” भाभी…इनको..।” कहते हुए अंजू फ़ोन पर ही रोने लगी।तब क्रोधित भाव से सविता बोली,” कुछ बोलोगी भी…या रोती ही रहोगी..।”
” उनको…।” अंजू ने पूरी बात बताई तो सुनकर सविता सन्न रह गई।
” ओह…चिन्ता मत करो..तुम्हारे भईया को लेकर मैं अभी आती हूँ।” कहकर सविता ने फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया और बुदबुदाई,” आखिर वही हुआ जिसका मुझे डर था।”
सविता के पति अशोक की हार्डवेयर की दुकान थी।पिता का देहांत हो चुका था,छोटी बहन और माँ उसी के साथ रहते थे।सविता का उन दोनों के साथ बहुत अच्छा तालमेल था।उसके दो बेटे थे जो अपनी दादी की गोद में ही पले और स्कूल से आने के बाद भी उन्हीं के पास बैठकर अपना होमवर्क करते थे।पैसों की कोई कमी नहीं थी,फिर भी सविता पैसों को किफ़ायत से खर्च करती और अपने बच्चों को भी यही सिखाती कि अति हर चीज़ की बुरी होती है।
अंजू के बीए के इम्तिहान खत्म हुए तो अशोक उसके लिये सुयोग्य वर तलाशने लगा।भाग्य से अशोक को अपने ही शहर में एक अच्छा परिवार मिल गया।हेमराज जी के कपड़े की दो दुकानें थीं।एक पर वो स्वयं बैठते थे और दूसरे पर उनका बेटा हेमंत।हेमराज जी की पत्नी ने अशोक को बताया कि हमारा हेमंत बहुत आज्ञाकारी है..सिगरेट- शराब की तरफ़ तो वो देखता भी नहीं है।सुनकर अशोक तो खुश..।एक दिन उसने हेमराज जी के परिवार को अपने घर खाने पर बुलाया..बातचीत हुई और फिर उसने अंजू का हेमंत के साथ चट मंगनी-पट ब्याह कर दिया।
ससुराल में अंजू को बहुत प्यार मिला।मायके आई तो अपनी माँ से वहाँ की बहुत तारीफ़ की।अपनी भाभी से चहकते हुए बोली,” भाभी..मेरे ससुराल में धन की तो कोई कमी ही नहीं है।जितना चाहो- जहाँ चाहो खर्च करो..कोई पाबंदी नहीं है।” तब सविता ने उसे हँसते हुए समझाया था,” फिर भी नियंत्रण रखना ज़रूरी है ननद रानी क्योंकि #ये धन-संपत्ति ना..अच्छे-अच्छों का दिमाग खराब कर देती है..।” जवाब में अंजू ने मुस्कुरा दिया था।
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हँसते-मुस्कुराते अंजू के विवाह के पाँच बरस बीत गये..वो एक बेटा और एक बेटी की माँ बन चुकी थी।एक दिन अचानक दुकान पर ही हेमराज जी के सीने में दर्द उठा..हेमंत भाग कर आया..पिता को लेकर अस्पताल दौड़ा लेकिन बेटे का हाथ पकड़े-पकड़े ही उन्होंने हमेशा के लिये अपनी आँखें मूँद ली।एकाएक हेमंत बिल्कुल अकेला हो गया।वो हर काम अपने पिता से पूछ कर किया करता था।अब उसे घर- दुकान अकेले संभालना है..स्वयं निर्णय भी लेना है जो उसके लिये बहुत कठिन था।वो परिस्थिति के अनुकूल स्वयं को ढ़ालने का प्रयास कर ही रहा था
कि एक दिन उसे माता जी ने बताया कि गाँव वाली ज़मीन पर चल रहे केस का फ़ैसला हमारे हक में हो गया है।सुनकर वो खुशी-से उछल पड़ा।पत्नी से बोला,” इतनी सम्पत्ति है मेरे पास..मुझे अब दुकान पर अपना देह थकाने की कोई ज़रूरत नहीं है..।” अंजू ने इसे मज़ाक समझा लेकिन जब हेमंत को घर में बैठे देखा…दोस्तों के साथ टाइम पास करते देखा तो उसे चिंता होने लगी।सास से बोली तो अम्मा जी ने बेटे को समझाया कि संपत्ति को संभालना भी पड़ता है वरना..।लेकिन उसने माँ की बात को अनसुना कर दिया।
हेमंत के दुकान पर न जाने पर स्टाफ़ मनमानी करने लगे।उनकी नीयत में खोट आने लगा जो कि स्वाभाविक था।उधर हेमंत को गलत लोगों के संगत में शराब पीने और जुआ खेलने की लत लग गई।अंजू टोकती तो दोनों के बीच विवाद होता।अंजू अंदर ही अंदर घुटने लगी थी।बेटे की हालत देखकर अंजू की सास को गहरा सदमा लगा और एक दिन वो..।इधर सविता की सास बीमार तो थी ही..बेटी का दुख उनसे देखा नहीं गया और एक दिन वो भी..।
दुकान का कैश बाॅक्स खाली हो रहा था तो हेमंत लोगों से उधार लेकर जुआ खेलने लगा।लोग पैसा माँगते तब वो अब नहीं खेलूँगा’ कहकर अशोक से पैसे लेकर चुका देता।पर अब पानी सिर से ऊपर हो चुका था।एक दिन उसने अंजू के गहनों को हाथ लगाया तो अंजू बिफ़र पड़ी।वो गुस्से-से बाहर निकल गया।घात लगाये लेनदारों ने उसे सड़क पर ही अधमरा करके छोड़ दिया।किसी भलेमानुष ने उसे अस्पताल पहुँचाया।अंजू को खबर मिली तो वो दौड़ी गई और अपनी भाभी को खबर की।
अशोक के घर आते ही सविता ने अपने बच्चों का खाना टेबल पर रखा और उन्हें पढ़ाई करके खाने के लिये कहकर अस्पताल पहुँची।हेमंत के सिर-पैर पर पट्टियाँ बँधी हुई थी।उसे देखकर रोने लगा,” भाभी..इस बार मदद कर दीजिये..फिर कभी..।” सविता तय करके आई थी।उसने कड़े शब्दों में कहा,” हर्गिज़ नहीं..।” अंजू अपनी भाभी का मुँह ताकती रह गई।
कमरे से बाहर निकलने पर अशोक बोला,” सविता..तुमने मना क्यों कर दिया..एक ही तो मेरी बहन है..।”
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” उसी की भलाई के लिये मना किया है।अब वो दोनों पैसे की अहमियत समझेंगे और मेहनत करेंगे..।” पीछे-से अंजू अपनी भाभी को भला-बुरा कहने आ रही थी, सविता के मुख से अपनी भलाई की बात सुनकर उसकी आँखें नम हो गई।
अस्पताल का बिल अशोक ने चुका दिया।अब हेमंत की आँख खुल चुकी थी।स्वस्थ होने पर वो फिर से अपनी दुकान पर बैठने लगा और दूसरी दुकान को बेचकर उसने सबका कर्ज़ा चुकाया।दुकान में मुनाफ़ा होने लगा, तब उसने अशोक को पैसे वापस करने चाहे।अशोक इंकार करने लगा तब वो हँसते हुए बोला,” भाईसाहब..अति हर चीज़ की बुरी होती है..चाहे पैसा हो या प्यार..हा-हा..।”तब अशोक को भी हँसी आ गई और उसने रुपये ले लिये।
अब हेमंत दुकान से सीधे घर आता और अपनी पत्नी-बच्चे के साथ समय बिताता।गाँव की ज़मीन पर वो खेती करवाने लगा।छुट्टियाँ होती तो परिवार के साथ वहाँ चला जाता।उसके निठल्ले दोस्त तो अब भी आते लेकिन वो उन्हें दरवाज़े से ही लौटा देता।
एक दिन किसी शुभचिंतक से उसे सलाह दी,” भाई हेमंत..अब तुम्हारे बच्चे सयाने हो रहें हैं तो अपनी संपत्ति उनके नाम कर दो..।”
” नहीं भाई…#ये धन-संपत्ति ना…अच्छे-अच्छों का दिमाग खराब कर देती है..।कभी इंसान को बेराह कर देती है तो कभी रिश्तों में दरार पैदा कर देती है।मेरे बच्चे मेहनती हैं..अपनी मेहनत से प्राप्त की गई सफ़लता ही उनकी असली पूँजी है।है ना मेरे बच्चों..।”
” हाँ पापा..।” कहते हुए उसके बेटा-बेटी अपने पिता के गले लग गये और दूर खड़ी अंजू की आँखें खुशी-से छलछला उठी थी।
विभा गुप्ता
स्वरचित, बैंगलुरु
# ये धन-संपत्ति ना..अच्छे-अच्छों का दिमाग खराब कर देती है