रोहन माता-पिता का इकलौता दुलारा बेटा था।माता-पिता खेती करके गुजारा करते थे।जमीन थोड़ी-थोड़ी बेचकर हर साल उसकी इंजीनियरिंग कालेज की फीस जमा करते थे।इसी आशा से कि चार साल बाद सब ठीक हो जायेगा।
बेटा होनहार था ।पढ़ाई समाप्त होने के पहले ही उसे अमेरिका में अच्छी नौकरी मिल गयी।
माता- पिता ने सोचा विदेश जाकर गोरी मेंमो के चक्कर में न आ जाये, इसलिए उसका विवाह करने के लिए लड़की ढूँढना शुरू किया।रोहन के साथ ही पढ़ने वाली बिरादरी की लड़की से शादी तय कर दी।
बड़े धूमधाम से शादी हुई।बहू का मायका पढ़ा-लिखा समृद्ध था।
बहू भी पढ़ी-लिखी सुंदर संस्कारी थी।
रोहन इकलौता बेटा था, परन्तु ताऊजी की बेटियों ने शादी का पूरा काम सम्हाला था।पूरी तैयारी, खरीदारी करवाई ।सब बहने शादी के पन्द्रह दिन पहले आ गई थी।
ताऊजी बगल में ही रहते थे।उनकी चार बेटियां थीं।सब बड़ी थी रोहन से।वे चारों रोहन को बहुत प्यार करती थीं। उनके ही घर रोहन खेलता रहता था।वे बहनें ही उसे बड़े प्यार से नहलाती, खाना खिलाती ।रोहन की मांँ भी उनके घर रोहन को भेजकर बेफिक्र होकर अपने घर का काम करती।
हर त्योहार दोनों परिवार साथ ही मनाते थे।राखी पर सबसे पहले कौन रोहन को राखी बांँधेगी होड़ लगी रहती थी।
अमेरिका में रोहन और बहू आराम से रह रहे थे।एक बेटा भी हो गया।
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दादा- दादी पोते का मुंँह देखना चाहते थे।रोहन स्वयं दोनों लेने आया था।
माँ बाबूजी बेटे का धन वैभव देख बहुत प्रसन्न थे।अपने बेटे पर उन्हें गर्व था।
एक दिन फोन पर अपने बड़े भाई को रोहन के पिताजी अमेरिका के बारे में बड़ी खुशी से बता रहे थे। “बड़े भैया,यहांँ बड़ी सफाई है रहने की बहुत बढ़िया सुविधाएं हैं।अपने रोहन के पास मर्सिडीज गाड़ी है । प्रत्येक शनिवार हमको घुमाने ले जाता है। रविवार को मंदिर जाते हैं। वहीं पेटभर प्रसादी पाकर आते हैं।
रोहन के ताऊजी भी बहुत खुश हो रहे थे।रोहन उनका भी बहुत लाड़ला था।जब रोहन छोटा था, वे जब भी कहीं जाते रोहन को साथ ले जाते।चाहे कहीं भोजन का निमंत्रण हो, या बाजार से सामान लेने जाना हो।
प्रतिदिन शाम को रामू हलवाई के यहाँ जा के बैठते थे, वहाँ वे कभी कभी रोहन को भी घुमाने ले जाते।वहाँ से रोहन के लिए पेड़े खरीद कर देते थे।रोहन भी घर आकर बहनों को दिखा-दिखा कर खाता।वे माँगती तो नहीं देता था। ताऊजी चुपचाप जेब से पेड़े की पुड़िया बेटियों के लिए अंदर रसोई में रख आते।
रोहन खुश होता कि ताऊजी मुझे बहुत प्यार करते हैं,केवल मुझे पेड़े दिलाते हैं।
ताऊजी अपने भाई से बोले “छोटे हम भी आयेंगे रोहन का घर देखने। बहुत मन है कि देखें हमारा बिटवा कैसे रहता है?”
रोहन के पिताजी बोले “मैं अभी रोहन से आपकी व भाभी की टिकट कटवाने की कहता हूँ”।
ताऊजी घबराकर बोले “अरे नहीं-नहीं अभी तबियत ठीक नहीं है मैं जब आना होगा कह दूंँगा।”
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अचानक एक दिन रोहन की माँ की तबियत खराब हो गयी।आरती करते-करते गिर गयी। मंदिर रसोई में ही था।बहू भोजन बना रही थी। उसने दौड़ कर सम्हाला।
रोहन की मांँ कौशल्या जी बड़ी धार्मिक व सरल थीं। सबको सहायता करने वाली महिला थीं।
आनन-फानन उनको अस्पताल में भर्ती किया।दो दिन में ही उनकी जीवन लीला समाप्त हो गयी।
अमेरिका में अपना कोई नहीं था। परंपरा रिवाज सब महिलाएं जानती हैं। अंतिम क्रिया कैसे करें न रोहन को और न उनके पिता को समझ नहीं आ रहा था।आज उन्हें अपने रिश्ते दारों की बहुत याद आ रही थी।
ताऊजी से व ताई जी से वीडियो से पूछकर
सब कार्यक्रम हुआ।
शाम को वे अकेले बैठे सोच रहे थे,कि पराये देश में तो सब पराये ही होते हैं।अपना देश अपना होता है । सुख-दुख में अपनों का साथ ही सहारा बनता है।
तभी बेटा रोहन पिताजी को अंदर ले गया ।
पिताजी फफक कर रो पड़े।बेटा दूर विदेश में कोई अपना नहीं होता। आज अपनों का साथ क्या होता है समझ में आ रहा है।रोहन की आँखों से आँसू बह रहे थे।स्वयं से प्रश्न कर रहा था, कि अमेरिका आने का निर्णय मैंने सही किया या ग़लत?
तभी रोहन का मोबाइल बजा।ताऊजी कह रहे थे “बेटा परेशान मत होना क्रिया कर्म हम यहीं करेंगे।हम सब व्यवस्था कर लेंगे।तुम सब बस आ जाओ”।
सुनीता परसाई,
जबलपुर मप्र