” ये क्या माँ…आप फिर से वही रट लगाकर बैठ गईं हैं।मनीष की बात आप मान क्यों नहीं लेती हैं…।मैं भी निश्चिंत हो जाऊँगी…।” सीमा ने समझाते हुए अपनी माँ वंदना जी से कहा तो वह भड़क उठीं,” हाँ-हाँ..तू तो उसी का पक्ष लेगी लेकिन मैं कहे देती हूँ कि मैं उस मराठन के साथ हर्गिज़ नहीं रहूँगी।”
” माँ..वो आपकी बहू है..।”
” बहू…!” उन्होंने घूरकर सीमा को देखा और मुँह फेरकर बैठ गई।
” साठ पार कर गईं लेकिन आपका बचपना नहीं गया…।” धीरे-से सीमा बुदबुदाई और माँ को मनाने की तरकीब सोचने लगी।
वंदना जी के पति दयाशंकर बाबू सरल स्वभाव के सज्जन व्यक्ति थे।सहारनपुर के दफ़्तर में नौकरी की और वहीं अपना घर भी बनवा लिया।अपनी सीमित आय में उन्होंने अपने दोनों बच्चों सीमा और मनीष को अच्छी शिक्षा दिलवाई और पत्नी की ज़रूरतों को भी पूरा करने का हरसंभव प्रयास किया था।
दसवीं पास करने के बाद सीमा ने साइंस लिया।बीएस करने के बाद उसने बीएड किया और एक स्कूल में पढ़ाने लगी।कुछ महीनों के बाद एक खाते-पीते परिवार के बैंक में काम करने वाले लड़के सुशील के साथ उसका विवाह हो गया।मनीष इंजीनियरिंग पास करके मुंबई की एक स्टार्टअप
कंपनी में नौकरी करने लगा।कुछ समय बाद दयाशंकर बाबू सेवानिवृत होकर पत्नी संग रिटायर्ड लाइफ़ का आनंद लेने लगे।वो शाम को पार्क में टहलने चले जाते और वंदना जी मंदिर जाकर कीर्तन का आनंद लेतीं।
कीर्तन में आनेवाली अधिकांश महिलाएँ वंदना जी की हमउम्र थीं जो बीच-बीच में अपनी बहुओं के किस्से सुनाती रहतीं थीं।कोई कहती कि हमारी बहू तो सिर पर सवार रहती है तो कोई कहती कि बेटे की गैरबिरादरी पत्नी हमें बेघर करके खुद मालकिन बन बैठी है।
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ये किस्से सुनकर एकबारगी तो उनका दिल भी घबरा जाता कि कहीं मेरी बहू भी…।अपनी आशंका पति पर ज़ाहिर करतीं तो वो हँसकर कहते,” लोगों की बात कम सुना करो…बेटा का ब्याह किया नहीं… बहू अभी आई नहीं और ख्याल में ही उसे भला-बुरा कहने लगी।”
दीपावली पर मनीष आया तो वंदना जी ने मौका देखकर उससे दो-तीन लड़कियों की चर्चा की और कहा कि एक-दो से मिल ले..पसंद आये तो हम बात आगे बढ़ायेगे।तब मनीष बोला कि उसने लड़की पसंद कर ली है।उसके दोस्त की कज़िन तन्वी है..उसके माता-पिता मुंबई के ही निवासी हैं।
” मतलब कि हमारी बिरादरी की नहीं है।” वंदना जी गुस्से-से बोलीं।
” मराठी है लेकिन वो हमारे रीति-रिवाज़ों को भी जानती है।” मनीष ने तन्वी का पक्ष लिया।
” सुनते हैं…आपके सपूत ने किसी मराठन को पसंद कर लिया है।” अपने पति पर वो चिल्लाईं।दयाशंकर बाबू ने उन्हें शांत किया,” त्योहार का मज़ा किरकिरा मत करो।”
मनीष यह कहकर चला गया कि आपकी सहमति मिलने पर ही विवाह करुँगा।वंदना जी ने अपना दुख बेटी को सुनाया,” कीर्तन वाली जमुना बहन ठीक ही कहती थीं कि मुंबई वाले हमारे लड़के को फाँस लेंगे…मेरा भोला-भाला मनीष…।” तब सीमा ने उन्हें समझाया कि मनीष कोई बच्चा नहीं है.
.समझदार है।माँ..जब बच्चे बड़े हो जाये तो उनके फ़ैसलों को स्वीकार कर लेने में ही समझदारी है।ये जीवन का सच है…इसे जितनी ज़ल्दी समझ लेंगी, उतना ही अच्छा रहेगा।और हाँ..दूसरों की बातों पर कान न देकर अपनों पर विश्वास कीजिये।
बेमन-से वंदना जी ने शादी के लिये हाँ की।शादी के बाद सप्ताह भर रहकर मनीष और तन्वी मुंबई चले गये।समय-समय पर दोनों फ़ोन करके हाल-समाचार पूछते रहते।समय निकालकर मिलने भी आते और दोनों को साथ चलने को कहते लेकिन वंदना जी मना कर देतीं थीं।उनकी कीर्तन मंडली को जब पता चला कि बहू मराठी है , फिर तो उन्होंने नमक-मिर्च लगा-लगाकर बहू के खिलाफ़ उनके कान भरने शुरु कर दिये जिसके कारण उनके मन में तन्वी के प्रति नफ़रत बढ़ती ही चली गई।
डेढ़ साल बाद तन्वी एक बेटी की माँ बनी।दयाशंकर बाबू बहुत खुश..सीमा ने भी अपनी माँ को बधाई दी लेकिन वंदना जी की नाराज़गी खत्म नहीं हुई थी।दो साल बाद तन्वी फिर से एक बेटे की माँ बनी।पोते को देखने दयाशंकर बाबू गये लेकिन वो नहीं गई।उनके विचार से तन्वी का व्यवहार एक दिखावा था।वो यही कहती रहती कि उस मराठन ने आकर मेरे बेटे को मुझसे छीन लिया है।
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वंदना जी का नकारात्मक रवैया होने के बावज़ूद तन्वी अपना कर्तव्य निभाने में कभी पीछे नहीं रहती थी।उसके बच्चे जब वंदना जी को ‘दादी’ कहते तो उनकी ममता उमड़ पड़ती लेकिन फिर तान्या का ख्याल आते ही उनके चेहरे पर नकारात्मक भाव आ जाते।इसी तरह से छह बरस बीत गये।
दयाशंकर बाबू अस्वस्थ रहने लगे थे।अपना समय निकट देखकर उन्होंने वंदना जी से बहू को स्वीकार कर लेने को कहा।ऊपरी मन से उन्होंने हाँ कर दी थी लेकिन…।
पिता के गुज़र जाने के बाद मनीष ने वंदना जी को साथ चलने को कहा तो वो भड़क गई,” सब समझती हूँ मैं….तेरी मराठन बीवी को नौकरानी चाहिए ना..।” मनीष चुप रह गया।तन्वी बोली,” मैं बच्चों को लेकर जाती हूँ..आप मम्मी को साथ लेकर ही आईयेगा।” मनीष ने फिर सीमा से कहा,” दीदी…अब आप ही माँ को समझाइये।” सीमा ने कोशिश तो की लेकिन वंदना जी मुँह फुलाकर बैठ गईं थीं।
तब सीमा बोली,” ठीक है माँ..आप यहीं रहिये…मनीष भी आपके साथ ही रहेगा..उसका परिवार जाये भाड़ में…उसकी तकलीफ़ से भला आपको क्या…आपका बेटा तो…।”
” नहीं बेटी…मेरे बेटे को तकलीफ़ हो..ऐसा तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकती..।बस वो मराठन…।ठीक है, मैं मनीष के साथ चली जाती हूँ लेकिन सिर्फ़ दो-चार दिनों के लिये..उस मराठन के…।” वंदना जी तन्वी के बारे में बोलती जा रहीं थीं।मनीष को समझ नहीं आ रहा था।सीमा ने हँसते हुए उसे इशारा किया,” माँ को बोलने दो…वहाँ जाकर सब ठीक हो जायेगा।”
अगले दिन सीमा अपने घर चली गई और मनीष वंदना जी को लेकर मुंबई आ गया।दो कमरे के फ़्लैट की साज-सज्जा देखकर वंदना जी दंग रह गईं।दोनों बच्चे ‘दादी आ गईं ‘ कहकर उनसे लिपट गये। तन्वी ने उनके कमरे में उनकी ज़रूरत की सारी चीज़ें रख दी थी।चरण-स्पर्श करके बोली कि मम्मी, आप आराम कीजिये..मैं आपके लिये अदरक वाली चाय लेकर आती हूँ।
रात में दोनों बच्चे वंदना जी के साथ सोने की ज़िद करने लगे तो वो चाहकर भी उन्हें ना नहीं कर पाई।सहारनपुर में भी तन्वी उनका ऐसे ही ख्याल रखती थी लेकिन आज न जाने क्यों उन्हें अपनी बहू पर स्नेह उमड़ने लगा था।
पोती स्कूल चली जाती तो वंदना जी पोते के साथ ही खेलती-बातें करतीं लेकिन तन्वी की बातों का जवाब हाँ- हूँ में ही देतीं।सीमा फ़ोन करके पूछती कि माँ..कब आ रहीं हैं तो वो बात टाल जातीं थीं और सीमा समझ जाती कि उनका अपनों पर विश्वास होने लगा है।
एक दिन वंदना जी कमरे से निकलकर बालकनी में बैठने जा रहीं थीं कि उन्हें पोती की आवाज़ सुनाई दी-
” मम्मा..आप पार्क क्यों नहीं जाती..।”
” इसलिये कि अब दादी आ गईं हैं।पहले मैं अकेली बोर होती थी..अब तो तुम्हारी दादी से बातें कर लेती हूँ।”
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” लेकिन दादी तो आपसे बात नहीं करती..वो तो आपको..।”
” मैं भी तो आपको डाँटती हूँ ना…आप तो गुस्सा नहीं करते।ऐसे ही मैं कुछ गलत करती हूँ तो आपकी दादी मुझे..।” इसके आगे वंदना जी सुन नहीं सकी।लोगों की बातें सुनकर मैंने तन्वी के लिये कितनी गलत धारणा बना ली थीं…कितनी मूर्ख थी मैं जो सास-बहू के सच्चे रिश्ते को झुठला रहीं थी।विजातीय-सजातीय क्या होता है..वो मेरी बहू है..यही सच है।बच्चों को कितने अच्छे संस्कार दिये हैं मेरी बहू ने।सीमा ठीक ही कहती थी
कि अपनों पर विश्वास कीजिए.. लोगों का तो काम ही है दूसरों के घर में आग लगाकर अपने हाथ सेंकना..अपना घर उनसे संभालता नहीं और दूसरों के घर की शांति उनसे देखी नहीं जाती..ये जीवन का सच है।उन्होंने(मनीष के पिता) तो मुझे हमेशा समझाया था लेकिन मैं ही…।तभी उनकी पोती एक चित्र दिखाते हुए बोली,” दादी..देखिये…मैंने बनाया है।मेरा परिवार- मम्मी-पापा, वंश(भाई) और दादा-दादी।”
चित्र देखकर वंदना जी बहुत खुश हुईं , ” ये तो बहुत सुंदर है लेकिन बिटिया..हम तो आपके साथ नहीं रहते।”
” मम्मा कहतीं हैं कि आप हमारे दिल में रहती हैं..ये देखिये..मैंने हार्ट भी बनाया है।” वंदना जी की अश्रुओं का बाँध टूट गया…।मेरी बच्ची’ कहकर उन्होंने पोती को अपने सीने से लगा लिया।बरसों से दबा हुआ उनका वात्सल्य अश्रुधारा बनकर बहने लगा था।
सुबह नाश्ते की मेज़ पर वंदना जी तन्वी से नज़रें नहीं मिला पा रहीं थीं।तन्वी और मनीष ने उनकी सूजी हुई आँखें देखकर उनके मनोभावों को पढ़ लिया था।माहोल को हल्का करते हुए मनीष ने पूछा,” माँ..कल का टिकट करा दूँ..आपने दो-चार दिन का कहा था..आज तो दस दिन होने को आये हैं तो…।
बेटे की शरारत को वंदना जी समझ गईं, बोली,” कब कहा था याद नहीं..रात गई, बात गई..।मैं तो अपने घर.. अपनों की बीच आ गई हूँ..तुझे जाना है तो जा..क्यों राशि- वंश..।”
” हाँ दादी..।” दोनों बच्चे उनकी गोद में बैठने के लिये होड़ा-होड़ी करने लगे।तन्वी मनीष को देखकर मुस्कुराई जैसे कह रही हो,” आज हमारा परिवार पूरा हो गया।”
विभा गुप्ता
# ये जीवन का सच है स्वरचित, बैंगलुरु
समाज में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें दूसरों को खुश देखना अच्छा नहीं लगता..वो झूठी-सच्ची कहानी सुनाकर बरगलाने की कोशिश करते हैं।वंदना जी की कीर्तन- मंडली भी उन्हीं में से एक थी।समय पर उनकी आँखें खुल गई और उन्हें अपने बच्चों की निच्छलता पर विश्वास हो गया।