किसी के पास बहुत धन-दौलत हो जाय उससे कुछ भी नहीं होता जबकि उसके साथ दिल भी न हो ताकि आवश्यकतानुसार मौके पर उसका सदुपयोग कर सके। धनंजय एक ऐसा ही व्यक्ति था। यद्यपि वह प्रोफेसर था फिर भी वह क्यों इतना कंजूस हो गया था? कुछ लोगों का कहना था कि उसकी पत्नी उससे भी कहीं अधिक कंजूस थी।
ऐसे लोगों को ठेठ भाषा में कंजड़ कहा जा सकता है। मोटे तौर पर यह समझ लेना चाहिए कि कंजड़ व्यक्ति मूलतः मानसिक दरिद्रता का शिकार हो जाता है। सब कुछ होने के बावजूद वह लोगों से यही कहता है कि मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। फिर भी न जाने क्यों लक्ष्मी उसके यहां लोटती रहती हैं। प्रोफेसर धनंजय ने पटना में एक आलीशान महल बना लिया था।
उसके दो बेटियां और एक ही बेटा था।बेटा बड़ा और बेटियां छोटी थीं। लड़का धर्मवीर इंजीनियरिंग पास करके एक बड़ी कंपनी में कार्यरत था। वह शादी शुदा था। शादी के लगभग दस ग्यारह साल हो चुके किन्तु आज तक कोई संतान नहीं हुई। पति-पत्नी दोनों उदास ही रहते । पत्नी रूपा भी फैशन डिजाइनर है। दोनों चेन्नई में रहते हैं। धनंजय की पत्नी रेखा भी पोते पोतियों के लिए तरसती रहती है। लेकिन प्रकृति की गति मति को हमारे
जैसे सामान्य जीव कैसे जान पायेंगे। लोग कहते हैं कि धर्मवीर में शुक्राणुओं की कमी है जिससे बच्चे नहीं हो रहे हैं जैसा कि चिकित्सकों ने बताया है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो यह कहते हैं कि दोनों में पटती नहीं है इसलिए साथ साथ नहीं रहते। जब साथ साथ रहेंगे ही नहीं तब बच्चे पैदा होने का कोई सवाल ही कहाँ?।
उनकी दोनों बेटियाँ मृदुला और मीरा अच्छी थीं। पढ़ने लिखने और स्वभाव से भी।
रूप औसत दर्जे का था। मृदुला हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से एमएससी बायोटेक्नोलॉजी कर चुकी थी और किसी दवा कंपनी में कार्यरत भी थी। मीरा अभी इंजीनियरिंग प्रथम वर्ष की छात्रा है। इलाहाबाद में पढ़ती है। इससे पहले कि जब मृदुला इंटरमीडिएट में थी तो कालेज आना-जाना लगा रहता था। विज्ञान के शिक्षक धनंजय ट्यूशन पढ़ाने वाले शिक्षकों में जाने जाते थे। विद्यार्थी उनकी खूब प्रशंसा करते थे। जिस कालेज में धनंजय प्रोफेसर थे उसी कालेज के उनके मित्र रामदेव भी राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर थे। दोनों एक दूसरे के घर आवश्यकता पड़ने पर आते जाते थे। उनका लड़का वैभव मृदुला का क्लासमेट था। वैसे पारिवारिक स्तर पर पहले से दोनों परिचित ही थे। एक दिन रामदेव ने कहा,–” क्या आप मेरे वैभव को भी ट्यूशन पढ़ा देंगे? जो फीस होगी मैं दे दूँगा।”
धनंजय ने कहा –” क्यों नहीं? आपका लड़का मेरे लड़के के समान है। उसको पढ़ने के लिए भेज दीजियेगा।”
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वैभव निर्धारित समय पर आने लगा। वह भी उसी बैच में था जिसमें मृदुला थी। अब दोनों एक-दूसरे से किताबों का आदान-प्रदान करने लगे। सम्बन्ध बढ़ने लगा। संयोगवश वैभव का नामांकन भी हैदराबाद में ही हुआ। दोनों लाइफ साइंसेज के विद्यार्थी थे। धनंजय मृदुला को लेकर दो चार बार हैदराबाद गये होंगे। फिर उनको ऐसा लगा कि अब जब वैभव भी वहीं पढ़ता है तो क्यों नहीं उसी के साथ वह भी आये जाये।
इससे आने जाने की परेशानी और फिजूलखर्ची से भी बचाव हो सकता है। ऐसा ही हुआ चूँकि इस बात पर धनंजय की पत्नी ने भी अपनी मुहर लगा दी। दोनों छुट्टियों में हैदराबाद से पटना आते थे फिर छुट्टियां समाप्त होने के बाद दोनों साथ ही हैदराबाद जाते थे।
आने जाने के क्रम में ही दोनों के बीच गाढ़ी दोस्ती हो गयी थी। पटना में भी एक दूसरे के घर आना जाना बढ़ गया था। किसी तरह का कोई व्यवधान नहीं था।
जब दोनों की पढ़ाई पूरी हो गयी और दोनों भिन्न-भिन्न कंपनी में किंतु एक ही शहर में कार्यरत थे। दोनों की आवासीय व्यवस्था एक साथ ही थी। मृदुला और वैभव के अभिभावकों को यह बात भली-भाँति मालूम थी किन्तु किसी ने भी कहीं से इसका विरोध नहीं किया। इनके साथ साथ रहते हुए पाँच छह साल हो गये थे।
ये पति-पत्नी की तरह ही थे।सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मौका बेमौका दोनों के माता-पिता भी अलग अलग समय में आया जाया करते थे। अब केवल शादी का रस्म पूरा करना शेष था। कालोनी में भी अधिकांश लोग इस बात को जान गये थे। लेकिन इससे किसी का क्या वास्ता?
समय के साथ सब कुछ बदल जाता है। प्रोफेसर रामदेव और उनकी पत्नी जो मृदुला को अपनी बहू मान चुके थे अब पलटी मारने की तैयारियां करने लगे। रामदेव का यह मानना था कि ” मैं लड़का वाला हूंँ। मेरे पास धनंजय को आना चाहिए और इस पर विचार करना चाहिए कि यह शादी किस तरह से संपन्न होगी। विवाह में खर्च होता है। इसमें होने वाले खर्चे में वे अपना कितना योगदान करेंगे। इस तरह के अहम मुद्दों पर चर्चा तो होनी ही चाहिए। मैं तीन तीन बेटियों की शादी से उबरा हूंँ। मुझमें अब अधिक खर्च करने की शक्ति नहीं रह गयी है। मैं कर्जदार हो गया हूँ । हांँ, मेरा बेटा है तो उसके लिए भी कुछ खर्च तो करुंँगा ही लेकिन मुख्य भूमिका तो धनंजय जी को ही निभानी होगी। “
प्रोफेसर रामदेव की मानसिकता को जब मध्यस्थ ने प्रोफेसर धनंजय को बताया तो उन्होंने कहा –” मैं उनके पास इन सब बातों के लिए हरगिज नहीं जाऊंँगा। इसमें खर्चे की बात कहीं है ही नहीं । अब तो केवल रस्म अदायगी भर रह गयी है। किसी दिन हनुमानजी के मंदिर में शादी विवाह करके निश्चिंत हो जायँ। खान-पान में जो भी खर्च होगा उसमें हम दोनों आधे- आधे के हिस्सेदार होंगे ।”
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मध्यस्थता करने वाले ने जब प्रोफेसर रामदेव को इसकी जानकारी दी तो वे आगबबूला हो गये। उन्होंने कहा –” धनंजय ने अपने को क्या समझ रखा है? यदि रिश्ता कायम करना है तो उनको मुझसे बातें मेरे घर आकर करनी होंगी। नहीं तो मैं पुनर्विचार करने के लिए विवश हो जाऊंँगा और मैं ऐसा नहीं चाहता। वे अपने को इतना बड़ा क्यों मानने लगे? मेरे पास आकर बातें करना क्यों नहीं चाहते? यह तो मेरी समझ से बाहर है।”
वैसे तो मध्यस्थ दोनों का शुभचिंतक हुआ करता है। धनंजय को पुनः समझाने का प्रयास किया किंतु वे भी मूढ़ता के शिकार बन गये थे। यहांँ तक कि उनकी पत्नी भी हांँ में हांँ मिलाती रही थी। जिसका परिणाम बहुत बुरा हुआ।
जब रामदेव को यह ज्ञात हुआ कि धनंजय इस बारे में पहल करने को तैयार नहीं हो रहे हैं तब उन्होंने जो कहा –” यदि वे मुझसे मिलने नहीं आयेंगे और जब तक बातचीत नहीं करेंगे तब तक शादी नहीं होगी। मैं उनको एक साल का समय देता हूंँ। इस दौरान कभी भी मुझसे बातें कर सकते हैं। ऐसा नहीं करेंगे तो अगले साल मैं वैभव की शादी किसी दूसरी जगह तय कर दूंँगा।”
उधर वैभव और मृदुला दोनों एक ही साथ हैं। वैभव ने मृदुला से कहा –” तुम एक बार तो अपने पापा को बोल दो कि वे उनसे जरुर मिलने की कोशिश कर लें। मेरे पापा तो यही न चाहते हैं। उनकी यह इच्छा है तो उनको एतराज नहीं होना चाहिए।”
मृदुला ने कहा — “मैं पापा से तो नहीं किंतु मम्मी से कह सकती हूंँ।”
खैर जिसको तुम कहना चाहो कह सकती हो। मृदुला ने जब अपनी मम्मी से यह कहा — ” पापा उनसे एक बार तो सही क्यों नहीं मिल लेते?”
उसने कहा — ” घबराओ मत मृदुला। अब तुम्हारे पापा इस बात से आश्वस्त हो गये हैं कि वैभव और मृदुला दोनों की अटूट दोस्ती हो गयी है। यह कभी विच्छेद नहीं होगी। वैसे वैभव के पापा से तुम्हारे पापा सीनियर हैं। दोनों में काफी अंतर है। तुम चुपचाप देखती और सब कुछ सुनती रहो। सिर्फ वैभव का ख्याल जरुर रखना।”
अपनी मम्मी की बातें सुनकर मृदुला के नीचे की जमीन खिसकती मालूम हुई। मेरे पापा और मम्मी दोनों तो एक ही बात सोच रहे हैं। अब मैं क्या करुंँ?
किसको क्या कहूंँ? इनके अतिरिक्त दूसरा कोई है भी नहीं जिससे मैं अपनी कहानी सुना सकूंँ। हे भगवान! अब मैं वैभव को क्या कहूँगी? अच्छा जो होना होगा वह तो हो कर ही रहेगा। मेरे भाग्य जो ब्रह्मा ने जो लिख दिया होगा भला उसे कौन टाल सकता है? दूसरे विधाता तो अपने माता-पिता ही होते हैं। वे सब भी साथ नहीं दे रहे हैं तो फिर किसको क्या कहूंँ?
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वैभव के आफिस से लौटकर आने से पहले ही मृदुला पहुँच गयी थी।चाय नाश्ते के बाद उसने कहा –” क्या तुमने घर पर बातें की?”
मृदुला ने ‘ हाँ ‘ की मुद्रा में –” अपना सिर हिलाया।”
हाँ तो क्या हुआ –” मृदुला ने बताया कि जो बातचीत हुई वह सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करने वाली नहीं रही है। मैं बहुत परेशान हूँ। अब सारा दारोमदार तुम पर ही है। तुम चाहो तो अपने पापा को पक्ष में कर सकते हो। वरना मेरी तो हालत उस चिड़िया की तरह हो गयी है जिसके पंख कुतर दिये गये हों जो न तो उड़ सकती है और न तो मर ही सकती है।”
यह सुनकर वैभव आश्चर्यचकित रह गया। ऐसा है तो फिर इसमें वह किस तरह से पहल कर सकता है? बहुत सोच समझकर कहा –” अच्छा मैं देखता हूँ क्या हो सकता है? वैसे मेरे पापा भी तो एक नंबर के जिद्दी हैं। फिर भी वह खतरे से बाहर निकल जाने का भरपूर प्रयास करेगा।”
वैभव ने कोशिश तो की किंतु असफल ही रहा लेकिन अब तक दोनों साथ साथ ही हैं। प्रोफेसर रामदेव ने जो एक साल की अवधि निर्धारित की थी वह अब पूरी होने वाली थी। वैभव में इतनी हिम्मत नहीं थी कि एकबारगी यह कह सके कि वह इसके अलावा किसी दूसरी लड़की से शादी नहीं करेगा । ऐसा क्यों था? नहीं कहा जा सकता है।
प्रोफेसर रामदेव ने धनंजय के पास एक बार फिर खबर भेजवायी कि अब वह समय आ गया है जिससे आर-पार की स्थिति पैदा होने वाली है।
लेकिन अहंकारी धनंजय ने मिलने से इंकार कर दिया। जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अगले साल उन्होंने वैभव का विवाह पटना में ही हनुमान नगर कालोनी निवासी विजय की एकमात्र पुत्री सुशीला के साथ धूमधाम से कर दिया।
अब वैभव और सुशीला हैदराबाद में ही कहीं दूसरी जगह रहते हैं। इधर धनंजय दम्पति की चतुराई कोई काम नहीं आयी। कुछ मिला तो सिर्फ बदनामी और मृदुला को अथाह असह्य और असहज कर देने वाली वेदना, पीड़ा और हरदम टीस टीस करने वाला ज़ख़्म। कुछ दिनों बाद बाजार में वैभव से मृदुला की अचानक मुलाकात हो गयी। दोनों पल भर के लिए अतीत में चले गये। आंँखों आँखों में बातें हो गयीं। मृदुला ने केवल यही कहा –” मुझे अपनों का साथ नहीं मिला।”
अयोध्या प्रसाद उपाध्याय, आरा
मौलिक एवं अप्रकाशित।