तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा हॉल सन चुका था।
उसके साथ ही मयूर पब्लिकेशन के मैनेजर प्रकाश और मेरे घनिष्ठ मित्र बैंक मैनेजर लालजी सबके चेहरे पर एक गर्वित मुस्कुराहट छा गई।
मंच के आयोजक ने तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मेरे पास आकर कहा
“आज के शुभ अवसर पर हमारे लेखक महोदय अरुण आकाश यानि अरुण कुमार से कुछ बातें करते हैं।हम जानना चाहते हैं कि “अपनों सा…!“आखिर इतने सफल बुक निकालनेवाले लेखक के भीतर आखिर है क्या?
तो चलते हैं कुछ बातें करते हैं…सबसे पहले अरुण आकाश जी आपसे हम सब यह जानना चाहते हैं कि आपने अपना नाम अरुण आकाश क्यों रखा?
“मैं…वो…!,दो मिनट तक मैं लड़खड़ा ही गया फिर थूक निगलने के बाद मैं ने कहा
“मेरा नाम अरुण कुमार है लेकिन मैं एक लेखक के रुप में अपना नाम अरुण आकाश रखा है क्योंकि आकाश ही एक मात्र सत्य है।
इसी आकाश में सबकुछ है, हमारा संपूर्ण ब्रह्मांड, सौरमंडल, हमारी पृथ्वी…तो मैं इसी विशालकाय आकाश में खो जाना चाहता हूं…!”
“बहुत ही अच्छा!…अब दूसरा सवाल…”अपनों सा…!”
इस किताब को लिखने के पीछे की आपकी क्या इच्छा रही थी…?”
मैं निःशब्द हो गया…आखिर क्यों…!
मैं ने बहुत ही मुश्किल से कहा
”उम्र का तकाज़ा…इस उम्र में अपनों की ही तो जरूरत होती है…।”
“वाह वाह क्या बात है..!”एक बार फिर से मंच तालियों से गूंज उठा था।
अपने हाथों में मैं अपनी किताब लिए बल्कि यह कहूँ कि अपनी किस्मत लिए अंततः घर लौट आया।
आज अपना सूना सा घर मेरा मुंह चिढ़ा रहा था।
कितना बनावटी हो गया हूँ मैं…अपने खोखले मुस्कान, झूठी चमक दमक के पीछे न जाने कितने दर्द झेल रहा हूं..!
मैं उठकर दीवार पर लगे मेरी दिवंगत पत्नी अल्पना के फोटो के पास जाकर खड़ा हो गया।
“अल्पना.. चियर्स!आज तुम तो बहुत खुश होगी ना आज मेरी कहानी को बुक ऑफ द ईयर चुना गया है…!
और …मैं…कितना खालीपन महसूस कर रहा हूँ…!”
मैंने किताब उठा लिया।किताब के किरदार मेरे आसपास के ही लोग थे…।
मेरा अतीत भंवर बनकर मुझे डुबाने लगा था।
तब की बात है जब मेरा चयन महाराष्ट्र के एक बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज में हो गया था।
इससे पहले अपने गांव से इतना बड़ा अचीवमेंट किसी ने भी नहीं किया था…।
गर्व से मेरे पिता का सीना चौड़ा हो गया था।
“अरुण, जाओ बेटा इस खानदान का नाम रौशन करो।”
मैं महाराष्ट्र आकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने लगा।मेरे ही साथ थी अल्पना, मेरी जैसी।बहुत ही सरल,मितभाषी, मेहनती और…भी बहुत कुछ।
पहले तो मुझे लगा कि वह मात्र आकर्षण है लेकिन…पांच सालों में ऐसा लगा कि उससे अच्छा हमसफर और कोई हो ही नहीं सकता।
वही मेरी राइट चॉइस है।
अपने दिल की बात अपनी मां से किया तो वह फट पड़ी
“अरुण चार साल क्या गांव घर से दूर चले गए तो तेरे पंख निकल गए…अगर तेरे पिता को पता भी चला ना तो…!!!
मालूम है ना कि वह अब मुखिया हो गए हैं…इस गांव के सारे नियम वह खुद तय करते हैं और उनका नालायक बेटा…!
“अच्छा होता.. कि तू जीते जी मर जाता…!!नाक कटा दिया मेरा पूरे गांव के आगे…!
एक बात सुन ले बेटा…अगर वह लड़की इस घर में आई तो…हम…!”बाबा की दहाड़ पूरे घर पर गूंज रही थी।
“ना जी ना.. इस नालायक के लिए आप मर जाएंगे.. यह जाएगा यहां से…!
अरुण निकल जा यहां से…अगर मेरी औलाद हो ना.. और हमने ही दूध पिलाया है तुम्हें तो..लौट कर घर मत आना कभी…!” मां रो रही थी।
मैं अल्पना की जगह किसी और को नहीं दे सकता था।न ही किसी और के साथ जिंदगी बिताने का सोच भी सकता था।
मेरे इस फैसले से पूरा घर, पूरा गांव मेरे खिलाफ हो गया था।
मैं अपना सा मुंह लेकर वापस लौट आया था।
अल्पना मिली थी मुझे लेकिन एक बहुत ही बड़ा रकम चुकाने के बाद।
मां बाबा और पूरे परिवार के साथ मेरा संपूर्ण बचपन भर की खुशियाँ उसने मेरी झोली में डाल दिया था।
कभी मैं उसके चेहरे को निहारता तो मुझे लगता…आखिर किस मिट्टी की बनी है यह…!सबकुछ सहन कर लेती है…।
आखिर इस जातपांत में है क्या?मां बाबा दोनों उससे मिलते तो कितने खुश होते…!
उसके भी परिवार ने उसका साथ नहीं दिया था।
अकेले हम दोनों की घर गृहस्थी की गाड़ी चल रही थी बल्कि आराम से दौड़ रही थी।
उन दिनों महाराष्ट्र में डेंगू का दौर चल रहा था।
एक दिन अल्पना भी डेंगू के चपेट में आ गई।उसके प्लेटलेट्स बनने ही बंद हो गए थे।
खून की कमी हो गई थी.. !
एक दिन…वह मेरा घर आंगन सबकुछ उजाड़ कर बहुत दूर चली गई थी….हमेशा हमेशा के लिए…!
अल्पना के बिना मेरा घर घर नहीं रह गया था।मैं कहीं का भी नहीं रह गया था।
जिस नौकरी के कारण मैं आज उजड़ गया था..मैंने वह नौकरी छोड़ दिया।
फिर कविता और कहानी बना कर अपनी भावनाओं को इधरउधर लिखने लगा।
धीरे धीरे मेरी पहचान एक लेखक के रुप में होने लगी।
कई बार मैं घर लौटना भी चाहता था लेकिन मां की वो कसम..मेरे पैरों में बंधन डाल देते थे।
आज अपनी इतनी बड़ी सफलता अपने आँसुओं के साथ मना रहा हूँ।
सिर्फ़ मेरी अपनी पसंद के कारण मेरे अपने पराए हो गए थे, मेरे खिलाफ चले गए थे…!!
“अल्पना…कहाँ चली गईं हो तुम मुझे अकेले छोड़ कर…!”मैं कुछ देर तक वहां उसके फोटो के आगे खड़ा रहा फिर बच्चों की तरह बिलख उठा।
अल्पना के कारण मेरे घर वाले मेरे खिलाफ हो गए थे।
वही आज मुझे इतने बड़े साहित्यिक समाज में एक बड़े लेखक का खिताब दे दिया था लेकिन मेरा मन आज बहुत सूना था…मेरे बहते आँसू भी उस रेतीले मैदान को भिगो नही सकते थे।
तभी बाहर कॉलबेल बजी।
इतनी रात कौन आया होगा? यह सोचकर मैं बाहर निकला।
बाहर मेरे बाबा और बड़े भाई खड़े थे।
“आ…प..लोग यहां?”मैं ने उन्हें भीतर लिवा लाया।
“मुन्ना…बहू गुजर भी गई और तूने खबर करना भी उचित नहीं समझा…!”बड़े भाई ने उलाहना दिया।
“भैया वो मां की कसम…!”
“तुम्हारी माँ चल बसी मुन्ना…अपने आँखों में तुम्हारी शादी का सपना लिए…!”बाबा बिलख रहे थे।
“ओह…!”मैं अपने बाबा से लिपटकर रो पड़ा।
“कुछ नहीं…समय खिलाफ हो गया था हम सबके.. बुरा ग्रह गोचर चल रहा था…चलो अब घर वापस चलते हैं…!
“कितना दर्द छुपा रखा है तुमने अपने भीतर…!”बड़े भैया ने मुझे अपने गले से लगा लिया।
“हाँ भैया! ,मैं ने बस इतना प्रकट में कहा।
…आज शायद मेरे जीवन का भी आखिरी दिन होता अगर बाबा और भैया न आते…!यह मेरा मौन स्वीकरण था।
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प्रेषिका–सीमा प्रियदर्शिनी सहाय
#खिलाफ