीने से सजे माँ-पापा के कपड़े धूलि-धूसरित पड़े हुए थे।मैंने भावावेश में उन कपड़ों को उठाकर सीने से लगा लिया।कुछ देर तक मैं उन कपड़ों में दोनों के प्यार की गर्माहट में डूबती-उतराती रही।तभी शंभू काका की पत्नी ने मुझे सांत्वना देते हुए कहा -” बिटिया!मत रोओ!यही तो जिन्दगी का परम सत्य है।एक दिन सभी को जाना है!खुशी की बात यह है कि दोनों अपनी लम्बी आयु जीकर इस संसार के बंधन से मुक्त हो गए हैं!
सब कुछ जानते हुए भी व्यक्ति का मन पर वश कहाँ रहता है!मेरे पैर खुद-ब-खुद रसोईघर में चले गए। सदा चमकने बर्तन वहाँ धूलि-धूसरित होकर मानो अपनी बेबसी पर रो रहे थे।एक भी बर्तन में थोड़ा सा भी दाग रह जाने पर माँ उसे खुद अपने हाथों से साफ करती थी।माँ को साफ-सफाई बहुत पसन्द थी।मना करते हुए मैं कहती थी -” माँ!तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं रहती है,जैसा कामवाली करती है,वैसा ही रहने दो।”
परन्तु माँ कहाँ मानती थी!बीमार रहने पर भी माँ कुछ-न-कुछ अपने हाथों से बनाकर हमें खिलाती रहती थी।आज भी मेरी जिह्वा उस स्वाद को चखने के लिए लालायित हो रही है,परन्तु अब यहाँ उनकी यादों के सिवा कुछ भी शेष नहीं है।माँ-पापा की यादों की खुशबू मेरे रोम-रोम को स्नेह-रस से सराबोर कर रही है।सचमुच!माता-पिता के प्यार की खुशबू तो खुद में चंदन जैसी होती है जरा-सा अपनापन मिलते ही महक उठती है।माता-पिता के प्यार को भला आजतक कौन तौल पाया है!
सामने भाभियों के कमरे में जाने की इच्छा नहीं हुई। जितना ही माँ-पापा को बहुओं से लगाव था,उतनी ही दोनों उनलोगों के प्रति निर्लिप्त रहतीं थीं।पापा के सामने तो खुलकर उनकी मनमानी नहीं चलती थी,परन्तु दोनों ने कभी इसे अपना घर समझा ही नहीं।यहाँ आने पर मेहमानों की तरह अपने कमरे में बैठी रहतीं।काम करनेवालों को भी खुद के कामों में उलझकर रख देतीं थीं,जिसका परिणाम यह होता था कि माँ को ही घर के बहुत सारे काम करने पड़ते।मेरे गुस्साने पर माँ कहती -” बेटी!अभी तुम नहीं समझोगी।घर की वारिस तो ये ही लोग हैं।सब कुछ तो उनका ही है।जिम्मेदारी आने पर सब सँभाल लेंगी।”
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घर को सँभालना तो दूर की बात है।इनलोगों ने तो घर बेचकर ससुराल ही खत्म करने का मन बना लिया है!इस घर में विलीन कितनी ही यादें मेरे दिल को भावविह्वल कर रहीं थीं।मेरे विह्वल मन को साँन्त्वना देते हुए शंभू काका कहते हैं-“बिटिया! भले ही तुम्हारे माता-पिता के जाने से बाबुल की गलियाँ बेरौनक हो गईं है,परन्तु यह प्रकृति का शाश्वत नियम है।पुराने पत्तों के झड़ने पर ही डाल पर नई पत्तियाँआतीं हैं।उनके जीवन का पतझड़ आ चुका था।नई पीढ़ी के लिए उन्होंने अपना स्थान खाली कर दिया।यही जीवन का सार है।”
अब मैंने घड़ी पर नजर डाली।काफी समय हो चुका था।मुझे लौटना भी था।मैं यंत्रवत् पूजा घर में भगवान के सामने हाथ जोड़कर बैठ गई। पूजाघर में अगरबत्ती,माचिस,गंगाजल सभी मानो सुप्त से पड़े हुए थे।मां के रहते पूजाघर इस तरह चमकता था मानो सभी देवता सजीव होकर यहाँ वास कर रहें हों।आज भगवान की मूर्तियाँ भी मलीन पड़ी हुईं थीं।मेरी व्याकुल आँखें खोइछा के लिए विकल होकर माँ को ढ़ूँढ़ रहीं थीं।माँ हर बार विदा होते समय खोइछा में थोड़ा चावल,दूब ,हल्दी और कुछ ज्यादा पैसे छिपाकर रख देती थी।मना करने पर माँ कहती थी -“बेटा!कुछ नहीं,बस माँ का आशीर्वाद है।सदा सुखी रहना!”
आज बिना खोइछा और आशीर्वाद लिए ही पूजाघर से निकल गई।
शंभू काका और काकी से विदा लेकर जैसे ही मैं चलने को हुई, वैसे ही घर -आँगन में बारिश की रिमझिम फुहारें पड़ने लगीं।बादलों का सीना चीरकर चाँद विहँसकर अपनी रोशनी बिखेरने को आतुर था। मैं आकाश में नजरें गड़ाए इस नैसर्गिक दृश्य का आनन्द लेते हुए शून्य में विलीन हुए माँ-पापा को मुस्कराते हुए महसूस कर रही थी।
शंभू काका पति-पत्नी ने कहा -” बिटिया!जब तुम्हारा मन हो तो आ जाओ।मेरा घर भी तो तुम्हारा मायके ही है!बाबुल का घर न तो कभी छूटता है और न ही भूलता है।”
मैं यादों की पोटली अपने दिल में संजोए बाबुल के घर से निकल पड़ी।मेरे मन का आईना धुलकर चाँदी-सा चमकने लगा,मानो नवप्रभात की सूचना दे रहा हो।यह बाबुल का घर भले ही आज सन्नाटे में खड़ा है,परन्तु इसके अन्दर हमारे माँ-पापा की स्मृतियाँ और हमारे बचपन की यादें अंगड़ाईयाँ ले रहीं हैं। भींगे नयनों से मैंने सिर झुकाकर बाबुल के घर को शत-शत नमन किया और अपने गन्तव्य पर निकल गई।
समाप्त।
लेखिका-डाॅक्टर संजु झा।(स्वरचित)