Moral Stories in Hindi : सुनो माधवी, बुरी खबर है, बाबूजी नही रहे।हमे गावँ चलना है,मुन्ना को दूध आदि पिला देना,वहाँ दिक्कत आयेगी।
क्या,बाबू जी हमे छोड़ कर चले गये,ओह।कह माधवी अपना सर पकड़ वही बैठ गयी।
रामगोपाल जी अपने कस्बे में मध्यम श्रेणी के कारोबारी थे,उनके दो ही बेटे थे,नरेश और महेश।नरेश कुशाग्र बुद्धि रखता था,सो अपनी पढ़ाई लिखाई में भी अव्वल रहता,जबकि छोटा बेटा महेश मध्यम श्रेणी का विद्यार्थी रहा,उसका मन असल मे पढ़ाई में लगता ही नही था।रामगोपाल जी को महेश के भविष्य की ही चिन्ता सताती रहती।उनका सोचना था कि महेश को अपने साथ कारोबार में लगाया भी तो पता नही संभाल पायेगा या नही।उनका विश्वास महेश के मामले में डगमगाता रहता।नरेश की तरह पढ़ लिख लेता तो कही अच्छी नौकरी पा जाता तो जिंदगी भर को निश्चिंतता हो जाती।
महेश ने किसी प्रकार ग्रेजुएशन कर तो लिया पर कही भी बड़े भाई नरेश की भांति नौकरी नही पा सका।अंततोगत्वा रामगोपाल जी ने महेश को अपने साथ अपने कारोबार में ही लगा लिया।
स्वाभाविक रूप से महेश अब अपने घर मे ही रहने लगा और अपने पिता से उनके कारोबार के गुर भी सीखने लगा।धीरे धीरे महेश अपने पिता रामगोपाल जी के कारोबार में रमने लगा। अपने पिता के कारोबार को वह कोई नई ऊंचाई तो नही दे सका पर उसे घटने भी नही दिया।पहले की तरह काम चलने लगा।लेकिन एक सहूलियत हो गयी थी कि अब रामगोपाल जी को अपने कारोबार में महेश का साथ मिल गया था,उसके प्रति कुछ कर पायेगा या नही वाला संशय भी समाप्त होता जा रहा था।
उधर नरेश अच्छे पद पर काफी अच्छे वेतन पर शहर में जॉब कर रहा था।उसका अपने कस्बे में कम ही आना होता था।शहरी जिंदगी उसे रास आ गयी थी,वह उसी सभ्यता में रच बस गया था।जब भी नरेश अपने पिता के पास आता तो उसे लगता कि पिताजी ने उसके साथ अन्याय किया है,छोटे भाई को कस्बे के घर और कारोबार सबकुछ दे दिया है जबकि इस सब मे उसका भी तो हिस्सा है। उसे यह भी लगता कि महेश ने जानबूझ कर कोई नौकरी नही की,बस पिता की संपत्ति पर अपना हक जमा लिया है।यह सब सोच सोच कर उसका मन वितृष्णा से भर जाता।
नरेश जब भी किसी त्यौहार पर घर आता तो जाते समय महेश शहर में जरूरत का काफी सामान नरेश को आग्रह पूर्वक ले जाने को बाध्य करता।पर नरेश को लगता कि यह सब महेश की चापलूसी मात्र है। नरेश का मन खट्टा ही रहता।
रामगोपाल जी बीमार रहने लगे थे,अब सारा कारोबार महेश के जिम्मे ही था।पिता की देखभाल और व्यवसाय को संभालना अब महेश के ही दायित्व हो गये थे।रामगोपाल जी अपनी बीमारी की अवस्था मे नरेश को याद करते रहते।आंखों के सामने नरेश ही तो नही रहता था।महेश ने भाई को समाचार भी भिजवाया कि भाई कुछ दिनों की छुट्टी लेकर बाबूजी के पास आ जाओ उनको शांति मिल जायेगी, पता नही कितने दिन अपने बीच मे है।नरेश दो टूक जवाब दे देता कि छुट्टीयाँ ऐसे कहाँ मिलती हैं?पिता की देखभाल को तुम हो तो, मैं ही एक्स्ट्रा क्या कर लूंगा।महेश सहम कर इतना ही कह पाता, भैय्या बात करने की नही आपके उनके सामने रहने की है।पर नरेश कोई तवज्जो नही देता।
रामगोपाल जी की तबियत निरन्तर बिगड़ती जा रही थी।उनकी इच्छा नरेश और मुन्ना को एक बार देख लेने की थी,पर नरेश आ ही नही पा रहा था।अब रामगोपाल जी ने महेश से नरेश के बारे में भी कहना छोड़ दिया था।उन्होंने समझ लिया था कि वह नही आयेगा।मुन्ना की याद में बस दो बूंद आंसू जरूर ढुलक पड़ते।
एक दिन सुबह सुबह महेश अपने पिता के पास उनको देखने आया तो उसने पाया कि उनके प्राण पखेरू तो उड़ चुके थे,चेहरे पर एक लालसा का भाव अब भी साफ दिखाई पड़ रहा था,किसी के इंतजार में आंखे अब भी खुली थी,शायद नरेश और मुन्ना को देखने की लालसा में।महेश ने रोते रोते अपने पिता की आंखे बंद की और उनके अंतिम संस्कार की तैयारी में जुट गया।सब रिश्तेदारों और जान पहचान वालो को रामगोपाल जी के स्वर्गवासी होने की सूचना दे गयी थी।नरेश को भी जैसे ही सूचना मिली तो वह भी धक से रह गया।पिताजी का सौम्य व्यवहार,उनका नियमित जीवन और अपने बच्चों से प्यार सब कुछ याद आ रहा था।
घर जाते समय माधवी बोली देखो जी बाबूजी तो चले गये हैं,महेश भैय्या ने ही उनका सबकुछ किया है,हमे किसी चीज की कोई कमी नही है, आप वहां अपना बड़ापन रखते हुए सबकुछ महेश भैय्या को ही सौप देना,इससे बाबूजी की आत्मा को शांति भी मिलेगी।नरेश ने कोई उत्तर नही दिया,बस चुप चाप बैठा रहा।
नरेश के पहुचने पर रामगोपाल जी का अंतिम संस्कार सम्पन्न कर दिया गया।उठावनी तक तीन दिन नरेश को कम से कम रुकना ही था। उसी दिन रात्रि में महेश नरेश के कमरे में आया और बोला भैय्या अब तक तो बाबूजी की सरपरस्ती थी,वो तो चले गये,अब तो आप ही घर मे बड़े हैं।भैय्या सुबह कारोबार का हिसाब किताब देख लो और घर मे मैं तो एक कमरे रसोई में गुजर कर लूंगा,अब सब कैसे करना है आपको ही बताना है।
नरेश महेश का मुँह देखता रह गया।उसके मन मे तो ग्रन्थि थी कि सब कुछ महेश ने पिता को पक्ष में लेकर अपने कब्जे में कर लिया है।पर यहां तो वह पिता के न रहने पर सबकुछ मुझे ही सौपने को तत्पर है।कितना बड़ा हो गया है महेश।नरेश अपने छोटे भाई के सामने ही अपने को बौना पा रहा था।पिता और महेश के प्रति रखी सोच से आज नरेश खुद ही शर्मिन्दगी से गड़ा जा रहा था।
एकाएक नरेश ने खड़े होकर महेश को गले लगा लिया।अरे महेश मेरे भाई तू रहेगा एक कमरे में अरे ये पूरा घर तेरा ही है रे,और कुछ भी यदि कमी रहेगी तो मुझसे कहना,बाबूजी पंछी बन उड़ गए तो क्या हुआ मैं हूँ ना।
बालेश्वर गुप्ता, पुणे
मौलिक एवं अप्रकाशित
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