विद्या , तुझसे कुछ बात करनी है । आज दोपहर को आएगी क्या?
—-शाम को ही आऊँगी । दोपहर में बड़ी गर्मी होती है फिर तुम लोग भी तो थोड़ा आराम करते हो उस समय , सुबह – शाम तो आने-जाने वाले होते हैं । रात के दस बजे तक कहाँ फ़ुरसत मिलती होगी….
—-तभी तो कह रही हूँ कि आज दोपहर से पहले आ जाना । दोपहर में खाने के बाद सब आराम करते हैं । उस समय अकेले में बात करना चाहती हूँ ।
गंगा ने अपनी सहेली विद्या से आने का आग्रह करते हुए कहा । गंगा के पति का निधन हुआ था और शोकावधि चल रही थी । दो दिन बाद तेरहवीं थी इसलिए लोगों का आना-जाना लगा रहता था । ऐसे समय में अकेले में बातचीत करने की सुनकर विद्या सोच में पड़ गई । उन्होंने तभी अपने पति से कहा —-
—-आप मुझे गंगा के घर छोड़ आइए । आटो से जाऊँगी तो दो घंटे लगेंगे, तेज धूप हो जाएगी …..
—-पर कल तो तुम कह रही थी कि बस अब तेरहवीं पर चलेंगे । और सुबह- सुबह जाने की बात करने लगी । चलना है तो शाम को चल पड़ेंगे …..
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विद्या ने जाने का कारण बताते हुए पति से कहा —-
—-जाना तो अभी पड़ेगा, सुबह का सारा काम हो ही चुका , चलो तो , अगर आपका मन नहीं इतनी गर्मी में बाहर निकलने का तो आटो से निकल जाती हूँ । सोचा तो था कि तेरहवीं पर ही जाऊँगी…मेरी तबीयत कुछ ढीली सी है , पर गंगा , कुछ असहाय सी लग रही थी आवाज़ से ….देख लो….छोड़ दो मुझे उसके घर तक , आटो में बैठकर भी ट्रेफ़िक जाम में घबराहट बढ़ जाती है ।
ख़ैर उनके पति ने उन्हें बाइक से गंगा के घर छोड़ दिया ।
विद्या ने देखा कि उस समय भी क़रीब पाँच- सात औरतें बैठी थी । वे चुपचाप अपनी सहेली के पास जाकर बैठ गई । गर्मी बढ़ने के साथ-साथ घर में सन्नाटा सा छा गया । तभी दोनों सहेलियाँ उठकर गंगा के बेडरूम में चली गई ।
– क्या बात करना चाहती है ? इनके साथ आई कि पता नहीं, क्या बात है……
—-गौरव और बहू तेरहवीं के बाद मुझे अपने साथ बैंगलोर ले जाने की बात कर रहे थे ।
—-हाँ तो , चली जाओ । बच्चों के साथ रह आओ कुछ दिन , जी बदल जाएगा ….
—अरे , कुछ दिनों के लिए नहीं, कल रात गौरव और बहू अपने कमरे में बैठे बात कर रहे थे कि अभी कुछ दिनों के लिए वे मुझे अपने साथ ले चलते हैं….. फिर …..
—-फिर क्या? रोने क्यों लगी ? पूरी बात बता और हिम्मत से काम ले । इस तरह रोने या मन छोटा करने से काम नहीं चलेगा। ले पानी पी …. और बता सारी बात ।
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विद्या, ये क्यूँ चले गए मुझे इस तरह अकेली को छोड़कर… काश ! भगवान मुझे उठा लेता …… पता नहीं, क्या होगा अब आगे ?
फिर वही बात , कितनी बार समझाया तुझे कि ना कोई साथ आता है और ना साथ जाएगा । यही जीवन की सच्चाई है । रही पहले और बाद में जाने की बात तो , ये भगवान के हाथ में है गंगा …. अगर हमारे हाथ में कुछ होता तो हम अपने हिसाब से दुनिया चलाते । बच्चे हैं तुम्हारे…. सब ठीक रहेगा । तसल्ली रख ।
अरे मैं भी यही सोचती थीं पर इसका उल्टा निकला । कल रात गौरव और बहू कमरे में बैठे बात कर रहे थे कि अब मम्मी को अकेला नहीं छोड़ेंगे …. क्योंकि उन्हें डर है कि इसी शहर में रहने वाली बहन और जीजा उनकी माँ को बहकाकर, ये करोड़ों की प्रॉपर्टी अपने नाम न लिखवा ले ।मकान बेचकर ले जाने की बात कर रहे थे ।
पर गौरव और बहू के मन में यह बात कहाँ से आई , गंगा ? जो उन्होंने अपनी बहन के बारे में इतनी छोटी बात सोच ली ?
दरअसल पिछले साल से दामाद जी का बिज़नेस बहुत बढ़िया चल रहा है तो गौरव को ऐसा लगता है कि हमने रूपये दिए हैं वंदना को । उसने दो- चार बार पहले भी अपने पापा से कहा कि ये मकान बेच दो । किसके लिये बनाई ये प्रापर्टी … पहले तो हमने हल्के- फुल्के अंदाज में कह दिया कि आदमी अपने बच्चों के लिए ही बनाता है । तो कहने लगा कि इस मकान को बेचकर बैंगलोर में मकान ख़रीदवा दो क्योंकि यहाँ के मकान का वो क्या करेगा ?
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वंदना के पापा ने यह भी कहा कि वहाँ कोई फ़्लैट ख़रीद लो , जितना होगा वे सहारा लगाएँगे पर कहने लगा था कि क्यों यह मकान दीदी को देना है क्या ?
पर गौरव और बहू की तो बहुत अच्छी नौकरी है । तुम्हारे बाद उसकी ही तो है ये सब प्रापर्टी …. क्या उस में इतना सब्र नहीं रहा ?
अब छह महीने पहले दामाद जी ने गाड़ी ख़रीदी तो ताना मारते हुए बोला था—- गाड़ी क्या , जब मुफ़्त का मिलता है तो हवाई जहाज़ ख़रीद ले …. बता इनके घर में तो दो- दो गाड़ी और दामाद जी ने ख़रीद ली तो आग लग गई ।
सोचते रहे जो सोचना है । पर ये बता तू इतना किस बात से घबरा रही है ?
—— मैं बैंगलोर जाना नहीं चाहती क्योंकि दिन- रात एक ही राग अलाप- अलाप कर मेरा जीना हराम कर देंगे…..और ना जाऊँ तो कहेंगे कि लड़की को सब देना है इसलिए हमारे साथ क्यों आओगी भला , बता मुझे कहाँ फँसा गए ।
अगर मकान बेचने को कहे तो हाँ कहकर , मैं कोई गलती तो नहीं कर दूँगी, कम से कम रोज़ का कहना- सुनना तो नहीं रहेगा…. मैं गाँव के मकान में अपना समय काट लूँगी । पूरी ज़िंदगी तो शायद वहाँ गुज़ारा ना हो पाए ….
देख गंगा, पहले तो भाई साहब थे इसलिए तुझे बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ी पर अब गूँगी बनकर काम नहीं चलेगा । पहली बात तो ये कि इस बात को दिमाग़ से निकाल दें कि आज भी और कल भी मकान गौरव का है , बेच लेने दो । मकान तेरा है और तुम दोनों ने अपने रहने के लिए बनाया था । सारी ज़िंदगी तो तू यहाँ रही , अब जब हारी-बीमारी का शरीर रहने लगा तो गाँव में जाकर अकेली रहेगी…. क्यों?
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अगर तुझसे मकान बेचकर चलने की बात कहे तो साफ़ मना कर देना । और अगर माँ के अकेलेपन को देखकर बेटा कुछ दिन के लिए अपने साथ ले जाना चाहे तो कुछ दिन के लिए चली जाना पर अपने हाथ पैर के चलते स्थाई रूप से कभी अपना घर मत छोड़ना….. यहाँ तो शेरनी बनकर रहेगी और बेटे- बहू के घर में अजनबी ।
— रही बात वंदना को कुछ लेने-देने की । तेरी बेटी है तुझे बेटे – बहू से आज्ञा लेने की कोई ज़रूरत नहीं है और ना उनकी बातों पर ध्यान दिया कर । हर बात में यह कहना भी बंद कर कि गौरव से पूछ लो.. गौरव से पूछ लो । मैं दस दिन से देख रही हूँ कि तूने अपना अस्तित्व ही ख़त्म कर डाला । तू माँ है उसकी ….. अपने दोनों बच्चों की सलाह लेकर फ़ैसला लेना सीख ले ।तुम्हें गौरव को उसकी ग़लतियों पर टोकना पड़ेगा और साथ ही इस बात का अहसास कराना पड़ेगा कि भले ही पिता ने खुले तौर पर उसकी ग़लत बातों का विरोध नहीं किया पर माँ चुप रहकर सुनने वालों में से नहीं है ।
बोलती-बोलती विद्या महसूस कर रही थी कि उसकी प्रिय सहेली गंगा के चेहरे पर पड़ी चिंता की लकीरें दृढ़ संकल्प की आभा में बदलती जा रही है ।
शाम ढले विद्या तो अपने घर लौट गई पर आज जब रात के भोजन के पश्चात गौरव ने अपनी माँ से कहा
—- मम्मी, तेरहवीं के एक हफ़्ते बाद की टिकट करवा दी हैं । शायद तब तक कोई न कोई मकान का खरीददार मिल…..
मकान का खरीददार ? किससे पूछा तूने कि मैं मकान बेच रही हूँ …..गौरव , मैं माँ हूँ तेरी ? इस घर की बड़ी , बेटा जब तक वे थे , उन्होंने फ़ैसले लिए पर अब उनके बाद मैं हूँ । अभी साल भर तो मैं कहीं नहीं जाऊँगी, हाँ बरसी के हवन के बाद , अगर तुम चाहोगे तो तुम्हारे साथ चल पडूँगी कुछ दिनों के लिए ।
माँ की आवाज़ की दृढ़ता ने गौरव को बहुत कुछ समझा दिया था । उसने केवल इतना कहा
—- ठीक है मम्मी, मैं आपकी टिकट कैंसिल कर देता हूँ । अगले साल चलना और कुछ दिन क्यों, कम से कम छह महीने वहाँ और छह महीने यहाँ रह लिया करना । रही घर की देखभाल तो दीदी है ना , उनके रहते हुए हमें चिंता की ज़रूरत नहीं है ।
लेखिका : करुणा मलिक