नवविवाहिता कनक अपने पति सुबीर के साथ ससुराल की देहरी पर गृह प्रवेश के लिए खड़ी थी। चावल से भरे हुए कलश को पाँव से गिरा उसने अंदर प्रवेश किया। उसकी सासु मां रमा देवी पूरे विधि विधान के साथ उसे अंदर ले गईं। विधि-विधानों के दौरान उनके द्वारा दिए जा रहे निर्देशों के ढंग से ही कनक समझ गई थी कि उसकी सासू मां काफी दबंग किस्म की महिला हैं। वह एक ममतामयी मां कम और शासन को हाथ में रखने वाली सासु मां अधिक नजर आ रही थी।
रात को सुबीर ने भी उसे यही समझाया कि वह मां के कहे पर चले और मां को नाराज ना करे। मां हमेशा से अपने मन का करती आई हैं और आगे भी यही होगा। कनक को थोड़ा अजीब तो लगा परंतु उसने कुछ नहीं कहा सिर्फ सर हिला कर रह गई।
धीरे-धीरे सारे रीति-रिवाजों में एक हफ्ता बीत गया । मगर कनक पिछले कई दिनों से देख रही थी कि आंगन के उस तरफ एक और कमरा है जिसमें सिर्फ कामवाली कांताबाई जाती थी और थाल में खाना भी ले जाती थी। और कोई भी उस कमरे की तरफ नहीं जाता था। उसने एक बार ननद मंजुला से पूछने की कोशिश की, तभी सास का कड़कता हुआ स्वर सुनाई दिया,”-कोई जरूरत नहीं है ज्यादा छानबीन करने की… अपना काम करो।” सहम कर चुप हो गई कनक।
अब धीरे-धीरे सारे मेहमान भी जा चुके थे। अब घर में सिर्फ उसके सास-ससुर, ननद मंजुला, पति सुबीर और वह रह गए थे। एक दिन दोपहर को जब सभी अपने कमरों में आराम कर रहे थे। पति सुबीर भी कहीं नजर नहीं आ रहा था ।वह दबे पांव आंगन के उस पार उस कमरे तक जा पहुंची। वहां जो उसने देखा उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं।एक बहुत ही दुर्बल कृशकाय वृद्ध महिला बिस्तर पर पड़ी थी। बगल में ही तिपाई पर खाने का थाल रखा था। खाना क्या था, पतला सा चावल का पानी था। उस महिला के पूरे शरीर पर बिस्तर के पर पड़े रहने के कारण छाले उभर आए थे। सुबीर सावधानीपूर्वक उनके छालों पर मरहम लगाने का प्रयास कर रहा था ।व्यथित स्वर में कनक ने पूछा ,”-सुबीर कौन हैं यह और इस हालत में क्यों है?”
सुबीर कुछ क्षण मौन रहा, फिर दबे स्वर में कहा,”- ये दादी हैं मेरी…”
कनक स्तंभित रह गई। ,”- फिर यह इस अवस्था में क्यों हैं और इधर अलग-थलग इस कमरे में क्यों पड़ी हैं?”
“क्योंकि दादी ने अभी तक गांव के खेतों वाली जमीन के कागजात पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। अच्छा ही हुआ कि नहीं किए अगर उन्होंने कर दिए होते तो माँ तो उन्हें घर से बाहर ही निकाल देतीं।” सुबीर ने झिझकते हुए कहा।
“तो तुम सब यह सब देख सुन कर भी चुप क्यों हो? कुछ करते क्यों नहीं? क्या तुम्हें अच्छा लगता है दादी का इस हाल में होना??” कनक का मन द्रवित हो गया।
“-पिताजी ने उन्हें एक बार समझाने का प्रयास किया था पर माँ ने आग बबूला होते हुए अपनी नाड़ी तक काट लेने की धमकी दे डाली। विवश हो गए हम सब….. बहुत बुरा लगता है दादी को इस हाल में देखकर…” सुबीर का गला रूंध गया।
“एक बार प्रयास तो करके देखो सब कुछ बदलने का। माँ कुछ नहीं करेंगी। ऐसे लोग अंदर से डरपोक होते हैं ।वह सिर्फ भय दिखा रही हैं ताकि सब उनकी बात मान जाएं… अन्याय का विरोध करना सीखो सुबीर!…. मैं दादी को अभी और इसी वक्त कमरे से बाहर ले जाऊंगी… तुम बाहर जाओ…मैं दादी का शरीर पोंछ कर और कपड़े बदलकर उन्हें बाहर लाती हूं।”
रमादेवी आराम करने के बाद उठीं तो बैठक से हंसने बोलने की आवाज सुनकर उस तरफ आ पहुंचीं।
वहां साफ-सुथरे कपड़ों में दादी को बैठी देखकर ही उनका पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। वह चीखते हुए बोली, “-किसकी हिम्मत हुई इन्हें यहां लाने की??? “
कनक ने शांत स्वर में कहा, “-इन्हें यहां लेकर मैं आई हूं मम्मी जी!”
“किस से पूछ कर और किसकी अनुमति से..? रमादेवी दहाड़ीं।
“मम्मी जी, मैं भी इस घर की बहू हूं आपकी तरह। इस घर पर जितना अधिकार आपका है उतना ही मेरा भी है। मैं यह सब बातें आप से नहीं कहना चाहती थी, पर इस घर में जो कुछ भी अन्याय हो रहा था दादी के साथ, वह देखकर मुझसे रहा नहीं गया। अब दादी मेरे कमरे के बगल वाले कमरे में रहेंगी और पूरे अधिकार और सम्मान के साथ रहेंगी। इनका तिरस्कार अब और मैं सहन नहीं करूंगी। वह इस घर की असली मालकिन हैं और वही रहेंगी। अब आप मुझे इतना विवश ना करें कि मुझे कानून का सहारा लेना पड़े। शायद बात अब आपकी समझ में आ चुकी हो। मम्मी जी, मैं आपका बहुत सम्मान करती हूं और जीवन पर्यंत करती रहूंगी और आपके प्रति अपने सारे कर्तव्यों का पालन करूंगी और आपसे भी यही अपेक्षा रखती हूं कि आप भी अपने कर्तव्य दादी माँ के प्रति निभाएं।”
रमादेवी ने मुड़कर पति और सुबीर की तरफ देखा तो वे भी उनसे दृष्टि मिलाए दृढ़ खड़े दिखाई दिए। रमादेवी अवाक खड़ी तख्तापलट को देखती रह गईं।
निभा राजीव “निर्वी”
सिंदरी, धनबाद, झारखंड
स्वरचित और मौलिक रचना
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